आज भारतीय वायुसेना ने अदम्य साहस का परिचय देते हुए पाकिस्तानी क्षेत्र में घुस कर कई आतंकी ठिकानों को तबाह कर दिया। इसे सोशल मीडिया पर लोगों ने सर्जिकल स्ट्राइक-2 नाम दिया है। आज मंगलवार (फरवरी 26, 2019) को तड़के साढ़े 3 बजे भारतीय वायुसेना के मिराज लड़ाकू विमानों के एक समूह ने सीमा पार जैश के कैम्पों पर बम बरसाए। पाकिस्तान के ख़ैबर पख़्तूनख़्वा स्थित बालाकोट में स्थित आतंकी संगठन जैश के कैम्पों पर भीषण बमबारी की गई। हर तरफ लोग भारतीय वायुसेना और भारत सरकार की प्रशंसा कर रहे हैं और प्रधानमंत्री मोदी की राजनीतिक इच्छाशक्ति की दाद दे रहे हैं। भारत ने पुलवामा हमले का बदला तो ले लिया लेकिन कुछ ऐसे सवाल भी हैं, जिसे उठाने का यह सही समय है।
इस समय एक ऐसे सवाल पर से पर्दा उठाना बहुत ज़रूरी हो जाता है क्योंकि अगर उसका जवाब समय रहते मिल जाता तो पठानकोट, उरी, पुलवामा सहित कई आतंकी घटनाओं को शायद टाला जा सकता था। इसके लिए दो चीजों की ज़रुरत होती है- सेना की तैयारी और राजनीतिक इच्छाशक्ति। भारतीय सेना हमेशा से आतंकियों व आतंक के पोषकों पर कार्रवाई करने के लिए तैयार रही है लेकिन अफ़सोस यह कि भारतीय शासकों की राजनीतिक इच्छाशक्ति ही इतनी कमज़ोर रही है कि एक शक्तिशाली और शौर्यवान सेना तक के हाथ बाँध कर रख दिए गए।
जब पूर्व पीएम डॉ सिंह ने ठुकराई वायुसेना प्रमुख की सलाह
नवंबर 2008 के अंतिम सप्ताह में मुंबई को आतंकियों ने ऐसा दहलाया था कि भारत की सुरक्षा एवं ख़ुफ़िया व्यवस्था पर गंभीर संदेह पैदा हो गए थे। इस हमले में 174 लोग मारे गए थे व 300 से भी अधिक घायल हुए थे। इस दिल दहला देने वाले हमले में अपनी जान गँवाने वालों में 26 विदेशी व 20 भारतीय सुरक्षाबल के जवान थे। हमलावर 10 आतंकियों में से 9 को मार गिराया गया था व एक पाकिस्तानी आतंकी अजमल कसाब को नवंबर 2012 में फाँसी दे दी गई।
उस हमले के बाद भी लोगों में उतना ही आक्रोश था, जितना कि पुलवामा हमले के बाद देखने को मिला। उस हमले के बाद भी दोषियों पर कार्रवाई की माँग की गई थी। हमले में क़रीब पौने दो सौ लोगों के मारे जाने के बावजूद भारत सरकार ने सैन्य विकल्प का प्रयोग नहीं किया। इतना ही नहीं, तब भारत के प्रधानमंत्री रहे डॉक्टर मनमोहन सिंह ने तत्कालीन वायुसेना प्रमुख की सलाह को भी नज़रअंदाज़ कर दिया था। ऐसा स्वयं पूर्व वायुसेना प्रमुख ने रेडिफ को दिए गए इंटरव्यू में बताया था। आगे बढ़ने से पहले उस इंटरव्यू की ख़ास बातों को जान लेना आवश्यक है।
If it worth remembering that after 26/11, the Indian Air Force presented the option of surgical airstrikes on terror camps in Pakistan to Prime Minister Manmohan Singh, who, for reasons unknown, shied away. This was revealed by (retd) Air Chief Marshal Fali Homi Major in 2017.
