दिल्ली हाई कोर्ट ने सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट पर रोक को लेकर दायर जनहित याचिका (PIL) खारिज कर दी है। साथ ही इसे फाइल करने वाले पर एक लाख रुपए का जुर्माना भी किया है। अब आने वाले दिनों में इस प्रोजेक्ट के विरुद्ध प्रोपेगेंडा की शक्ल क्या होगी, वह इस बात पर निर्भर करेगा कि इसके विरोध की योजना को आगे कौन सी दिशा मिलती है।
वैसे तो इस वर्ष सुप्रीम कोर्ट भी इस प्रोजेक्ट की वैधता को लेकर दाखिल पीआईएल हले ही खारिज कर चुका है पर देखना यह होगा कि प्रोजेक्ट के विरुद्ध प्रोपेगेंडा करने वाले किसी और रास्ते एक बार फिर से शीर्ष अदालत जाते हैं या इस शोर शराबे से काम चलाते हैं कि दिल्ली हाई कोर्ट का यह फैसला साबित करता है कि न्यायालय स्वतंत्र नहीं रहे और मोदी सरकार ने इन पर कब्जा कर रखा है।
यदि सुप्रीम कोर्ट दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले को चुनौती देने वाली किसी याचिका को स्वीकार कर लेता है तो टूलकिट के अनुसार से चलाए जा रहे प्रोपेगेंडा को और आगे ले जाना आसान होगा, क्योंकि केंद्र सरकार के लिए फिर से वही सब कुछ करना आवश्यक हो जाएगा जो उसने दिल्ली हाई कोर्ट में किया है। यदि ऐसा न हुआ तो न्यायालयों पर सरकार के कब्जे वाला आरोप दोहराया जाएगा ताकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार के खिलाफ चल रहे प्रोपेगेंडा को और आगे ले जाया जा सके।
यह प्रोजेक्ट टूलकिट प्रधान प्रोपगेंडा में विशेष स्थान रखता है। यही कारण है कि पिछले पाँच महीनों में इसे लेकर बार-बार प्रश्न उठाए गए और यह साबित करने की कोशिश की गई कि इसे जारी रखने का अर्थ यह है कि केंद्र सरकार ने कोरोना की समस्या को छोड़ अपना सारा ध्यान, ऊर्जा और संसाधन इसी प्रोजेक्ट पर लगा रखा है। महामारी के दौरान इस प्रोजेक्ट को जारी रखने के खिलाफ बार-बार उलटे-सीधे सवाल उठाकर यह बताने की कोशिश की गई जैसे यह केंद्र सरकार का प्रोजेक्ट, नहीं बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की निजी महत्वाकांक्षाओं का प्रोजेक्ट है। जैसे इसकी आवश्यकता ही नहीं है और केंद्र सरकार इसे जबर्दस्ती जारी रखना चाहती है। इसकी तुलना मुगल बादशाह द्वारा बनवाए गए ताजमहल से करने का प्रयास भी किया गया।
प्रोपेगेंडा में भी कॉन्ग्रेसियों की दौड़ मुगलों पर ही जाकर रूकती है!
दिल्ली हाई कोर्ट ने पीआईएल को खारिज करते हुए इसको राष्ट्रीय महत्व की परियोजना बताते हुए कहा कि यह पीआईएल जेन्युइन नहीं है, इसलिए चल रहे निर्माण को रोकने का सवाल ही पैदा नहीं होता। हाई कोर्ट का मानना था कि पीआईएल फाइल करने वाला यह साबित नहीं कर सका कि इसकी वजह से कोरोना के विरुद्ध सरकार की लड़ाई किसी तरह से प्रभावित होती है।
पीआईएल के सहारे निजी या सार्वजनिक उद्योगों का निर्माण रोकना कोई नई बात नहीं है। ऐसा करना कुछ एनजीओ और आन्दोलनजीवियों के लिए जीवन-यापन जैसा है पर इंफ्रास्ट्रक्चर के एक आवश्यक राष्ट्रीय परियोजना को रोकने के पीछे क्या कारण हो सकते हैं? आखिर सरकारी परियोजना से किसे दिक्कत है? केंद्र सरकार पहले भी यह बता चुकी है कि इस परियोजना की आवश्यकता सरकार को है और इसके निर्माण के पश्चात किराए की शक्ल में किए जाने वाले सरकारी खर्च की बचत होगी। इसके अलावा भविष्य में यदि योजना के अनुसार चुनाव सम्बन्धी सुधार किए गए और सांसदों की संख्या बढ़ी तो भी देश को एक नए संसद भवन की आवश्यकता पड़ेगी। ऐसे में क्या यह आवश्यक नहीं कि नए संसद भवन का निर्माण समय पर हो जाए?
