Tuesday, March 19, 2024
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शंका, हंगामा, हिंसा… सोचा है जब सेना से लौटेंगे ‘अग्निवीर’ तो कितना सबल होगा समाज: घर के भीतर साजिशों का भी जवाब होगा ‘अग्निपथ’

केवल सीमाओं पर खड़ी सेना के बल पर न तो युद्ध लड़े जाने हैं, न जीते जाने हैं। समाज के बीच में ऐसे लोगों का रहना बहुत आवश्यक है जो स्वयं प्रतिबद्ध, अनुशासित नागरिक बनकर उदाहरण बन सकें।

केंद्र सरकार ने युवाओं के लिए अग्निपथ/अग्निवीर योजना (Agnipath/Agniveer scheme) की घोषणा की है। जितना इस योजना का विस्तृत विवरण सामने नहीं आया है, उससे अधिक इसकी आलोचना आरम्भ हो गई है। विपक्ष को तो मजबूरन विरोध करना ही होता है, इस बार सेना के कुछ भूतपूर्व अफसर भी इसकी आलोचना कर रहे हैं। कुछ लोगों को ठीक भी लग रही है।

यह योजना युवाओं के लिए है जिसके अनुसार उन्हें चार वर्ष तक सेना में सेवा का अवसर प्राप्त होगा। आर्थिक दृष्टि से देखा जाए युवाओं के लिए पैकेज अच्छा है और अवसर की दृष्टि से देखा जाए तो इससे अच्छा अवसर हो नहीं सकता। बहुत समय से एक वर्ग का विचार था कि सभी नागरिकों के लिए दो या तीन वर्ष के लिए सैन्य सेवा अनिवार्य कर दी जाए। किन्तु हमारे यहाँ जनसंख्या इतनी है कि सभी के लिए सैन्य सेवा अनिवार्य होना असंभव है। फिर सरकार का यह सोचना कि एक वर्ष में पचास हजार बच्चे लेकर उन्हें ट्रेनिंग देकर चार वर्ष तक अवसर मिले, उनमें से पच्चीस प्रतिशत को सेना में ले लिया जाए बाकी को बाहर जाना होगा। इसको लेकर लोगों ने तरह तरह की शंकाएँ व्यक्त की हैं।

पहली यह कि यह एक अनुबंध की तरह है और सेना अनुबंध के आधार पर नहीं चलती। इससे सेना कमजोर होगी। इस पर तर्क यह दिया जा सकता है कि सामान्य नियुक्तियाँ तो चलती ही रहेंगी, यह एक अलग दिशा है। अनुबंध चार वर्ष का है। उसके बाद जो सेना में जाएँगे वे तो नियमित ही रहेंगे।

दूसरा लोगों का मत है कि इस तरह से आए हुए लोग सेना के प्रति समर्पण नहीं रखेंगे। वे शत-प्रतिशत नहीं देंगे। प्राण दांव पर नहीं लगाएँगे। जहाँ तक सेना का सवाल है, यह एक कठोर सत्य है कि सेना में जाने के विषय में हर कोई नहीं सोचता और जो सोचता है उसके समर्पण पर शंका नहीं की जानी चाहिए। इन पचास हजार अग्निवीरों के लिए भी प्रतियोगिता निश्चित है। अयोग्य तो वैसे भी नहीं आएँगे, और जो आएँगे उनके समर्पण और निष्ठा पर प्रश्न उठाना कहाँ तक सही है?

