Friday, May 3, 2024
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दिवाली, पटाखे, पर्यावरण की रक्षा का प्रश्न और एडमिनिस्ट्रेटिव एक्टिविज्म का मारा हिंदू

पिछले कई वर्षों से केवल दिवाली के मौके पर पर्यावरण की रक्षा का प्रश्न उठता है, पर हर वर्ष उसके बाद बैठ जाता है। पटाखे फोड़े जाएँ या नहीं, यह उतना महत्वपूर्ण प्रश्न नहीं है जितना महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि हर वर्ष दिवाली बीत जाने के पश्चात पर्यावरण की रक्षा की चिंता मर क्यों जाती है?

एक समय लेफ्ट-लिबरल इकोसिस्टम दिवाली में ‘अली’ और रमजान में ‘राम’ को खोजकर आम हिंदू के पास पहुँचा देता था और उसके हाथ में ये अविष्कार देकर अपनी प्रासंगिकता की रक्षा का नैरेटिव गढ़ लेता था। इस आविष्कार के हाथ में आते ही आम हिंदू इस नैरेटिव की निगरानी में लग जाता था और इस प्रक्रिया में जरा सी आँख लग जाने पर वह निज को ही धिक्कारता था। इस तरह सहिष्णु हिंदू सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर लेकर न केवल इकोसिस्टम को प्रासंगिक बनाए रखता था, बल्कि जाने-अनजाने उसके बाय प्रोडक्ट अमन की आशा को ऑक्सीजन भी प्रदान करता था।

यह तब की बात है जब जमाना अच्छा था और लेफ्ट-लिबरल इकोसिस्टम एक आम हिंदू से जिस बात की अपेक्षा रखता था, आम हिंदू वही करता था। अब जमाना खराब है क्योंकि कई दशकों तक चलने वाला भारतीय छद्म धर्मनिरपेक्षता का यह रोलिंग प्लान अब बंद हो गया है। इंटरनेट के शुरुआती दिनों में नॉलेज के ओपन सोर्स और बाद के दिनों में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म आने के बाद जैसे-जैसे छद्म धर्मनिरपेक्षता का घड़ा फूटता गया, इकोसिस्टम ने नैरेटिव की रक्षा का भार धीरे-धीरे असहिष्णु आम हिंदू के कँधे से उतार कर न्यायपालिका और प्रशासन के कँधों पर रख दिया है।

पिछले कई वर्षों से दिवाली का त्योहार वर्ष में कम से कम एक बार इकोसिस्टम, सरकार, न्यायपालिका, प्रशासन, पर्यावरणविद, पर्यावरण एक्टिविस्ट और आम हिंदू, लगभग सबको अपनी-अपनी असलियत दिखाने का मौका देता रहा है। दिवाली कैसे मनाई जाए, इस प्रश्न को लेकर इकोसिस्टम पिछले कई वर्षों से न्यायपालिका की शरण में जाता है। न्यायपालिका को भी लगता है कि दिवाली कैसे मनाई जाए, यह महत्वपूर्ण प्रश्न उठाने का सबसे बड़ा अधिकार उसके पास है जो खुद यह त्योहार नहीं मनाता। अपने पास आए इस इकोसिस्टमी योद्धा की इज़्ज़त करते हुए न्यायपालिका बंगाल की खाड़ी में आए तूफ़ान की गति से दिवाली मनाने का तरीका लिख डालता है। उसके बाद प्रशासन उस तरीके को पढ़कर उसे लागू करने निकल पड़ता है।

पहले जुडिशियल एक्टिविज्म से परेशान आम हिंदू अब एडमिनिस्ट्रेटिव एक्टिविज्म से भी परेशान है। पिछले कई वर्षों से प्रशासन दिवाली के मौके पर जो कुछ भी करता रहा है, वह उसे प्रशासनिक सतर्कता का नाम दे सकता है पर प्रशासन के आचरण को एडमिनिस्ट्रेटिव एक्टिविज्म कहना भी एक तरह का अंडरस्टेटमेंट होगा। किसी ने पटाखा फोड़ दिया तो उसे गिरफ्तार कर लिया। कोई पटाखे लिए जा रहा है तो उसे गिरफ्तार कर लिया।

