आजकल वामपंथी वायरस फिर से सक्रिय हो उठें हैं। कुछ दिनों तक वो सुसुप्तावस्था में थे क्योंकि कुछ ढंग का करने के लिए था नहीं। अब कमलेश तिवारी हत्याकांड के बाद इनके टेनटेक्ल्स हिलने लगे हैं। लगातार घटती लोकप्रियता और हर पोस्ट पर आम लोगों द्वारा उठते सवालों का जवाब न दे पा रहे वामपंथी बीच-बीच में गायब हो जाते हैं, या फैज-फराज की शायरी करने लगते हैं।
कमलेश तिवारी की हत्या पर पूरा वामपंथी गिरोह शांत था। किसी ने एक लेख नहीं लिखा कि हत्यारों ने मजहबी उन्माद में जो किया है वो गलत है। नहीं कहा, क्योंकि वामपंथी और मजहबी जिहाद का पूरा हिंसक इतिहास बिलकुल एक जैसा रहा है। वामपंथियों ने एक से बढ़ कर एक तानाशाह पैदा किए, जिन्हें आप तानाशाह नहीं कह सकते, लेकिन काम पूरा तानाशाहों वाला ही रहा है।
लाखों की व्यवस्थित हत्याओं का खून वामपंथ के सर पर है। चूँकि इनके पास लिखने वाले लोग थे तो उसे ‘सर्वहारा की क्रांति’ जैसा विचित्र और निहायत ही वाहियात और झूठा नाम दे कर अपनी हिंसा को जायज ठहराने का उपक्रम किया। उसी तरह जिहादियों को देखिए, लगातार हत्याएँ कर रहे हैं और हमें अच्छा मुसलमान और बुरा मुसलमान वाला झुनझुना थमा दिया जाता है!
वामपंथी लम्पट जो जेएनयू के गंगा ढाबा के पास के पत्थरों पर बैठे हुए, भीख माँग कर गाँजा फूँकने को ही वामपंथी विचार मान लेते हैं, उनसे और उम्मीद भी क्या की जाए। वो तो यही समझेंगे कि माओ और लेनिन जैसे हत्यारे अपनी नहीं, सर्वाहारा की लड़ाई लड़ रहे थे। इसीलिए माओ जैसे क्रूर हत्यारे और लेनिन जैसे हिंसक कातिल इनके लिए पूज्य हैं। उन्होंने कभी ये समझने की कोशिश ही नहीं की कि गरीबी अगर एक तरह की हिंसा है, तो उसका जवाब किसी दूसरे गरीब जवान को गढचिरौली में मार देना नहीं है।
खैर, भारत में हर जिहादी वामपंथी हो गया है, और वामपंथियों में तो जिहादियों की रक्तधारा तो है ही। इसलिए दोनों सुर में सुर मिला कर चलते हैं। एक जिहादी, जो स्वयं को वामपंथी कहता है, वो अचानक से अपने कपड़े उतार कर मुसलमान हो जाता है क्योंकि उसके मजहब को कुछ लोग कोस रहे हैं। तब वामपंथी भी पूँछ उठा कर, स्वयं को एक्सपोज करते हुए, ‘हुआँ-हुआँ’ करने लगता है। तब वामपंथी लम्पट भूल जाता है कि उसके विचार में तो धर्म, मजहब या रिलीजन की तो कोई जगह है ही नहीं।
कूल दिखने के चक्कर में रे, जे और गे हो जाने वाले नए वामपंथी, जिनके अभी वामपंथी बाल उगने शुरु ही हुए हैं, वो बेचारे कन्फ्यूज्ड हैं कि इस अल्पविकसित दिमाग का उपयोग कहाँ करें। नाम तो कूल कर लिया, लेकिन काम तो छिछोरों वाला ही रहेगा जो ये जेएनयू छात्र चुनावों में विरोधी प्रत्याशियों पर अपनी वामपंथन को ‘मोलेस्टेशन’ का चार्ज लगाने के लिए आगे कर के किया करते थे।
ये लोग रवीश ‘मेले बाबू ने नौतली थिलीज की’ कुमार को अपना आराध्य मानते हैं क्योंकि उसके जैसा धूर्त अब कोई है नहीं। इसलिए रवीश कमलेश पर, जिहादी मुसलमानों पर, इस मजहबी उन्माद पर, कुछ नहीं बोलेगा, तो ये लोमड़ी समूह भी पूँछ को दोनों पैरों के बीच में दबाए ‘कूँ’ और ‘कीं-कीं-कीं’ करता रहेगा। तब न ये याद आएगा कि साम्प्रदायिक सौहार्द को किसने बिगाड़ा, न यह याद आएगा कि ब्लासफेमी जैसे कानून किसी भी लोकतंत्र में लोकतांत्रिक मूल्यों का मजाक बनाते हैं।
