दिल्ली में इस साल के शुरू में हुए दंगों की चार्जशीट का काम अब लगभग पूरा हो चुका है। जाँच में जो बातें मोटे तौर पर सामने आई हैं, उनसे स्पष्ट है कि यह कोई आम सांप्रदायिक दंगा नहीं था। वास्तव में ये अपनी तरह का पहला दंगा था। जिसकी साजिश रचने वालों को किसी मजहब के खाँचे में नहीं डाला जा सकता। वास्तव में शहरी नक्सली (Urban Naxal) इन दंगों के मास्टरमाइंड थे।
आम तौर पर सांप्रदायिक दंगों के पीछे कोई स्थानीय कारण जिम्मेदार होता है। जो षड़यंत्र होते हैं वो भी बहुत तात्कालिक होते हैं। लेकिन यह संभवत: पहली बार हुआ कि कोई बड़ा स्थानीय कारण दिखाई नहीं देता है। अगर नागरिकता कानून को कारण मान भी लें तो जहाँ दंगे हो रहे थे और जो दंगाई पकड़े गए हैं उनमें से किसी की भी नागरिकता संकट में नहीं थी। नागरिकता कानून बहाना जरूर था, लेकिन निशाना कुछ और था।
दिल्ली दंगों के आरोप पत्रों में बार-बार उन तत्वों की झलक मिलती है जो इसकी भूमिका तैयार कर रहे थे। उन्हें विदेशी शक्तियों से पैसे भी मिल रहे थे। देसी-विदेशी मीडिया का एक जाना-पहचाना वर्ग उनके मनमुताबिक माहौल बना रहा था।
एक रणनीति के तहत दिल्ली के समुदाय विशेष बहुल इलाके के लोगों को इस्तेमाल किया गया और सही दिन चुनकर हिंसा कराई गई, जब अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप दिल्ली में थे। दंगों के दौरान मीडिया और सोशल मीडिया पर प्रयोग की गई शब्दावली भी शहरी नक्सलियों वाली थी। हमलावर होने के बावजूद खुद को पीड़ित की तरह दिखाने में नक्सली माहिर होते हैं।
शहरी नक्सलियों की खूबी होती है कि वो किसी जगह कुछ समय के लिए अराजकता का माहौल बना सकते हैं। लोगों का ध्यान अपनी तरफ़ खींच सकते हैं, लेकिन व्यापक जनसमर्थन न होने के कारण वो कोई बड़ा आंदोलन खड़ा नहीं कर पाते। हालाँकि, षड्यंत्र रचने में उनका कोई तोड़ नहीं होता। उन्हें हमेशा कुछ ऐसे लोगों की आवश्यकता होती है जिन्हें मोहरा बनाया जा सके।
दिल्ली के मामले में समुदाय विशेष का एक बड़ा वर्ग इसके लिए ख़ुशी-खुशी तैयार हो गया। बिना यह सोचे कि मुद्दा क्या है और क्या इससे उनके जीवन पर कोई फ़र्क़ पड़ने वाला है। इस तरह एक गठजोड़ बन गया जो नागरिकता क़ानून के नाम पर न सिर्फ़ मज़हबी नारे लगा रहा था बल्कि देश तोड़ने की बातें भी बड़े सहज रूप से बोली जा रही थीं।
अगर 14 दिसंबर को रामलीला मैदान में सोनिया गाँधी और अगले दिन शाहीन बाग में आम आदमी पार्टी के विधायक अमानतुल्ला खान के भाषणों को सुनें तो दोनों में कमाल की समानता पाएँगे। लगता है मानो दोनों स्क्रिप्ट किसी एक ही व्यक्ति ने लिखी हैं। सोनिया गाँधी ने रैली के मंच से अपील की कि लोग देश की संसद में पास नागरिकता क़ानून के विरोध में सड़कों पर उतरें।
एक दिन बाद उसी बात को अमानतुल्लाह खान ने अपने तरीक़े से कहा। उसने बस यह विस्तार दे दिया कि “अगर सड़कों पर नहीं उतरे तो मस्जिदों से अजान नहीं होगी। औरतों को बुर्का पहनने पर रोक लग जाएगी”। पिछले कुछ समय से अर्बन नक्सली देशभर में अपनी छोटी-छोटी सभाओं, सेमिनारों और मीडिया के माध्यम से यही माहौल बनाने में जुटे थे। 15 दिसंबर की हिंसा, फिर शाहीन बाग़ का चक्का जाम और उसके बाद ट्रंप की यात्रा पर दंगे इसी सोच से संचालित थे।
पुलिस के आरोप पत्रों और निष्पक्ष संस्थाओं की रिपोर्टों से यह समझ में आता है कि एक-एक घटना और हर किरदार पहले से तय था। डोनाल्ड ट्रंप की यात्रा उनके लिए अवसर था। जब ‘कुछ बड़ा’ करके दुनिया का ध्यान अपनी तरफ़ खींचा जा सकता था। योजना अर्बन नक्सलियों ने बनाई और उस पर अमल की जिम्मेदारी कट्टरपंथियों को दी गई।
ग्रुप ऑफ इंटलेक्चुअल्स एंड एकेडमीशियन (GIA) ने दंगों की इसी प्लानिंग पर एक विस्तृत रिपोर्ट दी है। जिसमें साफ कहा गया है कि वामपंथी और जिहादी गठजोड़ ने मिलकर इसे अंजाम दिया। रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली के बाद पूरे देश को इसी तर्ज पर दंगों में झुलसाने की तैयारी थी। यही कारण है कि रिपोर्ट में दंगों की व्यापक साजिश को समझने के लिए एनआईए से जाँच कराने की सिफारिश की गई है। यह एक ऐसा पहलू है जिसे पुलिस की सामान्य कानूनी प्रक्रिया से पकड़ पाना बहुत कठिन है।
फ़िलहाल वही नक्सली-जिहादी गठजोड़ अब दिल्ली दंगों पर चल रही क़ानूनी कार्रवाई को साम्प्रदायिक रंग देने में जुटा है। ताकि पुलिस की जाँच को संदिग्ध ठहरा दिया जाए। यह याद रखना होगा कि शहरी नक्सलियों की योजना दो मजहबों तक ही सीमित नहीं है। वो समाज की कई और दरारों को चौड़ा करने में दिन-रात जुटे हैं। अगड़ा-पिछड़ा, अमीर-गरीब, मालिक-मजदूर, काला-गोरा, स्त्री-पुरुष जैसी ढेरों दरारें उन्होंने खोज रखी हैं। दिल्ली का प्रयोग भले ही बहुत सफल नहीं रहा हो, लेकिन वो हार नहीं मानेंगे और अगला वार भी जल्द करेंगे।
नोट: इस लेख को लिखा है चन्द्रप्रकाश जी ने, जो पेशे से पत्रकार हैं।