ऑस्ट्रिया पर हुए इस्लामी हमले के बाद जर्मनी की चांसलर एंगेला मर्कल ने अपने बयान में कहा है कि इस्लामी आतंक हमारा साझा दुश्मन है। यहाँ ध्यातव्य यह है कि उन्होंने ‘रेडिकल इस्लामी टेरर’ नहीं कहा, बस इस्लामी टेरर कहा है।
वैसे ही, फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रों ने भी ‘रेडिकल’ शब्द का इस्तेमाल नहीं किया था। इसका सीधा अर्थ बस यह है कि अब लोगों तो आतंक का सही रूप, अपने सही रूप में ही दिख रहा है न कि ‘सेकुलर’ शब्दावली के साथ।
राष्ट्राध्यक्षों के संबोधन बहुत ही ध्यान से, एक-एक शब्द को सोच कर, लिखे जाते हैं। अगर वहाँ से किसी शब्द को हटाया गया है जो हमेशा प्रयोग में आता था, इसका मतलब है कि अब इन्होंने इस मामले को सही दिशा में देखना शुरु कर दिया है।
इस्लाम में रेडिकल कुछ नहीं है, इस्लाम स्वयं में ही रेडिकल है। रेडिकल से मतलब यह है कि वो हमें इस्लाम से प्रेम करने कहते हैं, लेकिन उनके लिए हम काफिर हैं और मारने योग्य। वो कहते हैं कि मुस्लिमों से प्रेम करो, लेकिन उनके लिए अल्लाह से इतर बाकी हर चीज गलत और घृणित है।
रेडिकल और होता क्या है? तुम मंदिर में नमाज पढ़ो, लेकिन हम मस्जिद में रामलीला की बात भी करें तो तुम्हें कष्ट होने लगेगा। तुम हर उस व्यक्ति की हत्या सही बताते हो जो जाने-अनजाने में एक खास व्यक्ति या किताब का अपमान कर देता है, फिर कहते हो कि हम इस्लाम से प्रेम करें!
ये तो बताओ कि जब तुम्हारी किताब में हत्या, लिंचिंग, गुलामों की खरीद-बिक्री, बलात्कार, लूट-पाट सब जायज है, फिर किसी भी विवेकशील व्यक्ति को तुम्हारे मजहब से प्रेम कैसे हो सकता है? आश्चर्य की बात तो यह है कि तुम्हें ही अपने मजहब से प्रेम कैसे हो सकता है अगर वो उपरिलिखित बातें सही मानता है!
जब बर्बरता तुम्हारी शिक्षा की आधारशिला है, हत्या तुम्हारे लिए एक सम्मानजनक कर्म है, बलात्कार पुण्य और काफिरों के धार्मिक स्थल तोड़ना जन्नत-उल-फिरदौस में कमरे रिजर्व करवाता है, फिर कोई सामान्य बुद्धि-विवेक वाला तुम्हें या तुम्हारे मजहब को स्नेहाशिक्त भाव से कैसे देख सकता है?
