मौके के हिसाब से संवेदनाओं का प्रदर्शन अब मीडिया गिरोह की पहचान बन चुका है। बीते दिनों उत्तर प्रदेश में दलितों से संबंधी दो घटनाएँ सामने आईं। एक में एक दलित युवक को गोली मारकर खत्म कर दिया गया और दूसरी घटना में दलितों के पूरे गाँव को आग के हवाले झोंक दिया गया।
दलित युवक वाली घटना 6 जून की रात अमरोहा में घटी। घटना के प्रकाश में आते ही इसे मीडिया गिरोह ने तेजी से कवर किया। साथ ही प्रमुखता से खबरों की हेडलाइन में सवर्ण या अपर कास्ट जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया और ये बताया कि कुछ दिन पहले दलित युवक को सवर्णों ने मंदिर में जाने से भी रोका था।
कल तक जो लोग अमरोहा की घटना को दलित विरोधी बता कर राजनीति कर रहे थे, वही जौनपुर में 9जून को दलितों के घर फूंके जाने की घटना पर चुप्पी साधे बैठे हैं। क्या सिर्फ़ इसलिए क्योंकि मुख्य आरोपी अखिलेश यादव का बेहद क़रीबी जावेद सिद्धीकी है?
— Amit Malviya (@amitmalviya) June 11, 2020
नूर आलम और जावेद समेत अन्य पर रासुका लगाया गया। pic.twitter.com/StioTJfLlB
हालाँकि, अमरोहा पुलिस ने पड़ताल के बाद इस एंगल को पूर्ण रूप से खारिज किया। इससे साफ हो गया कि मीडिया गिरोह ने सिर्फ़ अपना प्रोपेगेंडा चलाने के लिए झूठ फैलाया।
इसके बाद 9 जून को प्रदेश में दलितों पर हमले की एक बड़ी खबर सामने आई। जौनपुर जिले के सरायख्वाज़ा क्षेत्र के भदेठी गाँव में समुदाय विशेष के लोगों ने आम तोड़ने को लेकर शुरू विवाद पर इतना विकराल रूप धारण किया कि उन्होंने दलितों के इस गाँव में आग लगा दी और जमकर उत्पात भी मचाया। इस दौरान हवाई फायरिंग हुई। वाहनों को आग में झोंका गया। भैंस और बकरियों को राख कर दिया गया। लेकिन मीडिया गिरोह इस घटना पर चुप्पी साधे बैठा रहा।
अमरोहा मामले पर जिस सक्रियता से राणा अय्यूब जैसे कट्टरपंथी, दलित विचारक और उनके हितैषी बन बैठे थे। वह सभी इस घटना पर मौन हो गए। न किसी ने इस वाकये की निंदा की और न ही दलितों के भविष्य को लेकर अपनी चिंता जाहिर की।
कारण शायद सिर्फ़ एक ही था कि अमरोहा में आरोपित सवर्ण निकल आया था, जो इनके एजेंडे के लिए फिट था। लेकिन जौनपुर में एक तो उपद्रवी भीड़ ही समुदाय विशेष से थी और दूसरा मास्टरमाइंड जावेद सिद्दीकी पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का बेहद करीबी था। तो आखिर कैसे कोई इसपर अपनी राय रखता?