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नया नैरेटिव: प्रेम की बात कीजिए, आँख मत फोड़िए
उसके बाद जो इन्होंने किया है वो बहुत ज्यादा घृणित कार्य है। आजकल ये नववामपंथी कमलेश तिवारी की हत्या का बोझ भी हिन्दुओं को ही सर पर डालते दिख रहे हैं। हत्या के बाद के दिनों में अपनी चुप्पी और इस हत्या को मौन सहमति देने के बाद, अब ये कहते पाए जा रहे हैं कि मुसलमानों के प्रति हिन्दू समाज जो घृणा दिख रहा है उसका जवाब मुसलमानों को प्रेम से देना चाहिए।
ये लाइन बिलकुल सही है कि मुसलमानों को प्रेम से जवाब देना चाहिए, लेकिन समस्या यही है कि प्रेम की परिभाषा आज कल हर व्यक्ति और मजहब के लिए अलग हो गई है। आदमी से प्रेम करना एक खास मजहब के लोगों को शायद आता ही नहीं। क्योंकि उनके लिए किसी अनजान तत्व से प्रेम करना इतना ज़्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है कि उसके नाम पर जान लेने में वो नहीं हिचकते।
हिन्दू घृणा फैला रहा है? कमलेश तिवारी के गर्दन पर जो पंद्रह बार चाकू चला, जो बारह सेंटीमीटर लम्बा और तीन सेंटीमीटर गहरा घाव हलाल स्टाइल में रेतने से बना, जो सात बार छाती पर चाकू चला, जो चेहरे में गोली मारी गई, उससे कौन सा प्रेम फैल रहा है? हत्यारे जो ये कहते फिर रहें हैं कि ये हत्या शरीयत के अनुसार सही है और वाजिब-उल-कत्ल है, इससे किस तरह के प्रेम की उत्पत्ति होती है?
ये गिरहकट वामपंथी और जिहादियों के हिमायती बता सकेंगे कि हत्या से कौन-प्रेम उत्पन्न होता है? मुझे रॉबर्ट ब्राउनिंग की एक कविता याद आती है कि पोरफिरिया के प्रेमी ने उसे, उसके ही सुनहरे बालों से गला घोंट कर, मार दिया था क्योंकि उसे लगा कि इससे ज़्यादा प्रेम पोरफिरिया उसे कभी नहीं कर पाएगी और एक समय आएगा जब वो समाज के दबाव में आ जाएगी। अतः उस क्षण को सहेजने के लिए उसने उसकी हत्या कर दी।
मुझे नहीं लगता कि अशफाक और मोइनुद्दीन, या हजारों जिहादी, और आतंकियों के करोड़ों हिमायती जब किसी की जान लेते होंगे तो प्रेम को सहेजने के लिए लेते होंगे। कमलेश की हत्या या बाजारों में काफिरों के बीच फट जाना, किस प्रेम का प्रदर्शन है? ये प्रेम मानव के लिए तो नहीं है। ये घृणा है, मुसलमानों की तरफ से हिन्दुओं को लिए विशुद्ध घृणा कि यही उनका विधान है और वो कोर्ट, प्रशासन और सत्ता से परे हैं।
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नैरेटिव नंबर दो: यूपी पुलिस इतनी चुस्त कैसे है?
हत्या पर तो चुप रहे, उसके तुरंत बाद इन्होंने जो प्रतिक्रियाएँ देनी शुरु की, वो काबिलेतारीफ थी। सबसे पहला सवाल पूछा गया कि हिन्दू जो मुसलमानों का नाम ले रहे हैं, वो कैसे जानते हैं कि मुसलमानों ने हत्या की? इन्हें लगा कि पुलिस नहीं पकड़ पाएगी और हिन्दुओं को ये लोग फिर से पागल बना लेंगे ये कह कर हर बात में हिन्दू-मुसलमान नहीं होना चाहिए।
फिर धीरे-धीरे जब पत्ते खुलने लगे, मुसलमानों का हाथ, पैर, सर और दिमाग सब इसमें दिखने लगा, तो इन्होंने कहा कि कमलेश की माताजी तो कह रही हैं कि फलाने नेता ने मरवाया है। अचानक से माताजी की बात सबसे ज्यादा ज़रूरी बात हो गई क्योंकि वामपंथियों और जिहादियों के लाइन से ये मिल रहा था। गुजरात तक इसके तार मिले और एटीएस ने वहाँ लोगों को पकड़ा तो बेहूदे सवाल उठे कि इतनी जल्दी पुलिस गुजरात कैसे पहुँच गई? कातिल गुजरात क्या हवाई जहाज से गया?