एक वर्ग वह है जो सेना में जाना ही चाहता है। वही उसके जीवन का लक्ष्य है। अगर ऐसे सभी युवा अग्निवीर बनते हैं, तो उनमें से अधिकतर को बाहर निकलने का भय रहेगा। युवाओं के विरोध का एक कारण बस यही हो सकता है। उनको ये भी तो सोचना चाहिए, अग्निवीर योजना से उनके सेना में नियमित होने की सम्भावना अधिक होगी और न भी हुए तो चार साल का अनुभव उन्हें वैसे भी बहुत काम आएगा और फिर भी शंका है तो उन्हें सामान्य भर्तियों की प्रतीक्षा करनी चाहिए। सामान्य भर्तियाँ बंद करने की कोई घोषणा नहीं हुई है, बल्कि एक नई, वैकल्पिक व्यवस्था की नींव डाली गई है। पच्चीस प्रतिशत तो सेना में ले लिए जाएँगे। संभवतः चुने गए लोगों के लिए अतिरिक्त ट्रेनिंग दी जाने की योजना हो और सेना के स्तर के हिसाब से दी भी जानी चाहिए, क्योंकि प्रारम्भिक छह महीने की ट्रेनिंग में कोई परिपक्व सैनिक नहीं बन जाता। अगर यह स्पष्टीकरण आता है तो भूतपूर्व सैनिकों की अग्निवीर सैनिकों के समर्पण को लेकर व्यक्त की जाने वाली शंका का समाधान हो जाएगा।

लोगों की शंका है कि चार वर्ष बाद ये बचे हुए लोग क्या करेंगे? क्या वो सभी हाई स्कूल पास रह जाएँगे? आगे जीवन-यापन कैसे करेंगे? अभी यह स्पष्ट नहीं हुआ है कि सरकार की इन चार वर्षों में इन सभी लोगों को उच्च शिक्षा दिलवाने का कोई विचार है या नहीं। अगर प्रशिक्षण के साथ इनको पढ़ने का भी अवसर मिले तो बेहतर होगा। सेना के अनुशासन में रहते हुए शिक्षा प्राप्त करने वाले युवा कितने बेहतरीन नागरिक होंगे, यह कल्पना पता नहीं किसी ने की है या नहीं। यहाँ सरकार को शायद बेहतर प्रस्तुतीकरण की आवश्यकता थी।

शिक्षा का यह पक्ष सरकार स्पष्ट कर दे तो बहुत सी शंकाओं का समाधान हो जाएगा, क्योकि उसके बाद ये युवा जिन भी क्षेत्रों में जाएँगे, वहाँ बेहतर ही साबित होंगे। वे एक ऐसे वर्ग का निर्माण करेंगे जो राष्ट्रभक्त, अनुशासित, मानसिक और शारीरिक रूप से दृढ़ होगा। साथ ही कुछ वर्षों में आपातकालीन स्थितियों के लिए उपलब्ध निष्क्रिय सैन्य बल देश के पास होगा, जिसे आवश्यकता पड़ने पर सक्रिय किया जा सकेगा। UGC ने पहले ही इस योजना का समर्थन किया है। इसमें IGNOU महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।

एक संभावना यह भी है कि कुछ क्षेत्रों जैसे पुलिस, प्रशासन, शिक्षा, अग्निशमन, आपदा प्रबंधन में उन्हें वरीयता मिले। असम और उत्तर प्रदेश ने ऐसे संकेत दिए हैं। राज्य सरकारों को पुलिस जैसी संस्थाओं के लिए अगर पहले से ही प्रशिक्षित लोग मिल जाएँ तो इससे अच्छा क्या होगा? किन्तु ऐसा रोडमैप केंद्र सरकार को ही बनाना होगा।

एक शंका कुछ वोक-वामपंथी गिरोह ने भी व्यक्ति की है कि सरकार प्रशिक्षित राष्ट्रवादियों का दल बनाने का प्रयास कर रही है। जो सत्य ही है, देश को राष्ट्रवादियों की आवश्यकता भी है। उनकी दूसरी शंका यह है कि प्रशिक्षित युवाओं को चरमपंथी बहका सकते हैं और ऐसे युवा कट्टरपंथी बन सकते हैं। सेना के प्रशिक्षण के पश्चात अगर कोई कट्टरता किसी व्यक्ति में आ सकती है तो वह राष्ट्र के प्रति ही आ सकती है। अगर ऐसा कोई व्यक्ति राष्ट्र या समाज विरोधी कट्टरपंथ से फिर भी प्रभावित होता है तो वह सेना के योग्य कभी था ही नहीं।