— HindolSengupta (@HindolSengupta) February 26, 2019
उस इंटरव्यू में पूर्व वायुसेना प्रमुख एयर चीफ मार्शल फली होमी मेजर ने कहा था कि भारतीय वायुसेना युद्ध के लिए पूरी तरह तैयार थी लेकिन सरकार ने इस विषय में अपना मन नहीं बनाया। वायुसेना प्रमुख होमी ने कहा था:
“किसी ने युद्ध को लेकर अपना मन नहीं बदला (26/11 के बाद) बल्कि सरकार ही अपना मन नहीं बना सकी। मैं जनता के क्रोध और नाराज़गी की भावना को समझता हूँ। भारतीय वायु सेना पाकिस्तान पर हमला करने के लिए तैयार थी। हालाँकि, सरकार क्या चाहती थी? हम तो किसी भी तरह की कार्रवाई के लिए तैयार थे।”
एयर चीफ मार्शल ने यह भी कहा कि सीमा पार जिहादी कैम्पों को तबाह करने के लिए एयर स्ट्राइक की भी योजना थी लेकिन भारत सरकार इसके पक्ष में नहीं थी क्योंकि उसे डर था कि सीमा पार आतंकियों पर की गई कोई भी कार्रवाई ‘पूर्ण युद्ध’ का रूप धारण कर सकती है।
किस बात का डर सता रहा था डॉक्टर सिंह को?
यहाँ इसका विश्लेषण करना आवश्यक है कि आख़िर क्या कारण था कि तत्कालीन यूपीए सरकार ने आतंकियों पर कार्रवाई करने की ज़रूरत नहीं समझी। क्या डॉक्टर मनमोहन सिंह को इस बात का डर था कि आतंकियों पर किए गए किसी भी प्रकार के हमले का पाकिस्तान कड़ा प्रत्युत्तर दे सकता है? जैसा कि पूर्व वायुसेना प्रमुख ने बताया, उन्हें ‘पूर्ण युद्ध’ का डर था। या तो डॉक्टर सिंह को सेना की तैयारी पर भरोसा नहीं था या फिर सेना के पास उचित संसाधन की कमी थी। दोनों ही स्थितियों में दोषी सरकार ही थी क्योंकि यह राजनेताओं का कार्य होता है कि सेना की भावनाओं को समझ कर उनकी ज़रूरतों के अनुरूप निर्णय लें।
एक ज़िंदगी की इतनी क़ीमत होती है कि उसका मोल नहीं चुकाया जा सकता। मुंबई हमले में तो लगभग पौने दो सौ लोग मारे गए थे। उरी हमले में हमारे 19 जवान वीरगति को प्राप्त हुए थे। उस दौरान भारत सरकार ने सेना के साथ उच्च स्तरीय समन्वय बना कर योजना तैयार की और उस पर अमल किया, जिस से बहुचर्चित सर्जिकल स्ट्राइक को अंजाम दिया जा सका। सेना वही थी, ब्यूरोक्रेसी भी वही थी लेकिन निर्णय लेने वाले लोग अलग थे। मोदी सरकार के पास राजनीतिक इच्छाशक्ति थी, जिससे सुरक्षाबलों की सलाह को ध्यान से सुना गया और उस पर अमल किया गया।
डॉक्टर सिंह के वक़्त ऐसा नहीं था। सर्जिकल स्ट्राइक तो दूर, सीमा पार आतंकियों पर छोटे-मोटे एयर स्ट्राइक करने से भी बचते रहे तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह का सेना के साथ समन्वय सही नहीं था। अतीत में एक साल में कम से कम 3-4 बार तीनों सेना प्रमुखों के साथ पीएम की बैठक हुआ करती थी। लेकिन डॉक्टर सिंह के कार्यकाल में ऐसा समय भी आया जब पूरे साल में (2011) उन्होंने तीनों सेनाओं के प्रमुखों से सिर्फ़ 1 बार मुलाक़ात की। वो भी उस दौर में, जब सेना के आधुनिकीकरण की बात चल रही थी। ऐसे में, सेना और सरकार का समन्वय न होना आतंकियों का मनोबल बढ़ाने वाला साबित हुआ।