मतलब, पूरी कोशिश यह बताने की कि पुलिस ही अपना काम नहीं कर रही, कहानी गढ़ रही है। फिर बताया गया कि इसमें कई लोग शामिल थे, और दो महीने से योजना बनाई जा रही थी, तब इन्होंने फिर से गोलपोस्ट शिफ्ट कर लिया। अब जिहादियों और वामपंथियों का नैरेटिव यह बना कि ट्विटर पर जो ट्रेंड हो रहा है वो भड़काने की कोशिश है।
आप यह देखिए कि कमलेश की हत्या, उसकी हलाल गर्दन, छाती के घाव सब गौण हो जाते हैं, और ये चम्पक मंडली अब इस पर चर्चा में लग जाती है कि ट्विटर पर ट्रेंड क्या हो रहा है। यही दोगले वामपंथी अभी तक गौरी लंकेश, डभोलकर, पनसरे और कलबुर्गी को भूल नहीं पा रहे और नए-नए शब्द गढ़ कर वृहद समाज पर थोप रहे हैं कि समाज एंटी-इंटेलेक्चुअलिज्म की राह पर चल रहा है। सत्य यह है कि गौरी लंकेश एक टुटपुँजिया पत्रकार थी, उसे मैं इंटेलेक्चुअल नहीं मानता। चूँकि वामपंथी किसी को मरने के बाद महान बताने लगते हैं, तो वो वैसे नहीं हो जाते।
दक्षिणपंथ के खिलाफ ज़हर फेंकने वाले लोग, एक पूरी विचारधारा और धर्म पर लगातार गलत मंशा से विरोध करने वाले लोगों को मैं इंटेलेक्चुअल नहीं मानता। इंटेलेक्चुअल या बुद्धिजीवी समाज की बेहतरी को लिए, समाज में रह कर, समाधान लाने की कोशिश करता है, वो अपने शब्दों से किसी को नीचा नहीं दिखाता। ये जितने इंटेलेक्चुअल वामपंथी गिनाते रहते हैं, इन सबने हिन्दुओं के खिलाफ विषवमन किया था। लेकिन फिर भी, उनकी हत्या जायज नहीं है। कोई घटिया लेख लिख रहा है तो बेहतर लेख लिख कर जवाब देना चाहिए, न कि उसकी जान ले ली जाए।
खैर, वामपंथी और जिहादी, दोनों ही हिंसक प्रवृत्ति के लोग बताने लगे कि किसके प्रोफेट ने क्या कहा था और कैसे आज हिन्दू घृणा फैला रहे हैं। ये तो वही बात हो गई कि कातिल के बाप ने कहा कि उसका बेटा तो पाँच बार नमाज पढ़ता है और दाढ़ी भी रखता है, इसलिए वो तो निर्दोष है। अब वामपंथी ये कहने में चूक गए कि मुसलमान हत्यारे के बाप की बात को सही माना जाए और कमलेश की माँ के पहले बयान को, और केस को खत्म मान लिया जाए। क्योंकि इन्होंने ऐसी ज्ञान की बातें अंकित सक्सेना की हत्या के बाद भी की थी।
उसके बाद इन्होंने यूपी पुलिस पर सवाल उठाने शुरु किए कि ब्राह्मण मरा है इसलिए पुलिस सक्रिय है, हजारों दलितों पर तो कुछ नहीं हो रहा। ये एक लाइन में किसी को भी डिसमिस कर देना वामपंथी अपनी कुमाता जेएनयू के गर्भ से सीख कर आते हैं। इन्होंने ये नहीं बताया कि कितने दलित मरे, और उस पर पुलिस कहाँ चुप बैठी है। ये मानते हैं कि इन्होंने कह दिया, इसे मान लिया जाए।
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वामपंथी अब समीकरण से बाहर हो चुके हैं
बात बस इतनी है कि लोग अब इस नैरेटिव को न तो सामाजिक तौर पर स्वीकार रहे हैं, न राजनैतिक तौर पर कि एक खास समुदाय के लोग प्रेम और शांति की बात करते हैं। जो समुदाय ऐसी हत्याओं पर मौन रहता है उसे शांतिप्रिय मानना आले दर्जे की मूर्खता है। इसलिए, राजनैतिक तौर पर तुष्टीकरण से उबा हुआ आदमी, उन सारे लोगों को नकार रहा है जो साम्प्रदायिक सौहार्द के नाम पर ठग रहे हैं।
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जगने की कोशिश करते हिन्दू नाक़ाबिलेबर्दाश्त हैं
लोग अभी जगे तो नहीं हैं लेकिन उनके घरों में अलार्म बजना शुरू हो गया है। वो अब घड़ी को खोज रहे हैं कि आवाज कहाँ से आ रही है। दशकों से जो घड़ी स्नूज़ कर दी जाती थी, अब वो बज कर कहीं छुप रही है। अब हिन्दू उस घड़ी को खोजने के लिए जग रहा है ताकि वो यह देख सके कि इस अंधेरे के लिए जिम्मेदार कौन है, और कौन इस अंधेरे का फायदा उठाने की कोशिश में है। अब हिन्दू जग कर ये देखना चाह रहा है कि उसके दरवाजे पर लम्बा चाकू ले कर जो उसकी गर्दन उतारने को तैयार है, वो आखिर है कौन, उसकी पहचान क्या है?
