देश में LWT (वामपंथी आतंक) एक बार फिर अपने असली चेहरे के साथ सामने आया है। महाराष्ट्र के गढ़चिरौली में आज सुबह ने सशस्त्र बल कमांडो की C 60 टीम पर जबर्दस्त आतंकी हमला किया है। ऐसे समय में, जब देश में लोकसभा चुनाव प्रगति पर हैं, नक्सलियों का इस तरह पूर्वनिर्धारित तरीके से कायराना हमला करना कई संकेत देता है।
कुरखेड़ा तहसील के दादापुरा गाँव में नक्सलियों ने 36 वाहनों को आग लगा दी थी, उसके बाद क्विक रिस्पॉन्स टीम के कमांडो घटनास्थल के लिए रवाना हुए थे। ये कमांडो नक्सलियों का पीछा करते हुए जंबुखेड़ा गाँव की एक पुलिया पर पहुँचे ही थे कि नक्सलियों ने विस्फोट के जरिए जवानों पर हमला कर दिया। इस हमले में 15 जवान वीरगति को प्राप्त हुए हैं।
छत्तीसगढ़ और तेलंगाना की सीमा से सटे महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले में नक्सली आतंक का इतिहास काफी पुराना है। छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और तेलंगाना के त्रिकोण पर नक्सलियों की सक्रियता सबसे अधिक है। यह इलाका जंगल वाला होने के कारण आतंकियों को छुपने और पड़ोसी राज्य में दुबक जाने में काफी मदद करता है।
नक्सलियों की बौखलाहट का नतीजा है इस तरह का गोरिल्ला युद्ध
आतकंवाद और LWT के खिलाफ जिस तत्परता से मोदी सरकार के दौरान अभियान चलाए गए हैं, इसने हर तरह से नक्सलियों के आत्मविश्वास को तोड़ने का काम किया है। वहीं, वर्षों तक सत्ता पर राज करने वाली कॉन्ग्रेस पार्टी आज 15 जवानों की मृत्यु को भी मोदी सरकार की विफलता बताने से बाज नहीं आ रही है। कॉन्ग्रेस के लिए जितना राजनीतिक लाभ लेने की घटना पुलवामा आतंकी हमला थी, ये राजनीतिक लाभ लेने का अवसर मात्र है। कॉन्ग्रेस को शायद ही कभी इन बातों से फ़र्क़ पड़ा हो कि किस आतंकी हमले में कितने जवानों ने अपनी जान गँवाई है। कॉन्ग्रेस आज भाजपा सरकार के दौरान हुए आतंकी हमलो के आँकड़े दिखा रही है, लेकिन लगभग हर दूसरा तथ्य कॉन्ग्रेस सरकार के विपरीत ही जाता है।
कॉन्ग्रेस पार्टी प्रवक्ता के अनुसार पिछले 5 सालों में 390 जवान नक्सली हमलों में वीरगति को प्राप्त हुए। अब अगर इसी प्रकार की तुलना की जाए, तो हम देखते हैं कि कॉन्ग्रेस के दौरान मात्र 1 वर्ष में ही 317 जवान नक्सली हमलों में वीरगति को प्राप्त गए थे। इसी क्रम में 2009 से 2013 के बीच इसी प्रकार के हमलों में 973 जवान बलिदान हुए थे। ये सभी आँकड़े कॉन्ग्रेस के कार्यकाल के ही हैं।
लेकिन कॉन्ग्रेस का प्रकरण अब दूसरा ही हो चुका है। यह बुजुर्ग राजनीतिक दल अब इतना सठिया चुका है कि किसी दफ्तर में आग लगने की खबर तक को मोदी द्वारा फ़ाइल जलाने के लिए लगाईं गई आग नजर आती है। शायद यह बात कॉन्ग्रेस का ‘अनुभव’ कहता हो कि कब, किस दफ्तर में और किन कारणों से आग लगवाई जा सकती है।
जल-जंगल-जमीन नहीं, बल्कि सिर्फ दहशत पैदा करना है उद्देश्य
देखा जाए तो नक्सल प्रभावित इलाकों में नक्सली आतंकियों की गतिविधि कश्मीर घाटी में जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा से ज्यादा भिन्न नहीं है। वर्तमान सरकार से पहले की सरकारें कश्मीर घाटी के मुकाबले, नक्सली आतंकवाद के साथ हमेशा नरमी से ही पेश आती थीं।
गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने नक्सली हमलों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई का अभियान जारी रखा और इनसे लड़ने में मजबूत इच्छाशक्ति का परिचय भी दिया है। कहीं ना कहीं नक्सलियों की चुनावों के दौरान आतंकी हमले इसी बात की बौखलाहट का नतीजा हैं।
