Friday, November 15, 2024
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सेना का राजनीतिकरण मोदी कर रहा है या विपक्ष? इस वैचारिक जंग में पुराने क़ायदों को तोड़ना ज़रूरी है

अगर विपक्ष सरकार को सेना का नाम लेकर नीचा दिखाते हुए, सेना को ही नीचा दिखाने लगे, तो सरकार को गाय की भीड़ को प्रणाम करने की ज़रूरत नहीं। वैचारिक लड़ाई ऐसे नहीं जीती जाती। वैचारिक लड़ाई में विरोधियों पर उसी की भाषा में, उससे ज़्यादा तेज ज़हर से धावा बोला जाता है।

एक कहानी कई बार कही जाती है सनातन धर्म के लोगों के बारे में। बताया जाता है कि इस्लामी लुटेरों और आतंकियों को यह बात समझ में आ गई थी कि भारत के हिन्दू गाय का बहुत सम्मान करते हैं। जबकि यहाँ के लोग लड़ने में सक्षम होते थे, फिर भी इस्लामी आक्रांताओं के इस जुगाड़ के कारण अपना सब कुछ खो देते थे। कहा जाता है कि लूटने से पहले ये लोग गायों की एक भीड़ छोड़ देते थे, और हिन्दू उन पर हथियार नहीं उठा पाता था, क्योंकि गौहत्या का पाप लगेगा।

हो सकता है कि यह कहानी सही हो। क्योंकि सदियाँ बीत गईं लेकिन इस तरह के विचारों को हम लोग आज तक अनजाने में ही आत्मसात किए चल रहे हैं। हिन्दू जनता सहिष्णुता का सबसे बड़ा उदाहरण होने के बावजूद असहिष्णुता के डिबेट में खींच लाई जाती है, और कुछ हिन्दू ही इस बात को सच भी मानने लगते हैं।

जिस धर्म के लोगों ने न तो किसी देश को लूटा, न किसी के मजहबी स्थलों को तोड़ा, न किसी देश-समाज के सामूहिक इतिहास को आग लगाई, जो भी आया, भले ही लुटेरा, हत्यारा और बलात्कारी हो, उसे यहाँ रहने दिया, उसके साथ रहे, उस धर्म की सहिष्णुता पर भी सवाल उठाए जाते हैं, पैनल डिस्कशन्स होते हैं, आम चर्चाएँ होती हैं, और हिन्दुओं को यह अहसास दिलाने के साथ-साथ विश्वास दिला दिया जाता है कि उनके पूर्वज और वो सबसे ज़्यादा असहिष्णु थे।

हिन्दू आतंक जैसे शब्द गढ़े जाते हैं, सामाजिक अपराधों को धार्मिक और राजनैतिक रंग दिया जाता है क्योंकि उसमें शामिल व्यक्ति हिन्दू था। जबकि उस अपराध को करने की पीछे की मंशा मानवीय गलती होती है, आपराधिक सोच होती है, न कि उसका हिन्दू होना। उदाहरण के लिए अगर कोई सीट के झगड़े में किसी को छुरा मार दे, तो ये एक सामाजिक अपराध है क्योंकि वहाँ झगड़े में धर्म या मज़हब शामिल नहीं। हाँ, अगर किसी हिन्दू को कोई कट्टरपंथी, या हिन्दू ही, उसके हिन्दू होने के कारण मार दे, तब वह एक धार्मिक अपराध हो जाएगा।

अब आइए आज के दौर में जबकि चुनाव प्रचार ज़ोरों पर है। सारी पार्टियाँ लगी पड़ी हैं, पीएम मोदी भी लगातार रैलियों और इंटरव्यू के माध्यम से अपनी बातें रख रहे हैं। उनकी बोली में शहज़ादा की जगह नामदार-कामदार ज़्यादा है, और पुलवामा से लेकर उरी तक का ज़िक्र है। बाकी पार्टियाँ, मुद्दों के अभाव में और अपनी हार को सामने देख कर मोदी पर निजी आक्षेप से होते हुए घटिया टिप्पणियाँ करने लगी हैं जिसमें मोदी को नामर्द बताने से लेकर उनकी पत्नी, उनकी माँ तक को घसीटा जा रहा है।