जानता हूँ कि तुम संख्याबल और मार-काट करने की क्षमता के दम पर पूरी दुनिया की हर सड़क पर बम, चाकू, गोली या गाड़ी चला कर हत्याकांड कर सकते हो। तुमने फ्रांस में वही किया, कनाडा और रूस में किया, विएना में किया। जहाँ तुम्हारी इच्छा है, वहाँ कर लोगे। लेकिन उससे यह तो नहीं बदल जाता कि तुम कौन हो।
तुम्हारी भीतरी तहों तक को सबने देखा है, कुछ सहज कारणों से उपेक्षा करते रहे, लेकिन अति हर उदारवादी को एक समय के बाद सत्य को बोलने पर विवश कर ही देती है क्योंकि किसी मजहबी आतंकी के लिए तुम्हारी बच्ची भी काफिर ही है। उसे इससे मतलब नहीं कि तुमने इस्लामी आतंक को कभी कट्टरपंथी इस्लामी आतंक या ‘आतंक का कोई मजहब नहीं होता’ कह कर छुपाया था, उसे मतलब बस इससे है कि तुम पहले भी काफिर थे, आज भी हो।
कुरान और गीता में ‘हिंसा’ और कन्ट्रोल एफ
इनकी पूरी जमात की एक प्रतिशत ग्रेजुएट औरत जनसंख्या के पढ़े लिखे अब हर दूसरी किताब में ‘हिंसा’ ढूँढ रहे हैं। बात यह है कि ‘कंट्रोल एफ’ कर के हिंसा ढूँढने में अक्सर ‘संदर्भ’ गायब हो जाते हैं। गधों को भी घास और घास की तस्वीर का फर्क पता होता है लेकिन कुछ लोग हैं जिन्हें लगता है कि उन्हीं की तरह बाकी जनसंख्या भी मूर्खता की विष्ठा का फेसपैक लगा कर सो रही है।
पहली बात तो यह है कि चार किताबों के नाम हेडलाइन में लिख देने मात्र से आपको उसका ज्ञान भी हो, ऐसा साबित नहीं हो जाता। दूसरी बात, जिनकी पूरी जमात (वैचारिक और मजहबी) यह मानने को तत्पर रहती हो कि हिन्दी या संस्कृत ‘भगवा आतंकियों द्वारा राष्ट्र के भगवाकरण का प्रयास है’, वो यह दावा करे कि उसने गीता पढ़ी है, या उसको समझा है, तो मैं नहीं मानता।
तीसरी बात, जब भाषाई ज्ञान न हो और मैक्समूलर जैसे ईसाई वैचारिक आतंकवादियों के अनुवाद और फिर उसके भी अनुवाद को आधार मान कर सनातन ग्रंथों के अर्थ निकाले जाएँ तो ‘वेद गड़ेरियों का गीत है’, यही समझ में आएगा। इसलिए, शीर्षक में तूरा, कुरान, बाइबिल और गीता का नाम लिखने भर तुम्हारा ज्ञान कम और मूर्खता अधिक झलकती है।
जहाँ तक गीता में हिंसा की बात है, तो वहाँ यह तो नहीं लिखा हुआ कि पूरी दुनिया में हिन्दुओं के अलावा जो भी है, उसको बिना बात के ही काट दो। जबकि कुरान में बिलकुल यही बात लिखी हुई है कि जो भी शिर्क करता है, काफिर है, मूर्तिपूजा करता है, वो वाजिब-उल-कत्ल है। कुरान तो कहता है कि काफिरों का घात लगा कर इंतज़ार करो और मार डालो।
जिस मजहब के लिए इंसान की इंसानियत, उसकी अच्छाई, नेकी, परोपकार, व्यक्तित्व, हरेक आयाम सिर्फ और सिर्फ इसी बात पर सही या गलत हो जाते हैं कि वो मुस्लिम है या काफिर, उस मजहब को तुम हिन्दुओं के साथ एक वाक्य में लिख भी कैसे सकते हो? ये तो हिन्दुओं की ईशनिंदा है कि किसी घृणित बात सिखाने वाले के साथ उसका नाम जोड़ा जा रहा है।
गीता में अधर्मी से युद्ध की बात है, न कि गैरहिन्दू से। युद्ध के भी नियम हैं, न कि घात लगा कर मारने की बात है। अगर किसी दूसरे ने अधर्म के पक्ष में लड़ते हुए नियमों को तोड़ कर किसी का वध किया, तो उसका वध भी नियम तोड़ कर करना युद्ध के लिए आवश्यक है।
