Monday, October 14, 2024
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राहुल गाँधी की फ़ॉर्म्युला पॉलिटिक्स और उसमें फँसी कॉन्ग्रेस: प्रधानमंत्री बनने/बनाने की ख्वाहिश कब तक?

एक राजनीतिक दल, जो भारत जैसे विशाल देश में सरकार बना कर अपने नेता को प्रधानमंत्री बनाने की ख्वाहिश रखता है, क्या अपना राजनीतिक दर्शन, संघर्ष और राजनीतिक संरचना किसी और को आउटसोर्स करने का ख़तरा बार-बार उठा सकता है?

वर्तमान में कॉन्ग्रेस पार्टी की राजनीति का एक प्रमुख दर्शन है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मित्र गढ़ लेना। किसी उद्योगपति को उनका मित्र घोषित करके यह बताना कि मोदी उन्हें फ़ायदा पहुँचाने के लिए ही प्रधानमंत्री बने हैं। चार वर्ष पहले राहुल गाँधी बताते थे कि मोदी के दस पंद्रह उद्योगपति मित्र हैं जिन्हें वे फ़ायदा पहुँचा रहे हैं। बाद में यह संख्या कम होते-होते दो पर आ रुकी। क़रीब डेढ़ वर्षों तक दो पर टिकी रही और बड़ी मेहनत के बाद राहुल गाँधी ने एक और उद्योगपति की खोज कर ली है जिसे वे मोदी का मित्र बता सकें और ये नाम है सिरम इन्स्टिट्यूट ऑफ़ इंडिया के अदार पूनावाला का। कल उन्होंने पूनावाला को भी नरेंद्र मोदी का मित्र घोषित करते हुए बताया कि; मोदी उन्हें फ़ायदा पहुँचाना चाहते हैं।

राहुल गाँधी के अनुसार नरेंद्र मोदी दिन-रात काम कर रहे हैं ताकि किसी और को फ़ायदा पहुँचे। कौन भारतीय इस बात पर विचार भी करेगा कि एक व्यक्ति, जो प्रधानमंत्री है, अपने फ़ायदे के लिए मेहनत न करके किसी और के फ़ायदे के लिए मेहनत करेगा? ऐसा कैसे है कि एक आम भारतीय की सोच की भनक उस नेता को नहीं है जो देश का प्रधानमंत्री बनने की आकांक्षा रखता है?

क्या नेताजी ने पिछले डेढ़ दशकों में एक आम भारतीय में होने वाले विचार परिवर्तन के बारे कभी नहीं सोचा? कभी चिंतन नहीं किया कि कैसे एक आम भारतीय अब अपने लिए काम करना चाहता है? क्या किसी सलाहकार ने इस नेता को यह नहीं बताया कि; देखिए सर, लोगों का विचार ऐसा बदल रहा है कि नौकरी करने वाला एक आम भारतीय अब नौकरी छोड़कर बिज़नेस करना चाहता है क्योंकि उसे लगता है कि उसकी क्षमता, ज्ञान और एक्स्पर्टीज़ का फ़ायदा उसे हो रहा है जिसके लिए वह काम करता है।

फ़ॉर्म्युला पॉलिटिक्स की एक समस्या है। किस फ़ॉर्म्युला की एक्सपाइरी डेट आकर चली गई है, इस बात की भनक फ़ॉर्म्युला लगाने वाले को नहीं होती। वह बेचारा लगा रहता है उसे अप्लाई करके नए परिणाम निकालने में। इधर फ़ॉर्म्युला मन ही मन ख़ुश हो रहा होता है, यह सोचते हुए कि; इसे यह नहीं पता कि मुझमें अब फल नहीं लग सकते। इनके बार-बार दोहराए जाने के पीछे एक कारण यह भी होता है कि ऐसे फ़ॉर्म्युलों को किराए पर मिलने वाले बुद्धिजीवी, संपादक, सोशल मीडिया ऑपरेटिव और तथाकथित आरटीआइ ऐक्टिविस्ट राजनीतिक दाँव-पेंच बताकर नेता के मन में झूठा आत्मविश्वास पैदा कर देते हैं।

भारत का वर्तमान विपक्ष इसी फ़ॉर्म्युला पॉलिटिक्स का मारा है, बस इन विपक्षी नेताओं को इनके सलाहकार नहीं बता पा रहे कि ये फ़ॉर्म्युला क्यों नहीं चल रहा और उनके वांछनीय परिणाम क्यों नहीं आ रहे। इसके पीछे शायद कारण यह है कि ऐसा करने से सलाहकारों को मिलने वाला मेहनताना बंद हो जाएगा।

विपक्ष, ख़ासकर कॉन्ग्रेस के नेता को अभी भी लगता है कि भारतीय राजनीति समय के उसी बिंदु पर खड़ी है जहाँ उन्हें उनकी पार्टी विरासत में मिली थी और वही सारे फ़ॉर्म्युले आज भी प्रासंगिक हैं जो उन्हें पार्टी के साथ परंपरागत ज्ञान के रूप में मिले थे।

ऐसे में बेचारे परंपरागत ज्ञान के रूप में मिले फ़ॉर्म्युले चलाए जा रहे हैं। नवाचार के नाम पर बस उस फ़ॉर्म्युले के किसी एक नट को कस दिया जाता है या किसी दूसरे को ढीला कर दिया जाता है, इस आशा में कि ऐसा करने के बाद परिणाम कुछ अलग आएँगे। यदि ऐसी राजनीति में राहुल गाँधी का विश्वास न होता तो नोटबंदी के समय न ही वे ATM से पैसे निकालने के लिए लाइन में खड़े न होते और न ही उत्तराखंड की रैली में अपने कुर्ते की फटी जेब दिखाते।

यह भी फ़ॉर्म्युला पॉलिटिक्स का ही असर है जिसमें कॉन्ग्रेस ने अपनी राजनीतिक लड़ाई को संपादकों, बुद्धिजीवियों, पत्रकारों और बोट्स के लिए आउट्सोर्स कर दिया है। ऐसा नहीं कि यह कोई नया फ़ॉर्म्युला है। यह पहले भी था पर चूँकि तब मीडिया की पहुँच सीमित थी इसलिए दिखाई कम देता था।

इस परिप्रेक्ष्य में मुलायम सिंह यादव का वह वक्तव्य याद आ जाता है जिसमें उन्होंने कहा था कि; कॉन्ग्रेस के हज़ारों हाथ हैं। संपादकीय, कॉलम, मीडिया हाउस और खबरों पर नियंत्रण की शक्ल आज बदल कर अजेंडा चलाने वाले गिरोह के फेसबुक पोस्ट, यूट्यूब वीडियो, ट्विटर ट्रेंड, आंदोलनजीवियों और ‘एमिनेंट’ इंटेल्लेक्टुअल्स के पत्रों और अवॉर्ड वापसी ने ले लिया है। प्रश्न यह है कि जिनके सहारे यह दल पुनः राजनीति की प्रमुख धुरी बनना चाहता है उनकी निजी विश्वसनीयता ऐसी है कि वे दिए गए काम कर सकें?

पर मेरे विचार से उससे भी बड़ा प्रश्न यह है कि एक राजनीतिक दल, जो भारतवर्ष जैसे विशाल देश में सरकार बनाकर अपने नेता को प्रधानमंत्री बनाने की ख्वाहिश रखता है, क्या अपना राजनीतिक दर्शन, संघर्ष और राजनीतिक संरचना किसी और को आउटसोर्स करने का ख़तरा बार-बार लगातार उठा सकता है?

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