कश्मीर के इतिहास में 19 जनवरी 1990 वो काला दिन है, जिसे चाहकर भी भुला पाना असंभव है। वो रात जब मस्जिदों से आती आवाजों से कश्मीरी पंडित सिहर उठे थे। जब अपनी माताओं-बहनों-बेटियों को बचाने के लिए कश्मीरी पंडित खुद कुल्हाड़ी लेकर उनके सामने खड़े थे। वो रात जब न जाने कितने लोगों ने सिर्फ़ अपने कश्मीरी पंडित होने की सजा पाई थी और अपनी आखों के सामने अपनों को जलते-मरते-कटते देखा था।
बीती 19 जनवरी को उस इस्लामिक बर्बरता के पूरे 30 साल हो गए। जी हाँ, पूरे 30 साल हो गए 4 लाख पंडितों को अपनी सरजमीं से पलायन किए हुए। पूरे 30 साल हो गए उनके घरों की दीवारों को खंडहर बने हुए। पूरे 30 साल हो गए देश-विदेश में जाकर बसे कश्मीरी पंडितों को अपने इंसाफ की लड़ाई लड़ते हुए। इसी 30 साल पूरे होने पर कश्मीरी पंडितों की कहानी बयान करते हुए ‘शिकारा’ नाम की फिल्म अगले महीने यानी 7 फरवरी को सिनेमा घरों में आ रही है। हालाँकि, इस फिल्म को लेकर अभी तक दावा किया जा रहा था कि ये फिल्म उन लोगों की कहानी है, जिन्हें कश्मीर में रातों-रात शरणार्थी बना दिया गया और उनसे उनके जमीन छीन ली गई। लेकिन इस फिल्म निर्देशक के हालिया बयान ने उनके उद्देश्य और निर्देशन पर सवालिया निशान लगा दिया।
विधु विनोद चोपड़ा, जो खुद एक कश्मीरी पंडित होने की बात कहते हैं और जिन्होंने फिल्म के ट्रेलर रिलीज के समय अपने अनुभवों के आधार पर उस रात की सच्चाई को फिल्म के जरिए दिखाने का दावा किया था। लेकिन, उन्होंने अभी अपना हालिया बयान देकर सबको हैरान कर दिया। दरअसल, विधु ने कहा कि ये फिल्म प्रेम के बारे है। उनके मुताबिक उस रात को अब 30 साल बीत गए हैं। इसलिए कश्मीरी मुस्लिमों और पंडितों को एक दूसरे से माफी माँग लेनी चाहिए और दोबारा से दोस्त बनकर एक दूसरे के साथ प्रेम में डूब जाना चाहिए।
अब विधु विनोद चोपड़ा के इस बयान ने सोशल मीडिया पर तूल पकड़ लिया और कश्मीरी पंडितों ने खुलकर इसका विरोध किया। देखते ही देखते कई लोग सोशल मीडिया पर अपने कड़वे अनुभवों को साझा कर कर रहे हैं। साथ ही उन लोगों की हकीकत भी बता रहे हैं। जो आज भी कश्मीरी पंडितों को खुलेआम धमकी दे रहे हैं कि अगर वे लौटे तो उन्हें 90 के दशक से दुगना-तिगुना बर्बरता झेलनी होगी।
Vidhu Vinod Chopra : My film Shikara is about love. 30 years have passed. Let Kashmiri MusIims and Pandits say sorry to each other and move on. It is like two friends who have a fallout but they love each other.