गीता में धर्म और अधर्म है, वहाँ विधर्म नहीं है। यहाँ धर्म का मतलब सीधा है कि जो व्यक्ति और समाज के लिए जायज है। अहिंसा सनातनियों के मूल में है, लेकिन अधर्म का नाश करना भी समाज के लिए आवश्यक है। जबकि तुम जिस किताब को गीता के साथ प्रयोग कर रहे हो, उसमें ‘अधर्म’ तो तुम्हें स्वयं ही करने को कहा जा रहा है सिर्फ इसलिए कि सामने वाला किसी और की पूजा करता है।
तुम्हारे लिए तो हर विधर्मी स्वतः अधर्मी भी हो जाता है जो कि पूर्णतः असत्य और पक्षपाती मापदंड है। हिन्दुओं के दृष्टिकोण से विधर्मी तो डॉक्टर कलाम भी थे, लेकिन वो अधर्मी नहीं थे। विधर्मी अल्बर्ट आइन्सटाइन भी थे, लेकिन वो अधर्मी नहीं थे। लेकिन, तुम्हारे लिए तो डॉक्टर कलाम भी अपने मजहब का होने के बाद भी ‘अधर्मी’ हो गए क्योंकि वो तुम्हारे कठमुल्लों के हिसाब से नहीं चलते थे। और आइन्स्टाइन के मजहब से तो तुम्हारी जंग तुम्हारे मजहब के शुरुआत से ही है।
फिर ये गीता की हिंसा और कुरान की हिंसा एक जैसी कैसे हो जाएगी? तुम्हारे कॉन्सेप्ट बहुत सरल हैं कि जो भी गैरमुस्लिम है, मौका मिलते की काट दो। इस्लाम का विशुद्ध मूलमंत्र यही है है कि काफिरों को देखते ही मार दो क्योंकि वो बहुईश्वरवादी है, मूर्तिपूजक है। कोई मुझे इस्लाम की दूसरी परिभाषा समझा दे उसी किताब से निकाल कर जिसका अनुसरण ये करते हैं। नहीं दिखा पाएँगे क्योंकि इस्लामी चश्में में दुनिया मुस्लिम और काफिर के अलाव कुछ और देख ही नहीं सकती।
आज जब हर गली में मुस्लिम चाकू मारता फिर रहा है, जब तुम्हारे पुराने हिमायती स्वयं तुम्हारे आतंक से आहत हो कर, तुम्हारा नाम ले कर तुम्हें दुत्कार रहे हैं, ‘रेडिकल’ शब्द लगा कर ‘वो सच्चा मुसलमान नहीं हो सकता’ के दायरे से अलग कर रहे हैं, तब तुम्हें याद आ रही है कि बाइबिल, तूरा और गीता में क्या लिखा हुआ है।
गीता को समझने और ट्वायलेट पेपर के रोल से चार विच्छेद के बाद पेपर फाड़ कर निवृत्त होने में अंतर है। किसी किताब में हर एक पंक्ति सीधी है, दूसरे का एक श्लोक तो छोड़ो, एक शब्द समझनें में पूरा दिन निकल जाएगा। गीता तो छोड़ो, अभी दुर्गा पूजा बीती है, उसके महिषासुरमर्दिनी स्त्रोत के ‘अयि गिरिनंदिनि…’ से ‘शैलसुते’ तक के हर संदर्भ को समझने में जैनाब सिकंदर जैसों का सप्ताह बीत जाएगा। और ये दावा करती हैं कि इन्होंने गीता में हिंसा के संदर्भ को समझ लिया है। इन्हें जिस श्लोक का वर्णन किया है उसमें प्रयुक्त ‘धर्म’ का मतलब ‘रिलीजन’ लगता है, और ये समझा रही हैं कि किस किताब में क्या लिखा हुआ है।
खैर, सामने वाले की समझ के स्तर से ही बातें करनी चाहिए इसीलिए, मैं बहुत गहरे न उतर कर बातों को सामान्य ही रख रहा हूँ। सीधा सवाल यह है कि किस हिन्दू ने, ईसाई ने, यहूदी ने आधुनिक समाज में, पिछले पाँच दशकों में, अपने राम, ईसा या यहोवा के बारे में अपमानजनक टिप्पणी करने पर तीसरे देश में गर्दन काट दी? इस्लाम के अलावा किस धर्म या रिलीजन के व्यक्ति ने व्यवस्थित आतंकवाद का सहारा ले कर पूरी दुनिया के लगभग हर बड़े शहर को निशाना बनाया है?
