गरीब रैला याद है? या लाठी रैला? लालू यादव का नाम तो जानते होंगे? रैली को रैला में लालू नाम के इसी अपराधी ने बदला था। इसको समझने-बूझने के लिए 20-30 साल पहले जाना होगा। अब का अपराधी लालू तब बिहार की राजनीति का स्टार हुआ करता था। उस लालू यादव ने अपनी राजनीतिक हनक के लिए जब-जब जो-जो दिल में आया, वो किया।
राजनीतिक चश्मे से देखें तो अपने प्रयोगों में लालू यादव सफल भी रहा। सिवाय खुद के अपराधी कहलाने के अभी तक वो और उसका खानदान सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ते ही जा रहा है। आखिर कारण क्या है? जवाब है – भीड़ को साध लेना।
लालू बिहार का पाइड पाइपर था। लेकिन क्या देश में सिर्फ बिहार ही है? नहीं। मतलब पाइड पाइपर और भी हैं। तभी हर जगह की भीड़ को साधा जा रहा है। इसको सिर्फ रैली/रैला जैसे शब्दों में बाँट कर देखेंगे तो धोखा खाएँगे। भीड़ की उर्जा कभी वोट बन कर तो कभी बवाली बन कर समाज को दशा-दिशा देती आई है। इसकी शक्ति इतनी है कि यह सर्वशक्तिमान संविधान को भी बदल डालती है। मतलब भीड़ > संविधान।
चौंकिए मत। संविधान एक किताब है, अच्छी किताब है लेकिन एकमात्र किताब नहीं। देश के चुनिंदा पाइड पाइपर इस सच्चाई को बखूबी समझ गए हैं। जाट आंदोलन में भीड़ की उर्जा पर 2-4 बलात्कार के आरोप (जिसे बाद में SIT ने नकारा) भी लगे तो क्या हुआ… आरक्षण वाला संविधान तो बदल कर ही रहेगा। गुर्जर आंदोलन में करोड़ों-अरबों की संपत्ति (सरकारी भी और आम लोगों की भी) का नुकसान हो तो हो… आरक्षण वाला संविधान तो बदलना ही पड़ेगा। पूरे देश के किसान खेतों में हाड़-मांस गलाएँ, दिल्ली में एसी टेंट/ट्रैक्टरों में बैठा चंद हजार किसान संविधान तो बदल ही डालेगा ना!
मतलब भीड़ > संविधान। सत्ता में बैठे लोग इस सच को जानते जरूर हैं बस बोलते या लिखते नहीं। संसद में भेजे गए माननीय शब्दों और प्रतीकों को बखूबी समझते हैं, इनसे खेलते हैं। यही कारण है कि ये बात-बात में दुहाई लोकतंत्र की देते हैं लेकिन झुकते भीड़तंत्र के सामने हैं। भीड़तंत्र के सामने लोकतंत्र झुक जाता है, क्या यह सच है? ऊपर के सारे उदाहरण इसी प्रश्न के उत्तर हैं।
इस्लाम एक मजहब (धर्म) है। कुछ इंसान इस मजहब को मानते हैं। शब्द पर ध्यान दीजिए। इंसान मानते हैं, गाय-बैल-कुत्ते-बिल्ली नहीं। इसी तरह बौद्ध, जैन, सिख आदि-इत्यादि भी धर्म हैं। इन धर्मों को भी इंसान ही मानते हैं… गाय-बैल-कुत्ते-बिल्ली नहीं। आप सोच रहे होंगे भीड़ की बात करके धर्म क्यों घुसा दिया? घुसा दिया क्योंकि भीड़ भी इंसानों का ही समूह होता है। जिस भीड़ की ऊर्जा की बात ऊपर की गई है, वही धर्म में भी लागू होती है। यहाँ वाली भीड़ संविधान में बदलाव कर पाती है या नहीं, यह भीड़-विशेष पर निर्भर करता है।
