हाल का दौर नित नए खुलासों का भी दौर रहा। अगर आप एक आयातित विचारधारा के प्रति झुकाव नहीं रखते हों, तो कैसे आपको हाशिए पर धकेल दिया जाता है, ये विश्वसनीय नहीं लगता था। जब ब्लूम्सबरी और “दिल्ली दंगे 2020” का विवाद सामने आया तब प्रकाशन जगत में वाम विचारधारा की पैठ नजर आई।
विदेशियों के हुक्म पर भारतीय लेखकों की किताबों को कैसे सीधे प्रकाशन से ही बाहर किया जा सकता है, ये तो दिखा ही मगर साथ ही दूसरे कई क्षेत्रों में भी नजर आने लगा। ये प्रक्रिया 1950 में पी सी जोशी के दौर में ही शुरू हो गई थी। शिक्षा और उससे जुड़े आस-पास की जगहों पर वामपंथी विचारधारा ने चुपके-चुपके कब्ज़ा ज़माना शुरू कर दिया था।
भारत की आजादी के शुरूआती दौर में (कम से कम 1977 तक) जिनके हाथों में शिक्षा का मंत्रालय रहा, उन्होंने इस पर ध्यान क्यों नहीं दिया होगा ये एक अलग बहस का विषय हो सकता है। जो भी हो पी सी जोशी के पार्टी से निकाले जाने के बाद भी उन्हें पता रहा कि विश्वविद्यालय, नाटक-सिनेमा, साहित्य जैसे क्षेत्रों पर कब्ज़ा जमाने से ना केवल सतत आय के साधन बनते हैं, बल्कि युवाओं को लगातार भर्ती करते रहने के मौके भी बनते रहते हैं। इसका उन्होंने फायदा तो उठाया ही, लेकिन इसके साथ ही साथ दूसरी सभी विचारधाराओं को इन क्षेत्रों से बाहर निकाल देने का हर संभव प्रयास किया।
ये वो दौर था जब सोशल मीडिया जैसे साधन नहीं थे। अगर अख़बारों और स्थापित प्रकाशनों में आपको छपने से रोक दिया जाए, तो आपके विचारों को भी दबाया जा सकता था। ऐसे दौर में सीताराम गोयल नाम के एक लेखक “हिन्दू समाज: संकटों के घेरे में” जैसी किताबें लिख रहे थे।
कांचा इल्लैया जैसे मिशनरी फंड पर पलने वाले या शशि थरूर जैसे लोग जो कि घृणित अपराधों के आरोपित रहे हैं, वो आज तक जिसके विरोध में लिखते आ रहे हैं, उसके समर्थन में सीताराम गोयल “मैं हिन्दू कैसे बना” लिख रहे थे। जाहिर है ऐसे काम का नतीजा यही हुआ होगा कि उनके बारे में चुप्पी साधकर उन्हें उनके विचारों के साथ मिटा देने की भरपूर कोशिश हुई।
अक्टूबर 1921 में जन्मे सीताराम गोयल हमेशा से वामपंथियों के विरुद्ध थे, ऐसा नहीं था, क्योंकि ये माना जाता है कि 1940 के दशक के आसपास वो भी वामपंथी झुकाव रखते थे। उनके लेखन को प्रकाशक मिलना नामुमकिन बना दिया गया और अंततः उन्हें अपना खुद का प्रकाशन शुरू करना पड़ा।
उनके लिखे का प्रभाव कैसा था, इसे देखने के लिए उनके प्रकाशन की प्रतिबंधित पुस्तकों की सूची देख लेना काफी होगा। उन्होंने राम स्वरुप की लिखी “अंडरस्टैंडिंग इस्लाम थ्रू हदीस” को 1983 पुनः प्रकाशित कर दिया।
