विश्व जनसंख्या दिवस पर उत्तर प्रदेश सरकार ने जनसंख्या नियंत्रण से संबंधित एक बिल का ड्राफ्ट पेश किया। राज्य विधि आयोग द्वारा जारी किए गए ड्राफ्ट के अनुसार प्रस्तावित कानून का नाम उत्तर प्रदेश जनसंख्या (नियंत्रण, स्थिरीकरण और कल्याण) विधेयक 2021 होगा। विधि आयोग की विज्ञप्ति के अनुसार विधेयक के ड्राफ्ट को सार्वजनिक कर उस पर जनता की ओर से प्रतिक्रिया और सुझाव आमंत्रित किया गया है। सरकार के अनुसार कानून लाने का उद्देश्य राज्य के सीमित संसाधनों का उचित इस्तेमाल कर प्रदेश के नागरिकों के लिए भोजन, पेयजल, शिक्षा, आवास और रोजगार की समुचित व्यवस्था करना है। इसके अलावा माँग है कि जनसंख्या वृद्धि में स्थिरता लाकर राज्य के संसाधनों का न्यायोचित उपयोग कर विकास की एक दीर्घकालीन योजना को आयाम दिया जा सके।
बिल के मुख्य बिंदु के अनुसार दो या एक संतान नीति पर विशेष बल दिया गया है। नीति का पालन करने वाले नागरिकों के लिए सरकार ने विशेष सरकारी लाभ देने का प्रस्ताव रखा है। दो संतान वाले दंपती, जो पहले से सरकारी कर्मचारी हैं, उनके लिए विशेष वेतन वृद्धि, मकान बनाने के लिए जमीन की खरीद पर सब्सिडी, कर्ज पर ब्याज की दर में विशेष छूट, सरकारी संसाधनों जैसे बिजली, पानी और नगरपालिका के बिलों पर विशेष छूट और यहाँ तक कि भविष्य निधि में सरकार की ओर से जमा किए जाने वाले अंश पर अधिक भुगतान भी शामिल हैं। इसके अलावा मैटरनिटी या पेटर्निटी लीव के दौरान 12 महीनों की वेतन के साथ छुट्टी जैसे प्रावधान भी हैं।
इसके साथ ही एक संतान नीति को अपनाने वाले सरकारी कर्मचारियों के बच्चों को बीस वर्ष की उम्र तक बीमा और मुफ्त स्वास्थ्य सेवा का लाभ, स्नातक तक की मुफ्त शिक्षा, राज्य के शिक्षण संस्थानों में प्रवेश में वरीयता, उच्च शिक्षा के लिए छात्रवृत्ति (scholarship) और सरकारी नौकरियों में वरीयता देने जैसे प्रस्ताव भी शामिल हैं। बिल में इन प्रावधानों को रखकर सरकारी कर्मचारियों को दो या एक संतान पॉलिसी अपनाने के लिए प्रेरित करने की योजना है। राज्य के जो नागरिक सरकारी कर्मचारी नहीं हैं पर यदि वे भी दो या एक संतान नीति को अपनाते हैं तो उनके लिए भी बिल में कई तरह के लाभ देने का प्रावधान रखा गया है।
ड्राफ्ट में सरकारी कर्मचारियों या सामान्य नागरिकों द्वारा दो संतान नीति न अपनाये जाने पर नुकसान के प्रावधान भी रखे गए हैं। ड्राफ्ट बिल में किए गए प्रावधान के अनुसार कानून पास होने के बाद दो संतान नीति न अपनाने वाले सरकारी कर्मचारियों को पदोन्नति नहीं मिलेगी। सामान्य नागरिकों के लिए इस नीति को न अपनाने पर सरकारी नौकरी में आवेदन पर रोक, सरकारी योजनाओं में मिलने वाली सब्सिडी का लाभ मिलने पर रोक, स्थानीय निकायों का चुनाव लड़ने पर रोक, सरकार की ओर से चलाए जा रहे लोककल्याण कार्यक्रमों का लाभ मिलने पर रोक और परिवार में राशन कार्ड की संख्या चार तक सीमित किए जाने का प्रावधान है।
इनके अलावा ड्राफ्ट में वे सारे प्रावधान हैं जो एक कानून के ड्राफ्ट में होते हैं।