इस बात पर भी चर्चा होनी ज़रूरी है कि सोनिया गाँधी एक सांसद हैं, उन्होंने पार्टी चलाई है, यूपीए की चेयर पर्सन हैं, और कॉन्ग्रेस की अध्यक्षा थीं। प्रियंका गाँधी पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं, उनके पति पर कई मामले चल रहे हैं। राहुल गाँधी पब्लिक लाइफ में हैं, घोटालों वाली पार्टी के मुखिया हैं, और कॉन्ग्रेस के मुख्य चुनाव प्रचारक भी (और भाजपा के भी) इसलिए मोदी या भाजपा का उनकी पार्टी, सोनिया, प्रियंका, वाड्रा पर हमला बोलना ज़ायज है। लेकिन मोदी की माँ या पत्नी तो कहीं पोलिटिकल सीन में हैं ही नहीं, फिर उन्हें किस लिहाज से इसमें घसीटा जा रहा है?

फिर भी, अगर शब्दों के चुनावों की बात करें तो मर्यादा का भार मोदी पर ही क्यों? जबकि बाक़ियों ने तो भाजपा पर हर दिन दंगे भड़काने से लेकर साम्प्रदायिकता और झूठे घोटाले का आरोप लगाया है, और गिरते-गिरते पत्नी, माँ के साथ मर्दानगी तक पहुँच गए। क्या मोदी के बच्चे न होना, उनका अपनी पत्नी से अलग रहना, माताजी से कभी-कभार मिलने जाने से देश की राजनीति पर कोई प्रभाव डालता है? मुझे नहीं लगता कि ऐसा होता है। लेकिन सत्ता की लगाम पकड़े सोनिया, राहुल, प्रियंका या वाड्रा के ज़मीन घोटाले, FTIL से संबंध, राफेल की जगह यूरोफाइटर की लॉबीइंग, अगस्टावैस्टलेंड घोटाले आदि का देश की राजनीति से सीधा संबंध है।

दूसरी बात आजकल खूब चल रही है कि मोदी ने सेना का राजनीतिकरण कर दिया है। पुलवामा और उरी के नाम पर वोट माँग रहे हैं। अब याद कीजिए गाय और इस्लामी आक्रांताओं वाली कहानी। लोग तुरंत मर्यादा और गरिमा को ले आते हैं कि सेना को इससे दूर रखा जाना चाहिए। मेरा सवाल यह है कि सेना तो दूर ही थी, सबूत किसने माँगे थे? चाहे सर्जिकल स्ट्राइक हो, एयर स्ट्राइक हो या कुछ और, सबूत माँगने वाली लॉबी में कौन नेता रहते हैं!

और हाँ, सेना को दूर क्यों रखें? कमरे में बैठे हम और आप यह सवाल तो पूछ ही लेते हैं कि आखिर पुलवामा हमला हुआ ही कैसे? जबकि, हम यह बात आसानी से भूल जाते हैं कि ऐसे कई हमले नहीं हुए क्योंकि सेना और सुरक्षा एजेंसियों ने उसे होने से रोका। वो ख़बर नहीं बनती क्योंकि बम तो फटा ही नहीं। दूसरी बात, लोन वूल्फ अटैक, यानी जब हमलावर एक ही हो, तब उसे ट्रैक करने में फ़्रान्स, ब्रिटेन से लेकर ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका तक नाकाम रहे हैं, फिर भारत तो उनसे तकनीकी मामले में पीछे ही है।