इस किताब के लिए 1987 में उन्हें गिरफ्तार भी किया गया था। उनके खिलाफ मुकदमा बाद में हटा लिया गया लेकिन इस किताब की मूल अंग्रेजी प्रतियों को मार्च 1991 में प्रतिबंधित कर दिया गया। हिंदी अनुवाद को पहले ही 1990 में प्रतिबंधित किया जा चुका था।
प्रतिबंधित होने वाली दूसरी किताब का नाम “हिन्दू व्यू ऑफ़ क्रिश्चियनिटी एंड इस्लाम” था जिसे फिर से राम स्वरुप ने ही लिखा था। इसे प्रतिबंधित करने के लिए 1993 में सांसद सैयद शहाबुद्धीन (जो गया, बिहार से सांसद थे) ने प्रस्ताव दिया था।
सैयद शहाबुद्दीन इससे पहले “सैटानिक वर्सेज” पर भी 1988 में प्रतिबन्ध लगवा चुके थे। बाद में “द कोलकाता कुरान पिटिशन” और कोलिन माइने की “द डेड हैण्ड ऑफ़ इस्लाम” पर भी मुक़दमे हुए।
सीताराम गोयल की सबसे प्रसिद्ध किताब शायद “हिन्दू टेम्पल्स – व्हाट हेप्पेनड टू देम” को कहा जा सकता है। 1990 में इसे उत्तर प्रदेश में प्रतिबंधित करने का प्रयास हुआ था।
अगर “हिन्दू टेम्पल्स – व्हाट हेप्पेनड टू देम” को देखा जाए, तो इसका विषय वो हजारों मंदिर हैं, जो इस्लामिक जिहाद के दौरान भारत में तोड़ डाले गए। एक साथ इतने मंदिरों का प्रमाणिक दस्तावेज प्रस्तुत कर देना शायद सीताराम गोयल के जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि रही।
ये पुस्तक आज भी प्रमाणों के तौर पर इस्तेमाल की जाती है। सेकुलरिज्म और नरसंहारों को नकारने की तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग की आदत को वो अपने दौर में आड़े हाथों लेते रहे। उनका जन्म 16 अक्टूबर 1921 को हुआ था और आज उनकी जन्मतिथि भी है। किस्मत से काफी कम लोग आज उन्हें याद करते नजर आए।
जो आज के दौर में भी हिन्दुओं के पक्ष से लिखते हैं, उन्हें अच्छी तरह अंदाजा होगा कि ये काम कितना मुश्किल है। प्रकाशकों का ना मिलना, सोशल मीडिया पर विरोध, ये सब मामूली बाते हैं। अक्सर संगठित गिरोहों के खिलाफ जाने पर मुक़दमे और मनगढ़ंत यौन शोषण जैसे आरोप भी झेलने पड़ सकते हैं। चरित्र हनन और आर्थिक नुकसान पहुँचाने की कोशिशें सबने देखी हैं।
हाल ही में सच बोलने के कारण ‘इस्लामोफोबिया’ का आरोप लगा कर एक शेफ को नौकरी से निकलवाने के लिए गिरोहों का पूरा आंदोलन चलाना भी याद होगा। इसके अलावा भी कई बार मध्य-पूर्वी देशों में ऐसी बातों के लिए गिरफ़्तारी-नौकरी से निकाले जाने जैसी घटनाएँ होती रही हैं।
ऐसे में 1990-2000 के दौर में आज से करीब दो दशक पहले जब ख़बरें इतनी तेजी से सफ़र नहीं करती थीं, तब कितनी मुश्किल से सीताराम गोयल टिके रहे होंगे, ये अनुमान लगाना मुश्किल नहीं।
बाकी जिन्हें आज के कोइनार्ड एल्स्ट और राजीव मल्होत्रा जैसे लेखक भी शुरूआती दौर का “बौद्धिक क्षत्रिय” मानते हैं, उन्हें उनकी आगे की पीढ़ी, यानी हम जैसे लोगों को भी एक बार नमन तो करना ही चाहिए!