जानने वाले पीयूष बबेले को पत्रकार कहते हैं। खैर वे पत्रकार कभी न हुए। इंडिया टुडे, दैनिक भास्कर, न्यूज 18 जैसे संस्थानों में काम करते हुए उन्होंने पत्रकारिता का चोला ओढ़ कॉन्ग्रेस के प्रोपेगेंडा वाहक बनने की अपनी भूमिका के साथ पूरा न्याय किया। बाद में एक दिन खबर आई कि बबेले अब मध्य प्रदेश कॉन्ग्रेस की टीम का हिस्सा हो गए हैं। इसके बाद बबेले वे सारे कर्म खुलकर करने लगे जो कभी वे दबे-छिपे कर रहे थे। स्वयंभू बुद्धिजीवी बबेले ने कश्मीरी हिंदुओं को लेकर ट्विटर पर जो दस्त की है, वह उसका ही एक नमूना है।
बबेले को बुद्धि व्याधि ही नहीं है। वे शेरो-शायरी भी कर लेते हैं। उन्होंने एक किताब लिख रखी है। नाम है- नेहरू मिथक और सत्य। पत्रकार रहते वे अक्सर अपने कनिष्ठों को एक कहानी सुनाते थे। वो कुछ इस तरह होता था: इंडिया टुडे ने व्यापमं घोटाले पर स्टोरी की थी। मैग्जीन के कवर पर शिवराज (शिवराज सिंह, मुख्यमंत्री, मध्य प्रदेश) की तस्वीर लगी थी और उनके चेहरे पर खून के छींटे थे। शिवराज मुझसे बड़े नाराज हुए। पर मुझे कोई फर्क नहीं पड़ा। एक दिन शिवराज मिले तो कहा- बबेले जी आपने तो मुझे खूनी बना दिया। मैंने उनसे कहा- होई वही जो राम रचि राखा… शिवराज जी फिर नि:शब्द हो गए।
अब बबेले ने एक ट्विटर थ्रेड में बताया है कि यदि लालकृष्ण आडवाणी ने रथयात्रा नहीं निकाली होती तो कश्मीर में कश्मीरी पंडितों के खिलाफ माहौल नहीं बनता। उनका यह भी कहना है कि पलायन कॉन्ग्रेस राज में नहीं हुआ था। यह तब हुआ जब केंद्र में बीजेपी के समर्थन से विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार चल रही थी। साथ ही लिखा है, “भाजपा दंगों की पृष्ठभूमि तैयार करने और फिर उनसे होने वाले विनाश को भुनाने में हमेशा ही बहुत आगे रही है। आपदा पैदा करना और फिर आपदा में अवसर ढूंढना उनकी रणनीति का हिस्सा है। जिसे इन तथ्यों पर संदेह हो वह गूगल कर सकता है।”
कश्मीर फाइल्स जिसे देखनी हो देखे और जिसे ना देखनी हो ना देखे। लेकिन यह तथ्य ध्यान में रखें कि अगर भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने रथयात्रा न निकाली होती और पूरे भारत में मुसलमानों के खिलाफ माहौल नहीं बनाया होता तो कश्मीर में भी कश्मीरी पंडितों के खिलाफ माहौल नहीं बनता। 1/3
— piyush babele (@BabelePiyush) March 13, 2022
हमने बबेले की सलाह पर गौर करते हुए गूगल किया। गूगल बताता है कि कश्मीर से हिंदुओं के पलायन के करीब आठ महीने बाद आडवाणी की रथ यात्रा निकली थी। हम पर भरोसा न हो तो बबेले आज तक की स्टोरी का लिंक पढ़ सकते हैं, जो उसी समूह का हिस्सा है जिससे जुड़े इंडिया टुडे में कभी वह काम किया करते थे। यह बताता है कि 25 सितंबर 1990 को पंडित दीनदयाल उपाध्याय की जयंती पर लाल कृष्ण आडवाणी ने गुजरात के सोमनाथ से अयोध्या तक की अपनी रथ यात्रा शुरू की थी। जबकि तथ्य यह है कि जनवरी 1990 में कश्मीर से बड़े पैमाने पर हिंदुओं का पलायन हुआ था। अब बबेले के कैलेंडर में जनवरी से पहले सितंबर आता हो तो हमें कुछ न कहना!