चाहे ऑस्ट्रेलिया के रेस्तराँ में हुआ हमला हो, नीस-पेरिस-लंदन में कार, ट्रक या चाकू से लेकर मारने की आतंकी वारदातें हों, या ओरलैंडो के समलैंगिक बार में गोलियाँ बरसाता आतंकी, ये सब हमसे ज्यादा सक्षम देशों में हुआ है। ये हुआ है, ये होता है, और होता रहेगा क्योंकि आपको हर दिन हमला रोकना है, किसी को बस एक दिन सफल होना है। ऐसा नहीं है कि हमारे सैनिक सोए रहते हैं।

इसलिए, जब ऐसे हमले होते हैं तो स्वतः ज़िम्मेदारी सरकार की बनती है, उसके लिए मोदी या राजनाथ सिंह को यह कहना नहीं पड़ेगा कि सरकार ज़िम्मेदारी लेती है। ज़ाहिर सी बात है कि जिस सरकार के अंदर यह घटना हुई उसकी ज़िम्मेदारी है। लेकिन उसके बाद जो कार्रवाई होगी, उसकी ज़िम्मेदारी भी सरकार ही लेगी। इसलिए अगर छप्पन इंच का सीना नापा जाता है, तो फिर एयर स्ट्राइक का भी श्रेय सरकार को जाएगा।

इसलिए, रैलियों में यह बोला जाएगा, बार-बार बोला जाएगा क्योंकि हाँ, भारत के नागरिकों को पहली बार महसूस हो रहा है कि पाकिस्तान या बाहरी आतंकी मनमर्ज़ी से हमला कर के भाग नहीं सकते। यह सरकार उनकी सीमाओं को लाँघ कर निपटाएगी, बार-बार। इसलिए, जब जनता में क्षोभ हो कि हम इतने कमजोर क्यों है, तो जब सेना जवाब देगी तो प्रधानमंत्री की ड्यूटी है कि वह देश को आश्वस्त करे कि सक्षम नेतृत्व जनता की भावनाओं का सम्मान करती है, और बदला लिया जाएगा।

वैचारिक लड़ाई और भारतीयता पर दम्भ भरने का समय है यह

अगर विपक्ष सरकार को सेना का नाम लेकर नीचा दिखाते हुए, सेना को ही नीचा दिखाने लगे, तो सरकार को गाय की भीड़ को प्रणाम करने की ज़रूरत नहीं। वैचारिक लड़ाई ऐसे नहीं जीती जाती। वैचारिक लड़ाई में विरोधियों को उसी की भाषा में, उससे ज़्यादा तेज ज़हर से धावा बोला जाता है। यही कारण है कि मेरी सहमति हमेशा ऐसी हर सरकार को रहेगी जो सेना के योगदान को आम जनता तक लाता है। अगर संसद में जनता ने उन्हें चुनकर भेजा है, और सेना उनकी सहमति से अपना कार्य करती है, तो सरकार सेना का नाम लेकर रैलियों में वाहवाही भी लूटेगी।

हम इतिहास के उस मोड़ पर खड़े हैं जहाँ भारतीयता का अहसास पहले जैसा नहीं है। हम एक झुके हुए राष्ट्र नहीं है। हमारे नेता को कोरिया से लेकर यूएई और रूस तक शांति और सर्वोच्च नागरिक सम्मानों से अलंकृत कर रहा है। हमारे नेता को विश्व का हर देश जानता है, उसे अपने एक्सक्लूसिव क्लब में जगह दे रहा है। यह नया भारत है, और हर भारतीय को यह जानने का हक़ है कि आखिर नया भारत होता कैसा है।

इसीलिए, इस अहसास को हवा देकर ज़िंदा रखना ज़रूरी है। इस अहसास को पोषित करना ज़रूरी है। इसलिए, जब कोई पूछे कि मोदी सेना का राजनीतिकरण कर रहा है तो पूछिए कि क्यों न करे? सेना को स्वतंत्रता देने का कार्य अगर सरकार करती है, तो उसे भी क्रेडिट लेने का हक़ है। असली राजनीतिकरण तो वो लोग कर रहे हैं जो देश की इस पवित्र संस्था पर, अपने निजी और राजनैतिक हितों को साधने के लिए, सबूतों का बोझ डालते हैं।