जब से यह ड्राफ्ट सार्वजनिक हुआ है, इस पर चर्चा हो रही है। समाज के किसी छोर से इसे समर्थन मिल रहा है तो किसी से इसका विरोध हो रहा है। जिस विरोध की सबसे अधिक चर्चा हो रही है वह मुस्लिम समाज की ओर से है। दुर्भाग्यवश मुस्लिम समाज से आए विरोध के समर्थन में तर्क की कमी दिखती है। अधिकतर विरोध के पीछे दिए जा रहे तर्क मजहबी हैं। इसके अलावा भी विरोध का एक और आधार यह है कि चूँकि यह बिल भाजपा शासित राज्य या फिर योगी आदित्यनाथ जैसे मुख्यमंत्री की सरकार ने प्रस्तुत किया है, यह मुस्लिम विरोधी ही होगा।
ऐसा नहीं कि विरोध केवल मुस्लिम समुदाय की ओर से ही आया। विश्व हिन्दू परिषद (VHP) की ओर से भी बिल के मुख्य बिंदु यानि दो या एक संतान नीति में व्याप्त संभावित त्रुटि की ओर ध्यान आकर्षित किया गया और कहा गया कि सन्तानोपत्ति को लेकर भारत के अलग-अलग समुदायों की सोच में खासी असमानता है, क्योंकि सभी जनसंख्या नियंत्रण की बात को एक तरह से नहीं देखते। ऐसे में एक कानून सभी समुदायों पर लागू करना किसी भी सरकार के लिए बड़ी चुनौती होगी। परिषद की ओर से यह भी कहा गया कि कैसे चीन की एक संतान नीति को बाद में वापस लिया गया, क्योंकि वह नीति ही काम करने वाली जनसंख्या के कम होने का कारण बन गई थी।
उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा प्रस्तुत किए गए इस ड्राफ्ट के मुख्य बिंदु यानी दो संतान नीति जैसा ही प्रस्ताव पिछले दिनों असम सरकार की ओर से भी आया और वो भी इसी तरह से चर्चा का विषय बना। दोनों सरकारों की प्रस्तावों में मूल अंतर यह है कि असम सरकार की ओर से उत्तर प्रदेश सरकार की तरह जनसंख्या नियंत्रण को लेकर एक कानून का ड्राफ्ट नहीं आया था। असम सरकार द्वारा प्रस्तावित नीति का उद्देश्य दो से अधिक संतान वाले दंपतियों के लिए सरकारी योजनाओं का लाभ रोकने की बात कहकर उन्हें इस नीति को अपनाने के लिए प्रेरित करना था।
एशिया में जनसंख्या नियंत्रण को लेकर राजनीतिक या सामाजिक विमर्श कोई नई बात नहीं है। चीन द्वारा लाई गई एक संतान की नीति पुरानी है और अब तो उसके कुप्रभावों के कारण उसे चीन सरकार द्वारा वापस भी ले लिया गया है। भारत में भी 1990 के दशक तक जनसंख्या नियंत्रण एक बहुत बड़ा विषय था पर तब के राजनीतिक पटल पर अचानक उभरे दो विषयों ने इस समस्या को सरकारों की प्राथमिकता की सूची में कहीं पीछे ढकेल दिया।
पहला था भारतीय राजनीति में अल्पसंख्यक तुष्टिकरण और दूसरा कारण था 1991 में भारतीय अर्थव्यवस्था में उदारीकरण की नीति। जहाँ अल्पसंख्यक तुष्टिकरण ने जनसंख्या नियंत्रण को लेकर ‘सेक्युलर’ दलों की प्राथमिकता को उजागर किया, वहीं आर्थिक उदारीकरण के पश्चात केवल विदेशी कंपनियों को ही नहीं बल्कि हमारी सरकारों को भी भारतीय नागरिक में एक उपभोक्ता दिखाई देने लगा। मेरे विचार से ये दो कारण थे जिनकी वजह से पिछले तीस वर्षों में जनसंख्या नियंत्रण पर न तो कोई गंभीर विमर्श हुआ और न ही हमारी सरकारों को जनसंख्या बढ़ने की दर एक समस्या के रूप दिखाई दी।