इन कारणों के अलावा इस प्रोजेक्ट की आवश्यकता इसलिए भी है क्योंकि महामारी की वजह से अर्थव्यवस्था में आई मंदी के दिनों में इंफ्रास्ट्रक्चर सम्बन्धी ऐसी परियोजनाओं से लोगों को रोजगार मिलता है जो मज़दूरों के लिए आवश्यक है। यह एक ऐसा तरीका है जो आवश्यकता पड़ने पर दुनिया भर की सरकारें अपनाती हैं। यदि हम इतिहास में झाँके तो इसका सबसे बड़ा उदहारण द ग्रेट डिप्रेशन के समय जब रूज़वेल्ट 1933 में अमेरिका के राष्ट्रपति बने तो उन्होंने मंदी से जूझ रही अमेरिकी अर्थव्यवस्था को फिर से पटरी पर लाने के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर बनाने का एक दीर्घकालीन अभियान चलाया जिसकी वजह से लोगों को रोजगार भी मिला और एक बहुत बड़ा निर्माण कार्य हुआ जिसपर अमेरिकी अर्थव्यवस्था आज भी चलती है।
दिल्ली हाई कोर्ट ने पीआईएल करने वालों पर जो जुर्माना किया है वह मात्र एक लाख रुपया है। मेरा ऐसा मानना है कि जब कोर्ट का मानना था कि इस पीआईएल के पीछे किसी तरह की बदनीयती प्रमुख कारण है तो उसे जुर्माने की रकम ऐसी लगानी चाहिए थी ताकि भविष्य में बदनीयती लेकर किए जाने वाले किसी तरह के पीआईएल लेकर कोर्ट पहुँचने से पहले लोग दस बार सोचें। जिन लोगों ने यह केस किया था उनके लिए एक लाख रुपए का जुर्माना कुछ नहीं है। यह जुर्माना न तो इस केस की सुनवाई में खर्च किए गए कोर्ट के समय के अनुरूप है और न ही भविष्य में बदनीयती के साथ दायर किए जाने वाले ऐसे किसी पीआईएल को हतोत्साहित करने के लिए काफी है।
हाई कोर्ट द्वारा लगाए गए इस जुर्माने की बात पर मुझे साल 2012 का इलाहाबाद हाई कोर्ट के लखनऊ बेंच का एक फैसला याद आता है जिसमें बेंच ने एक विपक्षी नेता के विरुद्ध बलात्कार का आरोप लगाने वाली एक याचिका को खारिज करते हुए याचिकाकर्ता पर पचास लाख रुपयों का जुर्माना लगाया था ताकि भविष्य में कोई ऐसा न कर सके।
यह देखना दिलचस्प रहेगा कि सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट के खिलाफ अब प्रोपेगेंडा का स्वरूप क्या होगा? इतिहास को देखें तो पाएँगे कि राफेल की खरीद को लेकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले और उसके अनुसार माफी माँगने के बाद भी राहुल गाँधी अपनी हरकतों से बाज नहीं आए। ऐसे में हाई कोर्ट का निर्णय प्रोपेगेंडा करने वालों को किसी तरह से हतोत्साहित करेगा, इस बात की संभावना न के बराबर है।