मोदी ने तो जयकार लगाया है, घृणित कार्य तो राहुल, केजरीवाल, ममता, फ़ारूख, ओमर, नायडू, लालू, अखिलेश, मायावती, महबूबा से लेकर राजदीप, रवीश, सगारिका जैसे बकचोन्हर नेताओं और पत्रकारों ने लगाया है। ‘भारत माता की जय’ या ‘भारतीय सेना ज़िंदाबाद’ कहना सेना का राजनीतिकरण नहीं है, ‘उरी के सबूत लाओ’, ‘बालाकोट में तो पेड़ गिराए, सबूत दो’, ‘पुलवामा भाजपा ने ही करवाया’ आदि कहना उसका राजनीतिकरण है।

चूँकि, विपक्ष के लोग कह देते हैं कि राजनीतिकरण हुआ है, उससे वो हो नहीं जाता। इन चोरों की शक्लें देखा कीजिए जब ये ऐसी बेहूदगी करते हैं कि बालाकोट में तो कुछ हुआ ही नहीं। अगर आपको लगता है कि सेना के नाम पर राजनीति यह नहीं, बल्कि मोदी द्वारा सेना का अभिनंदन करना है, तो आप दिमाग का इलाज कराइए या फिर सही व्यक्ति से बात कीजिए।

इस देश के हर नागरिक को पचास बार यह सुनना चाहिए कि इस देश की पराक्रमी सेना ने मुंबई हमले के बाद भी एयर स्ट्राइक की अनुमति माँगी थी, जो मनमोहन ने नहीं दी। इसलिए, इस देश की जनता को पचास बार यह सुनना चाहिए कि तुमने जिसे सत्ता दी, उसमें यह हिम्मत थी कि पाकिस्तान को घुस कर मारे, बार-बार मारे, उसे अपाहिज बना दे, और वो उस हालत में पहुँच जाए कि उसे आकाश में अपने लड़ाकू विमानों की भी गर्जना सुनाई दे, तो उसकी पतलून यह सोचकर गीली हो जाए कि कहीं भारतीय सेना हमला तो नहीं बोल रही।

इसलिए, मर्यादा की बात रहने दीजिए। इस वैचारिक लड़ाई में, हर नियम तोड़े जाएँगे जो माओवंशियों और कॉन्ग्रेस के चोर नेताओं ने बनाए थे। चूँकि साठ साल से यही चल रहा था, तो ये सार्वभौमिक सत्य नहीं हो जाता। अब इतिहास और वर्तमान को नए सिरे से लिखा जाएगा, ताकि हमारा भविष्य बेहतर हो। हम इतिहास फिर से लिखेंगे क्योंकि चोरों और घूसखोरों ने इसे रेलवे स्टेशन पर बिकते उपन्यास की तरह लिखा है। ग़ुलामी की दास्ताँ पर तीन चैप्टर और गौरवगाथा एक पैराग्राफ़ में?

हर रैली में इस देश की जनता को अपने पराक्रमी सेना और सक्षम नेतृत्व की बातों को सुनने-जानने का हक़ है। पहले विपक्ष अपनी तरफ से व्यक्तिगत हमले बंद करे, मुद्दों पर लौटे, सेना पर प्रश्न उठाना बंद करे, तब स्वतः पब्लिक डिस्कोर्स साफ हो जाएगा। क्योंकि गंदगी फैलाने का काम इन्हीं लोगों ने किया है, मोदी तो सफ़ाई अभियान पर निकला आदमी है। सड़क पर कूड़ा फैलाओगे तो एक-दो बार तो झाड़ू खाना ही पड़ेगा।

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अजीत भारती
अजीत भारती
पूर्व सम्पादक (फ़रवरी 2021 तक), ऑपइंडिया हिन्दी

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