नक्सली मामलों के ‘विचारकों’ से मिलता है नक्सलियों को हौंसला
लिबरल प्रतीत होने की जद्दोजहद में लगे तमाम ‘नव-क्रांतिकारी’ और नक्सलवाद के समर्थकों का एक बड़ा वर्ग नक्सलियों के लिए भूमिका बनाने में मशगूल रहता है। ये नक्सलियों का प्रबुद्ध ‘थिंक टैंक’ पहले एक आभासी जमीन तैयार करता है, जो हर संभव प्रयास करता है कि लोगों के बीच ऐसी धारणा विकसित कर सके कि देशभर में नक्सलवाद की हर हाल में आवश्यकता है। इसी क्रम में शब्द रचना की जाने लगती है, ‘वॉर अगेन्स्ट वॉर’ जैसे जुमलों से लोगों को गौरवान्वित महसूस करवाया जाने लगता है। समाज में इस बात का बीजारोपण किया जाने लगता है कि युद्ध के हालात हैं और यह ‘करो या मरो’ वाली स्थिति है।
कुछ दिन पहले ही चुनावों के दौरान इसी प्रकार के हमले में छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में भाजपा के एक विधायक भीमा मांडवी के काफिले पर हमला किया था, जिसमें भाजपा विधायक समेत 4 अन्य लोगों को अपनी जान गँवानी पड़ी थी।
माओवादी कहीं ना कहीं अब ये बात जान और समझ गए हैं कि ‘जल-जंगल-जमीन’ का उनका नारा अब प्रासंगिक नहीं रहा है। इनके पोषक ये बात अच्छे से जानते है कि यदि अब यह 3 मुद्दे ही प्रासंगिक नहीं रहे, तो अब माओवंशी कामपंथी किस तरह से अपना अभियान आगे बढ़ाएँ? लोगों के बीच डर पैदा कर के ही ये आतंकवादी संगठन अब प्रासंगिक बने रहना चाहते हैं।
पूर्वी महाराष्ट्र का गढ़चिरौली जिला नक्सलवाद से सबसे ज्यादा प्रभावित क्षेत्रों में से एक है। नक्सलवाद की यह समस्या कितनी गंभीर है, इसे हम पुलिस द्वारा जारी किए गए आँकड़ों से भी समझ सकते हैं। पुलिस विभाग के अनुसार, जिले में पिछले 25 साल में सत्ता विरोधी संगठनों की ओर से कुल 417 वाहनों को आग के हवाले कर दिया गया, जिनकी कीमत 15 करोड़ रुपये से ज्यादा थी।
नक्सली पिछले साल ही 22 अप्रैल के दिन सुरक्षा बलों द्वारा मारे गए अपने 40 साथियों की मौत की पहली बरसी मनाने के लिए एक सप्ताह से चल रहे विरोध प्रदर्शन के अंतिम चरण में थे। गढ़चिरौली में ही जिन वाहनों को नक्सलियों ने अपना निशाना बनाया, उनमें से ज्यादातर अमर इंफास्ट्रक्चर लिमिटेड के थे, जो दादापुर गाँव के पास NH-136 के पुरादा-येरकाड सेक्टर के लिए निर्माण कार्यों में लगे थे। क्या नक्सलियों के कारनामों से यह समझ पाना मुश्किल है कि उनका मुद्दा विकास विरोधी है?
वर्तमान में नक्सली ये बात अच्छे से समझ चुके हैं कि उनकी विचारधारा ICU में पड़ी कराह रही है। जिन लोगों को वो अधिकारों के नाम पर बरगलाते आ रहे हैं, वो लोग अब ज्यादा समझदार हो चुके है और उनका ब्रेनवॉश करना पहले जितना आसान नहीं रह गया है। जनता जानती है कि माओ की इन नाजायज़ नक्सली औलादों की यह लड़ाई सिर्फ सत्ता और शासन की भूख तक सीमित है, ना कि वंचितों के अधिकारों की।
इन नक्सली हमलों के पीछे वजह स्पष्ट है, और वो है लोकसभा चुनाव। यह भी जानना आवश्यक है कि नक्सलियों ने चुनाव का बहिष्कार किया था और कहा था कि जो भी मतदान में शामिल होगा, उसे गंभीर परिणाम भुगतने होंगे।
जिस प्रकार का कड़ा रुख वर्तमान सरकार ने नक्सलवाद के खिलाफ उठाया है, उसे देखते हुए नक्सलियों के पोषक भी भली-भाँति समझते हैं कि इस सरकार के दोबारा सत्ता में आने पर उनके हथियार, बारूद और यहाँ तक कि ‘संस्थागत’ तरीके से मिलने वाली आर्थिक मदद, सभी ठप्प होने तय हैं। उम्मीद है कि नक्सलवाद जैसे अंदरूनी बीमारी से इस देश को जल्द ही छुटकारा मिलेगा लेकिन ऐसा कर पाने का मात्र एक ही जरिया है और वो मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति ही है।