शंका तो यह भी है कि समय के साथ अगर इस योजना में आरक्षण लाया गया तो भविष्य में सेना में निश्चित रूप से फूट पड़ जाएगी। अतः चयन योग्यता के आधार पर ही किया जाए, और जैसे सेना में कोई आरक्षण नहीं है वैसे ही इस योजना को इससे दूर रखा जाए। सेना को जाति-धर्म की राजनीति से दूर रखना ही उचित है।

इस योजना का जो सामजिक पक्ष है, वह यही है कि वर्तमान युवा वोक संस्कृति का शिकार हो रहा है। राष्ट्रप्रेम पर तरह-तरह की पट्टियाँ बाँधी जा चुकी हैं। कानून की सीमाओं में रहना अलग बात है, किन्तु समाज में होती घटनाओं को देखकर आँख पर पट्टी बाँध लेना अलग बात है। जिस प्रकार की परिस्थितयाँ हमारे सामने हैं, उसमें अधिकतर लोग केवल सरकार से कानून का पालन करवाने की अपेक्षा करते हैं, स्वयं कुछ नहीं करते। जब ढाई मोर्चे के युद्ध की बात होती है तब ऐसे दृढ़ निश्चयी राष्ट्रभक्तों की बहुत आवश्यकता है, जो समाज के अंदर से आधा मोर्चा संभाल सकें, ताकि सेना बाकी दो मोर्चे ठीक से संभाल सके। केवल सीमाओं पर खड़ी सेना के बल पर न तो युद्ध लड़े जाने हैं, न जीते जाने हैं। समाज के बीच में ऐसे लोगों का रहना बहुत आवश्यक है जो स्वयं प्रतिबद्ध, अनुशासित नागरिक बनकर उदाहरण बन सकें।

सीधे शब्दों में कहें तो भारत के अंदर और बाहर पर्याप्त शत्रु हैं जो भारत को कभी भी सिविल वार की और धकेलने का प्रयास कर सकते हैं। वहाँ केवल सेना काम नहीं आएगी। आज नहीं तो कुछ वर्षों के पश्चात संघर्ष निश्चित है। ऐसे संकेत समाज के एक वर्ग से स्पष्ट हो रहे हैं। समय-समय पर उनका शक्ति परीक्षण होता रहता है। छतों पर रखी फिलिस्तीन की तरह बड़ी बड़ी गुलेलें, बच्चों के पीछे से पुलिस पर पथराव और बात-बात पर गुंडागर्दी पर उतर आने वाले उस हिंसक वर्ग के सामने सबल नागरिकों की आवश्यकता है। मध्यम वर्ग का व्यापारी या नौकरीपेशा व्यक्ति सभी प्रकार की हिंसा से बचना चाहता है, जो सही भी है। किन्तु भविष्य में सब ठीक रहेगा यह कैसे कहा जा सकता है। कोई नहीं चाहेगा की उसका बच्चा सड़क पर निकले, पर दूसरी तरफ सिर्फ इसी की तैयारी हो रही है। इन अग्निवीरों के समाज के बीच रहने से समाज में आत्मबल बढ़ेगा। यह अपेक्षा इन अग्निवीरों से नहीं होगी कि बिना किसी आपात परिस्थिति के इन्हें सीमाओं पर जाना पड़े। जहाँ तक अनुमान है इन्हें आरम्भ में आपदा प्रबंधन में ही काम करना होगा। इनसे पहले चार वर्षों में युद्ध की अपेक्षा नहीं होगी, किन्तु इनका होना अपने आप में एक बड़ी शक्ति होगी।

बाकी सरकार ने यह एक विकल्प दिया है, न किसी पर थोपा है, न अन्य व्यवस्थाएँ द की हैं, तो चाहें तो विवेक से काम भी ले सकते हैं और चाहें तो टायर वगैरह जलाने की परंपरा का निर्वाह कर सकते हैं।

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