यदि जनवरी बबेले के कैलेंडर में भी सितंबर से पहले आता हो तो उन्हें यह भी जान लेना चाहिए कि अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण बीजेपी के एजेंडे में पालमपुर अधिवेशन में शामिल हुआ था। यह अधिवेशन 9 से 11 जून 1989 को हुआ था। यह सत्य है कि जब पलायन हुआ तो केंद्र में वीपी सिंह की सरकार थी। उसे बीजेपी का समर्थन हासिल था। यह भी सत्य है कि जगमोहन उस समय जम्मू-कश्मीर के गवर्नर थे, जिन्हें कश्मीरी पंडित मसीहा और कॉन्ग्रेस गुनहगार बताती रही है।
लेकिन कश्मीर की कहानी परिवारों की कहानी है। एक राजपरिवार और तीन राजनीतिक (नेहरू-गॉंधी, अब्दुल्ला और सईद) परिवार। बॅंटवारे के बाद पाकिस्तानी कबायली सेना ने हमला किया तो कश्मीर के महाराजा हरि सिंह (उनके बेटे कर्ण सिंह कॉन्ग्रेस के वरिष्ठ नेता हैं) ने भारत के साथ विलय की संधि की। शेख अब्दुल्ला कश्मीर के प्रधानमंत्री बने। उन्हें नेहरू का समर्थन हासिल था। बाद में दोनों के रिश्तों में कड़वाहट आ गई। 1953 में अब्दुल्ला गिरफ्तार कर लिए गए।
बाद में नेहरू की बेटी इंदिरा गाँधी ने शेख अब्दुल्ला से सुलह कर ली। उन्हें 1975 में कश्मीर का मुख्यमंत्री बनाया। यह रिश्ता इंदिरा ने शेख अब्दुल्ला के बेटे फारूक के साथ भी शुरुआत में निभाया। फिर इंदिरा ने 1984 में फारूख को हटाकर गुल शाह को सीएम बनवाया। शाह ने जम्मू के न्यू सिविल सेक्रेटेरिएट एरिया के एक प्राचीन मन्दिर परिसर के भीतर मस्जिद बनाने की अनुमति दे दी ताकि मुस्लिम कर्मचारी नमाज पढ़ सकें। इस फैसले का जम्मू में विरोध हुआ और दंगे भड़क गए। घाटी में पंडितों पर अत्याचार का सिलसिला यहीं से शुरू हुआ।
इंदिरा की हत्या के बाद फारूक ने उनके बेटे राजीव से दोस्ती गाँठी और 1986 में दोबारा सीएम बने। इधर, पंडितों के खिलाफ अलगाववादियों की साजिश चरम पर पहुॅंच गई थी। कई कश्मीरी पंडितों को मारा गया, लेकिन फारूक अब्दुल्ला ने कुछ नहीं किया। ऐसे वक्त में वे मार्तण्ड सूर्य मन्दिर के भग्नावशेष पर सांस्कृतिक कार्यक्रम करा रहे थे। इसी बीच, दिसंबर 8, 1989 को वीपी सिंह सरकार के मंत्री मुफ़्ती मुहम्मद सईद की बेटी रुबैया सईद अगवा कर ली गईं। बदले में आतंकी छोड़े गए।
जगमोहन जब वीपी सिंह के जमाने में दूसरी बार गवर्नर (पहली बार उन्हें कश्मीर का राज्यपाल इंदिरा ने बनाया था) बनकर आए थे, उससे पहले ही 1987-88 से पंडितों ने घाटी छोड़ना शुरू कर दिया था। 14 सितंबर 1989 को भाजपा नेता पंडित टीका लाल टपलू की निर्मम हत्या कर दी गई थी। इसके कुछ समय बाद ही जज नीलकंठ गंजू की हत्या कर दी गई। गंजू ने जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के नेता मकबूल भट्ट को मौत की सजा सुनाई थी। जुलाई से नवंबर 1989 के बीच 70 अपराधी जेल से रिहा किए गए थे। घाटी में हमें पाकिस्तान चाहिए। पंडितों के बगैर, पर उनकी औरतों के साथ जैसे नारे लग रहे थे।
इस तरह से कुछ परिवारों की गलती से बदतर हुए हालात पर काबू पाने के लिए जगमोहन दूसरी बार श्रीनगर भेजे गए थे। आलोचक कहते हैं कि सुरक्षित रास्ता देकर जगमोहन ने पंडितों को घाटी से पलायन के लिए प्रेरित किया। उनकी हिफाजत नहीं की। यानी, पंडितों को घाटी में मरने के लिए अकेले नहीं छोड़ना जगमोहन की गलती थी। इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि जगमोहन ने कश्मीरी पंडितों को घाटी से सुरक्षित निकलने का मौका मुहैया कराया था, जिसके लिए पंडित उन्हें आज भी मसीहा मानते हैं।
जाहिर है कि कश्मीर में हिंदुओं के साथ जो कुछ हुआ उसका न तो आडवाणी की रथ यात्रा से लेना है, न जून 1989 से जब बीजेपी के एजेंडे में राम मंदिर आया और न वीपी सिंह की सरकार के समय इसके बीज बोए गए। जगमोहन की गलती यह थी कि उनके कारण पंडितों जिंदा बचकर घाटी से निकल आए। दूसरी गलती उन्होंने बाद में भाजपा में शामिल होकर की! इससे वे ‘सेक्युलर’ गिरोह के आसान निशाना बन गए! बबेले को भी खाद-पानी इसी गिरोह से मिलता है।
पर काश बबेले की शेरो-शायरी की तरह ही हल्की होती गिरिजा टिक्कू को बलात्कार के बाद आरी से चीर देना। काश की कश्मीरी पंडितों का पलायन बबेले के ट्वीट की तरह ही छिछला होता। काश की मस्जिदों की लाउडस्पीकर से निकलने वाले नारे… काश!!!