इसलिए, वामपंथियों और जिहादियों की सुलग रही है। दोनों ही नकारे जा रहे हैं। वामपंथी तो अब स्कूलों के मॉनीटर का चुनाव जीत कर ‘बच्चों ने दिखाया मोदी को ठेंगा’ जैसी हेडलाइन खुद लिखते हैं, और खुद पढ़ते हैं क्योंकि अब उनकी पत्रकारिता भी गायब होती जा रही है। लोग इन्हें पढ़ते भी हैं तो कमेंट में गरियाने के लिए कि पत्रकारिता के नाम पर जो ये पीला रायता फैलाया जा रहा है, वो बंद करो। तब इनका गिरोह लोमड़ी की तरह आता है और ‘आईटी सेल-आईटी सेल’ कह कर गँड़खुल्ला नाच नाचने लगता है।
ये राजनैतिक तौर पर गायब हो चुके हैं, और सामाजिक तौर पर आप इनके बहिष्कार को सोशल मीडिया पर देख सकते हैं। रवीश ‘मेले बाबू ने नौतली थिलीज की’ कुमार के फेसबुक पर जाइए और देखिए कि सकारात्मक और नकारात्मक टिप्पणियों का अनुपात क्या है। ये कहना बहुत आसान है कि ये तो ट्रोल हैं, लेकिन यह स्वीकारना बहुत मुश्किल है कि लोग तुम्हारी पत्रकारिता पर थूक रहे हैं। इनकी जो मंडली है, जो चाह कर भी इंटेलेक्चुअल लेजिटिमेसी की वन-वे पर घृणा से नहाए शब्दों के साथ लम्बा रास्ता तय करने के बाद वापस नहीं लौट सकती, वो ही इनकी पत्रकारिता और विचार पर ऑर्गेज्म पा रहे हैं।
जब तथ्य और तर्क खत्म हो जाते हैं तब वामपंथी ‘आईटी सेल’ और ट्रोल बोल कर स्वयं को सांत्वना देता है। जब उसके द्वारा स्थापित मानदंड टूटते हैं और करोड़ों नए लोग उसी मीडिया पर अपनी राय देने लगते हैं, जिन पर इनका वर्चस्व रहा हो, तो ये ‘आईटी सेल’ वाला राग अलापते हैं। ये अब इतने खौफ में हैं कि अपने छोटे समूह में फेसबुक पर किसी की प्रोफाइल की मास रिपोर्टिंग करके उसे ब्लॉक करवाने की फिराक में रहते हैं। इनका दुर्भाग्य कि फेसबुक ने वो सिस्टम साल भर पहले ही हटा दिया।
ये बेचारे बस सुलग रहे हैं। ये देख रहे हैं कि जो सोए लोग थे, जिन्होंने आँखों पर पट्टी बाँध रखी थी, वो अब जगने की कोशिश कर रहे हैं, तो ये हैमलिन से पाइडपाइपर की तरह पुरानी धुन सुनाना चाह रहे हैं। हिन्दू अब सोएगा नहीं, वो मजहबी घृणा को स्कोडा-लहसुन तहजीब के नाम पर बर्दाश्त नहीं करेगा। हिन्दू अब लिखेगा, बोलेगा और सवाल पूछेगा कि तुम जिस प्रेम की बात कर रहे हो, वो चाकू द्वारा बनाए हुए बारह सेंटीमीटर लम्बे और तीन सेंटीमीटर गहरे घाव के रूप में क्यों दिखता है? हिन्दू ये पूछेगा कि तुम्हारे द्वारा तय भाषा में जो पत्रकारिता हो रही है, उसमें तुम शब्दों की धूर्तता से एक मजहब के लोगों को क्यों बचाते हो, वैसी पत्रकारिता क्यों की जाए?