एक मजहबी संस्था ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने कुछ महीनों पहले भीड़ को हाँक-हाँक कर भारत में ईशनिंदा कानून बनाने की माँग रख दी थी। ईशनिंदा कानून मतलब इनके मजहब से जुड़े प्रतीकों को लेकर कुछ बोला तो जिंदगी खत्म। इनके लिए आसान भी है पाइड पाइपर बनना। इनकी भीड़ “सर तन से जुदा” वाली भीड़ है। पत्थर बरसाती भीड़ है। मीडिया में अक्सर लोग इन्हें ‘शांतिप्रिय’ भीड़ बताते हैं।
“शिवलिंग 4 इंच का था, सहलाने से 12 इंच का हो गया। शिवलिंग क्या है, लिंग तो सबके पास होता है। फुटपाथ पर निकल आए एकसाथ कई शिवलिंग। शिवलिंग पर कंडोम। रेप के बाद सीता की योनि से रक्तस्राव…” – गुस्सा आया क्या? एकबार फिर पढ़िए। ये सारी खबरें हैं। इन खबरों को पढ़ कर भारत में ही भीड़ के दूसरे पहलू को देखिए-बुझिए। यह वो भीड़ है, जो “सर तन से जुदा” नहीं करती, बहुत हुआ तो कोर्ट-कचहरी चली जाती है।
अब देखते हैं नुपुर शर्मा मामले को। “सर तन से जुदा” वाली भीड़ भारत तो छोड़िए, विदेशों में भी एक्टिव हो गई। पार्टी ने क्या किया? भीड़ की सुनी, सस्पेंड कर दिया। सवाल उठता है कि शिवलिंग पर किन-किन पार्टियों/ऑफिस/संस्थानों आदि ने किन-किन को सस्पेंड किया था? खबरों की दुनिया से ऐसी कोई खबर मुझ तक तो नहीं पहुँची।
नुपुर शर्मा से एक और नाम याद आया। कमलेश तिवारी नाम के एक इंसान थे। अब वो सिर्फ एक नाम हैं। देश के कानून-संविधान के तहत वो जेल गए थे क्योंकि किसी ने कुछ आरोप लगाया होगा, पुलिस-वकील ने उन्हीं आरोपों पर जज के सामने पेश कर उन्हें जेल भेज दिया। उसके बाद क्या? “सर तन से जुदा” वाली भीड़ शांत हो गई? जिस कानून ने जेल भेजा, उसको मान लिया? नहीं। हत्या कर दी। हत्यारे को तो कानून-पुलिस ने पकड़ भी लिया लेकिन “सर तन से जुदा” वाली हत्यारी भीड़ पर कानून ने क्या किया? नील बटे सन्नाटा… मतलब भीड़ > संविधान।
महात्मा बुद्ध के बारे में बोला तो नाखून नोंच लेंगे… जैन तीर्थंकरों पर कुछ कहा तो आँखें निकाल लेंगे… सिख गुरुओं पर आपत्तिजनक बात की तो ओंठ सील देंगे… हिंदू देवी-देवताओं पर कॉमेंट किया तो नाक काट दिया जाएगा… आदि-इत्यादि जैसे आंदोलन इस देश में क्यों नहीं किए जा सकते? संविधान बदलने में सक्षम भीड़ आखिर इस ओर क्यों नहीं सोचती? ईशनिंदा के साथ-साथ ऐसे कानूनों के होने से इस देश का भला बिगड़ क्या जाएगा? और हाँ, भीड़ भला कानून मानती कहाँ है?
अब सवाल यह है कि धर्म वाली भीड़ को हाँके कौन? कौन बनेगा इनका पाइड पाइपर? मजहबी भीड़ को अपना लक्ष्य पता है, वो तो कानून बनाने की माँग के लेवल तक पहुँच गए हैं। गैर-कानूनी ही सही, संविधान बदल डालने को ही सही… हे धर्म के रक्षक, आप कब जागेंगे?