बता दें, हर मामले पर निष्पक्ष पत्रकारिता के झूठे दावे करने वाले वामपंथी मीडिया पोर्टल इस मामले में न तो अपने विचार प्रकट कर रहे है, और न ही देश में लोकतंत्र को बचाने की दुहाई देने आरफा खान्नम शेरवानी जैसी पत्रकार कुछ बोल रही हैं।
दलितों पर हुए इस बर्बरता पर प्रिंट का भी अभी तक कोई लेख सामने नहीं आया है और न ही दलितों के नाम पर अपना पूरा करियर बनाने वाले दीलीप सी मंंडल ने इस घटना का आँकलन किया है।
द वायर, जिसे पिछले दिनों कई मुद्दों पर अपनी रिपोर्टिंग के लिए लताड़ लगी, वह इस मामले को केवल आपसी विवाद का मामला बताता है।
हाँ, दिलीप सी मंडल ने हिप्पोक्रेसी की सीमा लाँघते हुए एक ट्वीट जरूर किया है। इसमें उन्होंने अपने दलित विचारक होने के साथ-साथ मुस्लिम प्रेम को बरकरार रखा है। उन्होंने अपने ट्वीट में आरोपितों के ख़िलाफ़ अपनी स्पष्ट राय रखने की जगह देश की जनसंख्या को जिम्मेदार ठहराया है और न्याय व प्रशासन पर ठीकरा फोड़ दिया है।
उन्होंने लिखा, “देश में 130 करोड़ लोग हैं। आपसी झगड़े, हिंसा, हत्याएँ तो होंगी। सवाल ये है कि ऐसी घटनाओं पर पुलिस-प्रशासन और न्यायपालिका का रुख क्या है। इसी के आधार पर तय होगा कि कोई सरकार न्यायप्रिय है या जुल्मी। इस कसौटी पर यूपी की सरकार कुछ जातियों के पक्ष में झुकी नजर आती है।”
खुद सोचिए, दिलीप सी मंडल जैसे बुद्धिजीवि आज आखिर क्यों न्याय प्रशासन की बात कर रहे हैं? क्यों यह समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि देश की जनसंख्या इतनी अधिक है कि अपराध और हत्याएँ तो होगीं ही? ये वही लोग हैं जो सवर्णों के आरोपित होते ही उनकी जाति को मुख्य रूप से उजागर करते हैं और ऐसी हाय-तौबा मचा देते हैं कि किसी व्यक्ति विशेष को सवर्णों से घृणा ही हो जाए या वह देश में नागरिक को मिलने वाले मौलिक अधिकारों पर ही सवाल उठा दे?
ऐसा लगता है कि दलित उत्थान गिरोह विशेष के लिए टीआरपी बटोरने का शब्द मात्र है। इसके नाम पर दिलीप मंडल जैसे लोग खुद को बुद्धिजीवी के रूप में स्थापित करते हैं।
जौनपुर की घटना ने दलित हितैषी कथित बुद्धिजीवियों को ही नंगा नहीं किया है। मीडिया गिरोह, वामपंथी दलित विचारकों के अलावा अखिलेश यादव, उदित राज, मायावती, चंद्रशेखर जैसे कथित दलित हितैषी नेताओं की भी पोल खोलकर कर दी है। वे भी मौन हैं क्योंकि इस मामले में आरोपित न तो सवर्ण है और न ही बीजेपी से उनका कोई कनेक्शन। जय भीम-जय मीम के नाम पर दलितों के साथ होने वाले छलावे को यह मामला बेनकाव करता है। इसलिए सबने चुप्पी साध रखी है।
दोनों घटनाओं पर इनकी प्रतिक्रियाओं का अंतर यह भी बताता है कि कैसे मौकापरस्त गिरोह हमारे सामने किसी भी मामले को अपने एजेंडे के अनुसार पेश करता है। अपने नजरिए को ही अंतिम सत्य बताकर हम पर थोपने की कोशिश करता है।
#Jaunpur atrocities in Dalits by Peaceful people. No Liberal, no Mayawati, no Akhilesh Yadav, no Lutyen calls. But, shout out as if #GeorgeLloyd is the next door atrocity pic.twitter.com/AgASlxiqZ5
— Ratan Sharda 🇮🇳 (@RatanSharda55) June 12, 2020
वहीं, योगी सरकार, जिसे हमेशा ब्राह्मणवाद का चेहरा बताया जाता है वह दलितों के ख़िलाफ़ हुई क्रूरता पर फौरन एक्शन में आती है और आरोपितों के ख़िलाफ़ रासुका के तहत कार्रवाई के आदेश देती है। साथ ही पीड़ितों को न्याय दिलाने की हरसंभव कोशिश करती है।
लेकिन सेकुलरिज्म को कथित खेवनहार मौन हैं। बोल भी रहे तो इस सावधानी से कि कोई दलितों पर बर्बरता के लिए समुदाय विशेष पर ऊँगली न उठा सके।