किस हिन्दू, ईसाई या यहूदी ने संगठन बना कर पूरी दुनिया को कई बार ‘ख़िलाफ़त’ के नीचे लाने का सपना देखा है? किस हिन्दू, ईसाई या यहूदी राष्ट्र ने खुल्लमखुल्ला यह कहा है कि उसी के धर्म या रिलीजन का शासन पूरे विश्व पर एक दिन होना चाहिए? जबकि ईसाई और यहूदी तो तुम्हारे जैसे ही हैं, एक ही ईश्वर को पूजते हैं, फिर भी तुमने क्रूसेड तो किए ही, आज भी वही तुम्हारे जानी दुश्मन बने बैठे हैं।
इसके बाद भी, कौन सा देश या समूह आज भी आम मुस्लिम समाज को निशाना बना रहा है? लेकिन इस्लामी आतंक का निशाना किसी देश की सेना या संगठन की जगह आम नागरिक ही तो बनते हैं। संकटमोचन मंदिर में पूजा करने तो सामान्य हिन्दू जाता है, नोट्रेडेम बेसिलिका में तो सामान्य ईसाई प्रार्थना करने जाता है, स्टैडटेम्पल सेनेगॉग में तो सामान्य यहूदी जाता है आराधना करने, फिर उन परिसरों में बम धमाके, चाकूबाजी और गोली कौन चला रहा है?
कभी सुना है कि गीता पढ़ने वाले ने मस्जिद के सामने किसी का गला रेत दिया? कभी सुना है कि रामायण के श्लोक पढ़ते हुए किसी मस्जिद में किसी हिन्दू ने बम रख दिया हो? कभी सुना है कि सड़क पर ‘जय श्री राम’ कहते हुए हिन्दू किसी मुस्लिम को चाकू मार रहा है? नहीं सुना होगा क्योंकि ऐसा होता ही नहीं। ऐसी विकृति गीता पढ़ने वालों में अनुपस्थित है। अगर उपस्थित होती तो भारत इस्लामी आतंक को मुहम्मद बिन कासिम के दौर से ले कर बुरहान वनी तक नहीं झेलता रहता। वहीं, जब पहला कदम रखा था, काट कर फेंक देते।
इसलिए, गीता जब लिखती हो, तो वो G, i, t और a नहीं है, भले ही टाइप करने में क्षण भर लगे। इतना सहज नहीं है हिन्दुओं को नीचा दिखाना। हिन्दू ने गीता न भी पढ़ी हो, तब भी वो जानता है कि किसी की हत्या करना पाप है। एक साँप को रास्ते से हटा कर फेंकने वाले भीष्म को, अपने कई जन्मों के बाद जहाँ उन्होंने धर्माचरण के अलावा कुछ गलत किया ही नहीं, अंततः एक अधर्मी के साथ खड़े होने पर बाणों की शय्या पर उतने ही दिन, उसी पीड़ा को सहते हुए गुजारने पड़े थे, जिससे वो सर्प गुजरा था जो फेंकने के बाद काँटों पर गिर गया था।
हम बचपन से यही सीखते हैं। हम अपने बच्चों को चाकू दे कर बकरे को हलाल करना और अपनी पत्नियों को हलाला करना, दोनों ही नहीं सिखाते। बच्चे चींटी भी मारते हैं तो माँ-बाप कहते हैं कि जीव हत्या का पाप चढ़ेगा, और पत्नी को तो खैर अर्धांगिनी और वामांगी माना गया है, न कि ससुर या किसी मुल्ले के उपभोग की वस्तु। इसलिए, फर्जी के ज्ञान मत दिया करो।
इंटरनेट के किसी पेज पर या पायरेटेड पीडीएफ कॉपी पर ‘कंट्रोल एफ’ से ‘किल, वॉर या फाइट’ जैसे शब्द ‘फाइंड’ तो कर लोगी, लेकिन जनम बीत जाएगा, मतलब समझ में नहीं आएगा क्योंकि तुम जैसों की औकात नहीं है सनातन ग्रंथों के एक शब्द को भी समझना। क्योंकि तुम्हारा मस्तिष्क मजहबी घृणा से इतना सना हुआ है कि वहाँ विवेकपूर्ण बातों के लिए स्थान ही नहीं बचा है।
इसलिए, हे देवि! अपने दोनों अंगुष्ठों, तर्जनियों, मध्यमाओं, अनामिकाओं और कनिष्ठाओं के और तरह से उपयोग करो बजाय इसके कि कैसे हिन्दू और इस्लाम को एक दिखा दें। तुम्हारी एक किताब है, हमारी टीकाएँ इतनी हैं, कि जन्म-जन्मांतर बीत जाएँगे उनको खोजने, पढ़ने, समझने और तुलनात्मक अध्ययन में।