— Major Neel (@MajorNeel) January 21, 2020
Meanwhile Kashmiri MusIim : pic.twitter.com/h7PC6ndCbI
अब इसमें गलती विधु विनोद चोपड़ा की नहीं है। जो खुद को एक कश्मीरी पंडित बताते हैं और फिल्म इंडस्ट्री में पसरे तथाकथित सेकुलरिज्म के लिहाज से ऐसे बयान देते हैं। गलती उस निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा की है। जिसने उन चार लाख पीड़ितों की कहानी को सबसे पहले बड़े सिनेमा पर दिखाने का जिम्मा उठाया। फिर अपने कश्मीरी पंडित होने का दावा कर हिंदुओं की सहानुभूति जुटाई। और फिर फिल्म की रिलीज का समय नजदीक आते ही अपने सेकुलरिज्म का कार्ड खेल दिया।
यहाँ बतौर कश्मीरी पंडित विधु चाहते तो निजी स्तर पर कोई भी बयान देते। किसी को कोई आपत्ति नहीं होती। वो चाहते तो कश्मीर के मुस्लिमों के गले लग जाते या दोबारा जाकर उनके बीच बस जाते, कोई उन्हें कुछ नहीं कहता। क्योंकि ये उनका निजी फैसला और मत होता। लेकिन इस प्रकार 4 लाख लोगों के साथ हुई बर्बरता का प्रतिनिधित्व करते-करते उसपर ‘प्रेम’ शब्द की लीपा-पोती करना देश के किसी भी उस शख्स को स्वीकार्य नहीं है। जिसने उस रात मस्जिदों से आते अल्लाह-हू-अकबर और आजादी जैसे नारों के पीछे छिपे नापाक मनसूबों को महसूस किया। जिसने उस नफरत में अपनों को खोया और जिसने मानवता के धरातल पर कश्मीरी पंडितों के लिए दशकों से आवाज़ उठाई ।
शिकारा फिल्म के निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा का कहना है कि अब उस घटना को 30 साल बीत चुके हैं। इसलिए अब सब भूलकर आपस में दोबारा मिल जाना चाहिए और मुस्लिमों को हिंदुओं से एवं हिंदुओं को मुस्लिमों से माफी माँगनी चाहिए। लेकिन ऐसा क्यों वो ये नहीं बताते? यहाँ मुस्लिमों को हिंदुओं से क्यों माफी माँगनी चाहिए ये बात समझ आती है, लेकिन हिंदुओं को विधु जी, मुस्लिमों से क्यों माफी माँगनी चाहिए? ये बात समझ नहीं आती। क्या इसलिए कि मुस्लिमों ने उनकी लड़कियों के साथ बलात्कार किया। या इसलिए कि उन्होंने अपने पड़ोस में रहने वाले मुस्लिमों पर विश्वास किया।
कश्मीर में इस्लामिक बर्बरता का शिकार हुई वैसे तो अनगिनत कहानियाँ हैं लेकिन 25 जून 1990 गिरिजा टिकू नाम की कश्मीरी पंडित की हत्या की कहानी किसी की भी रूह कँपा दे। सरकारी स्कूल में लैब असिस्टेंट एक ऐसी महिला जिसने मुस्लिम आतंकियों के डर से कश्मीर छोड़ कर जम्मू में घर बसाया। लेकिन एक दिन उसे किसी ने बताया कि स्थिति शांत हो गई है, तो वो बांदीपुरा आ कर अपनी तनख्वाह ले जाए। मुस्लिम सहकर्मी पर विश्वास कर वह उसके घर रुकी। मगर, उसी रात मुस्लिम आतंकी आए, उसे घसीट कर ले गए। इस दौरान वहाँ के अन्य स्थानीय मुस्लिम चुप रहे क्योंकि किसी काफ़िर की परिस्थितियों से उन्हें क्या लेना-देना। गिरिजा का सामूहिक बलात्कार किया गया, बढ़ई की आरी से उसे दो भागों में चीर दिया गया, वो भी तब जब वो जिंदा थी। ये खबर कभी अखबारों में नहीं दिखी और न ही इसपर कभी चर्चा हुई।
ऐसी ही न जाने कितनी कहानियाँ है जिन पर बहुत कम चर्चा हुई है। लेकिन आज विधु कहते हैं कि सब कुछ भुलाकर उन लोगों से कश्मीरी पंडितों को गले मिल लेना चाहिए, प्रेम करना चाहिए और सब भुला देना चाहिए। एनडीटीवी पत्रकार रवीश कुमार कहते हैं कि निर्देशक ने वर्षों की इस चुप्पी को तोड़ने के लिए सिर्फ एक सॉरी की गुज़ारिश की है, उन्होंने बहुत ज्यादा तो नहीं माँगा।
हमें सोचना होगा कि आखिर एक शख्स, जिसने 1990 में इस्लामिक बर्बरता में अपने घर को लुटते देखा, अपनी मौसी की आवाज खोई। वो आज क्यों कश्मीरी पंडितों पर हुए बर्बर अत्याचार पर फिल्म ‘शिकारा’ बनाते हुए एक भी बार तल्ख नजर नहीं आए। ऐसा इसलिए नहीं कि वो उन अनगिनत कहानियों से अनभिज्ञ हैं। बल्कि ऐसा सिर्फ़ इसलिए ताकि समुदाय विशेष के लोग उनकी ये फिल्म देखने के बाद उन्हें एक निश्चित विचारधारा का न मानें, उनकी टीस को महसूस न करें और उनकी आने वाली फिल्मों पर कभी कोई आपत्ति न जताए।
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