हिन्दू पूछेगा कि किसी पर लगातार मजहबी प्रहार करने वालों को नाम लेकर, उसके मजहब के कथित जिम्मेदार लोगों से क्यों सवाल नहीं कर रहे कुछ लोग? यही वो सवाल हैं जिससे वामपंथी मीडिया गिरोह और उसके अल्पविकसित चेले-चपाटे जो फेसबुक पर रे, जे और गे बने फिरते हैं, वो मानसिक संतुलन खो रहे हैं। उन्हें अब उनके दोगलेपन को दिखाया जा रहा है। इसलिए अंग विशेष में दर्द उठता है।
तुम जलो वामपंथियों और जिहादियों क्योंकि तुम्हारी यही नियति है। हिन्दू घृणा नहीं बाँटता, वो हजारों सालों से अपनी जगह पर प्लूरलिज्म, सहिष्णुता और सर्वसमावेशी होने के बुनियादी आदर्शों को जी रहा है। वो हमेशा से अकोमोडेटिव, यानी दूसरों के साथ शांति से रहने वाला, बन कर रहा है। लेकिन, सहने की एक सीमा होती है, किसी को इतना मत डराओ कि उसका डर खत्म हो जाए।
एक खास मजहब के उत्पात को, उनके उन्माद को हमेशा ‘भटका हुआ नौजवान’, ‘हेडमास्टर का बेटा’, ‘उसे बचपन में एक अफसर ने उठक-बैठक कराई थी’ जैसे शब्दों और वाक्यांशों के नीचे छुपाने की कोशिशें होती रहीं। ये कहा जाता रहा कि वो अल्पसंख्यक हैं, उन्हें उनके हिसाब से रहने दो। लोगों ने रहने दिया, खिसकते गए, सीट देते गए। लेकिन जब कमलेश तिवारी की तरह उसे हलाल करोगे, तो लोगों के भीतर पलता गुस्सा तो फूटेगा ही।
और ये तुम्हारी तरह नहीं फूटेगा। तुम्हारी जान का प्यासा कोई नहीं है, वो बस ये बताना चाह रहा है कि हर बार तुम कमलेश तिवारी को हलाल कर के ये उम्मीद मत पालो कि तुम बच जाओगे। हिन्दू बस संगठित हो रहा है, राजनैतिक रूप से स्वयं को अपने ही देश में बचाने की कोशिश कर रहा है, वो अपने जीवन को ले कर चिंतित है क्योंकि तुमने उसे ऐसा करने पर मजबूर किया है।
डरना ज़रूरी है हिन्दुओं के लिए। क्योंकि जब अपनी जान पर बन आती है, और जब आदमी को यह अहसास हो जाता है कि दरवाजे पर जो व्यक्ति खड़ा है वो उसके किसी सोशल मीडिया पोस्ट के कारण आहत हो कर उसका कत्ल करने आया है, तब वो अपनी जान बचाने के लिए उपाय करना शुरु कर देता है। आज मोइनुद्दीन और अशफाक ने हत्याकांड के जरिए यह बताया है कि हत्यारों की मदद के लिए हर जगह पर लोग तैयार थे, और उनकी सामूहिक मौन स्वीकृति यह बताती है कि सेंसिबल बातों करने वाले लोग इनके मजहब में नहीं है। होते तो पता चलता क्योंकि सब चुप हैं।
इसलिए, चाकू भले ही एक आदमी ने मारा, लेकिन हत्यारा तो पूरा तंत्र है जो हर कदम पर मदद देता रहा। इसी तंत्र से लड़ाई है, और इसके लिए संगठित होना, आवाज उठाना पहला कदम है। क्योंकि यह भी समझिए कि ये बाबरी विवाद पर बाहरी दबाव की तरह भी काम में लाया जा सकता है। इस हत्या से संदेश यह भी है कि उनके मन की बात नहीं हुई तो और भी कमलेश मर सकते हैं। सोचना आपको है कि आप अपने स्तर पर इस कैंसर से कैसे निपटेंगे।