न तो न्यायपालिका और न ही प्रशासन इस बात पर विचार करते कि यदि पर्यावरण को सबसे अधिक क्षति पटाखे से ही होती है तो पटाखे का उत्पादन ही बंद कर दें। उत्पादन और बिक्री न रोककर उसका इस्तेमाल रोकना कितना तार्किक है, यह प्रश्न सबके सामने खड़ा है।

पहले राष्ट्रीय महत्व के त्योहार जैसे पंद्रह अगस्त या छब्बीस जनवरी के आस-पास आतंकवादी पकड़े जाते और उनके पास से हथियार बरामद किए जाते थे। इन घटनाओं के बारे में प्रशासन प्रेस कॉन्फ्रेंस करता था तब जाकर लोगों को पता चलता था कि कितने लोग कहाँ गिरफ्तार किए गए, उनके पास कौन-कौन से हथियार बरामद हुए और उनक प्लान क्या था। इससे मिलती-जुलती घटनाएँ अब दिवाली के आस-पास या दिवाली की रात होने लगी है। अब पुलिस सोशल मीडिया पर रीयल टाइम प्रेस कॉन्फ्रेंस जैसा करती नज़र आती है जिसमें बताया जाता है कि फलाने थाने के फलाने अफसर ने फलाने जगह फलाने पुत्र फलाने को एक पॉलिथीन के साथ गिरफ्तार किया है जिसमें पटाखे थे।

दिल्ली पुलिस के उस ट्वीट का स्क्रीनशॉट जिसे बाद में डिलीट कर दिया गया

यह एडमिनिस्ट्रेटिव एक्टिविज्म नहीं तो और क्या है? इस देश में न्यायपालिका के न जाने कितने ऑर्डर अपने ऊपर धूल ओढ़े दशकों से पालन किए जाने का इंतजार कर रहे हैं। पर उनके पालन की तत्परता दिखाई नहीं देती। जब क्रिकेट मैच में पाकिस्तान की जीत पर पटाखे फोड़े गए थे तब भी गिरफ्तारियाँ हुई पर इस तरह रीयल टाइम सोशल मीडियाटिक प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं दिखाई दी। ऐसे में यदि आम हिंदू यह सोचे कि प्रशासन पटाखे फोड़ने के विरुद्ध नहीं है, बल्कि पटाखे फोड़कर दिवाली मनाने के विरुद्ध है तो इस सोच के लिए क्या उसकी आलोचना की जा सकती है?

पिछले कई वर्षों से केवल दिवाली के मौके पर पर्यावरण की रक्षा का प्रश्न उठता है, पर हर वर्ष उसके बाद बैठ जाता है। पटाखे फोड़े जाएँ या नहीं, यह उतना महत्वपूर्ण प्रश्न नहीं है जितना महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि हर वर्ष दिवाली बीत जाने के पश्चात पर्यावरण की रक्षा की चिंता मर क्यों जाती है? इसे सरकार, न्यायपालिका, प्रशासन और लोकतंत्र के लगभग हर स्तंभ की विफलता ही कहेंगे कि वर्ष दर वर्ष उठने वाले इस प्रश्न पर ये स्तंभ एक बहस तक नहीं करवा सके।

प्रश्न उठता है और फिर खो जाता है, शायद अगले वर्ष फिर से उठने के लिए। इस प्रक्रिया में समाज और प्रशासन के बीच जो अविश्वास पनप रहा है, न तो उसे महसूस करने की कोशिश की जा रही है और न ही उसके आकलन का प्रयास किया जा रहा है। ऐसे में सामाजिक ताने-बाने को होने वाली दीर्घकालीन क्षति की चिंता इन स्तंभों को कितनी है, इसका अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है।

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