किसी राज्य विधि आयोग द्वारा ही सही, अब जब ऐसे कानून का मसौदा तैयार किया गया है तो अगला कदम इस पर समुचित बहस ही होना चाहिए। ऐसे बिल या प्रस्तावों के गुण अवगुण पर बहस हो सकती है पर इसके पीछे सरकारों की मंशा पर सवाल उठाना उचित नहीं जान पड़ता और उस पर होने वाले विरोध की स्क्रूटिनी सामाजिक विमर्श का हिस्सा होनी चाहिए। ऐसे प्रस्तावों को केवल यह कहकर नहीं नकारा जा सकता कि इसके पीछे किसी सरकार या उसके मुख्यमंत्री की मंशा पर किसी को संदेह है।
यदि इतिहास देखें तो जनसंख्या नियंत्रण को लेकर हमारे सामने चीन का मॉडल है जिसे एक समय के बाद वहाँ की सरकार को वापस लेना पड़ा। देखा जाए तो चीन की नीति की जो परिणति हुई यह स्वाभाविक भी थी। शायद ही कोई इस बात से इनकार करेगा कि आधुनिक वैश्विक व्यवस्था में भी और एक औद्योगिक राष्ट्र या उद्योग प्रधान अर्थव्यवस्था के लिए भी, जिस तरह के मानव संसाधन की आवश्यकता होती है। जनसंख्या नियंत्रण के लिए अपनाई गई ऐसी नीति उसके लिए तार्किक नहीं हो सकती। आधुनिक वैश्विक अर्थव्यवस्था चलाने के लिए जिस तरह के और जितने तरह के मानव संसाधनों की आवश्यकता पड़ती है, एक संतान नीति उसके खिलाफ जाती है। आखिर आधुनिक मानव संसाधन के लिए प्रतिभाएँ एक बहुत बड़े पूल से ली जाती हैं और ऐसे में यदि पूल का साइज ही छोटा रहा तो उसमें से निकलने वाली प्रतिभाओं की अपनी सीमाएँ होंगीं।
इसके अलावा कालांतर में जो सबसे बड़ी समस्या खड़ी हो सकती है वह ये है कि केवल जनसंख्या नियंत्रण के चक्कर में हम धीरे-धीरे न केवल योग्यता की बलि दे देंगे, बल्कि औसत योग्यता वालों को ऐसे स्थानों पर बैठाते नजर आएँगे जहाँ बैठने लायक वे शायद न हों। भारत जैसे विशाल देश में आरक्षण की जरूरत, उसके स्वरुप और उसके गुण-दोष पर होनेवाली बहसें पहले से ही हमारे सामाजिक और राजनीतिक विमर्श का हिस्सा हैं। यदि जनसंख्या नियंत्रण के इस रस्ते को अपना लिया जाए तो इसका असर देश के भविष्य पर क्या होगा उस पर एक समग्र विमर्श की आवश्यकता है।
ग्रामीण भारत को लेकर पहले से यह कहा जाता रहा है कि वह भारत है और इंडिया का हिस्सा अभी तक नहीं बन पाया है। जनसंख्या नियंत्रण के इस तरीके का ग्रामीण भारत पर क्या प्रभाव पड़ेगा, इसपर भी एक बहस की आवश्यकता है। कारण यह है कि आज भी ग्रामीण भारत में ही दो संतान नीति का सबसे कम पालन होता है। ऐसे में आर्थिक रूप से पहले से ही हाशिए पर रहने वाले इस भारत का जनसंख्या नियंत्रण के ऐसे प्रस्ताव पर क्या प्रतिक्रिया होगी? जिस भारत के लिए सरकारी नौकरी या सरकारी कल्याण योजनाएँ आज भी जीवनयापन का एक बड़ा साधन हैं, उनके लिए दो संतान या एक संतान नीति का अर्थ हमें समझने की आवश्यकता है। इसपर विमर्श केवल सरकार की ही नहीं, नागरिकों की भी जिम्मेदारी है।
सब कुछ के बावजूद उत्तर प्रदेश सरकार को इस बात के लिए दिया जाना चाहिए कि उसने जनसंख्या नियंत्रण की बात को एक बार पुनः विमर्श की मुख्यधारा में खड़ा कर दिया है। सरकार द्वारा ऐसा किया जाना यह सन्देश देता है कि जनसंख्या आज भी हमारे लिए एक समस्या है, जिस पर न केवल विचार विमर्श होना चाहिए बल्कि इसका समाधान भी खोजा जाना चाहिए। बढ़ती जनसंख्या के आर्थिक और राजनीतिक आयाम आज भी वही हैं जो पहले थे, हमें यह समझने की आवश्यकता है कि इससे पैदा होनेवाले प्रश्न और खतरों को हम और पीछे नहीं फेंक सकते।