आपको याद होगा कैसे यह ख़बर उछाली गई थी कि सेना की एक टुकड़ी दिल्ली में सत्तापलट के लिए निकल गई थी। बाद में जनरल वीके सिंह सहित सेना के कई उच्चाधिकारियों ने इसका खंडन किया। जिस सरकार के कार्यकाल में सेना पर ऐसे आरोप लगते रहे हों, उस समय सेना युद्ध या स्ट्राइक्स के लिए कैसे तैयारी कर पाएगी? अगर थोड़ा और पीछे जाएँ तो हम पाएँगे कि यह मानसिकता कॉन्ग्रेसी सत्ताधीशों में शुरू से रही है।
नेहरू के भारतीय सेना से थे तल्ख़ रिश्ते
कॉन्ग्रेस पार्टी की सरकार और भारतीय सेना के बीच के रिश्तों को समझने के लिए भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की लचर रक्षा नीति को देखना पड़ेगा। नेताजी सुभाष चंद्र बोस और सरदार वल्लभ भाई पटेल- ये दो ऐसे नेता थे जिन्हें सेना, मिलिट्री व रक्षा नीतियों की अच्छी समझ थी। बोस आज़ादी से पहले असमय चल बसे जबकि 1950 में सरदार के निधन के साथ भारत में एक राजनीतिक शून्य सा पैदा हो गया था। कैसे? इतिहास के इस उदाहरण से समझें- भारतीय सेना के पहले कमाण्डर-इन-चीफ सर रॉब लॉकहार्ट नेहरू के पास एक औपचारिक रक्षा दस्तावेज़ लेकर पहुँचे, जिसे पीएम के नीति-निर्देश की आवश्यकता थी, तो नेहरू ने उन्हें डपटते हुए कहा:
“बकवास! पूरी बकवास! हमें रक्षा नीति की आवश्यकता ही नहीं है। हमारी नीति अहिंसा है। हम अपने सामने किसी भी प्रकार का सैन्य ख़तरा नहीं देखते। जहाँ तक मेरा सवाल है, आप सेना को भंग कर सकते हैं। हमारी सुरक्षा ज़रूरतों को पूरा करने के लिए पुलिस काफ़ी अच्छी तरह सक्षम है।”
इस पर काफ़ी चर्चा हो चुकी है कि कैसे कश्मीर, हैदराबाद और फिर चीन युद्ध के दौरान नेहरू को इसी सेना का सहारा लेना पड़ा था। इसीलिए हम इस पर न जाकर अपने उसी मुद्दे पर चर्चा करेंगे कि क्या अगर कॉन्ग्रेसी सत्ताधीश पहले से ही सेना की सुनते, उनकी बात मानते और सैन्य संसाधनों की ज़रूरतें पूरी करने के साथ-साथ सरकार और सेना का समन्वय सही से बना कर रखते तो शायद आतंकियों या उनके पोषकों की हिम्मत ही नहीं होती कि भारत की भूमि पर ख़ूनी हमले करें।
हिंदुस्तान टाइम्स में शिव कुणाल वर्मा की पुस्तक के हवाले से बताया गया है कि कैसे जवाहरलाल नेहरू ने तत्कालीन सेना प्रमुख केएस थिमैया के ख़िलाफ़ साज़िश रची थी। उस पुस्तक में यह भी बताया गया है कि नेहरू सशस्त्र बलों के साथ कभी भी सहज नहीं थे। इसमें कहा गया है कि सार्वजनिक तौर पर तो नेहरू थिमैया की प्रशंसा करते लेकिन पीठ पीछे उनके ख़िलाफ़ साज़िश रचते थे।
Karnataka is synonymous with valour. But, how did the Congress Govts treat Field Marshall Cariappa and General Thimayya? History is proof of that. In 1948 after defeating Pakistan, General Thimayya was insulted by PM Nehru and Defence Minister Krishna Menon: PM Modi pic.twitter.com/OGOUaQDvEe
— ANI (@ANI) May 3, 2018
थिमैया यह जानते थे कि नेहरू को सेना पर तनिक भी भरोसा नहीं है। जम्मू-कश्मीर ऑपरेशन के दौरान अपने किरदार के लिए सम्मानित थिमैया के साथ देश के सबसे बड़े नेता का ऐसा व्यवहार दुःखद था। ऐसे में नेहरू से तंग जनरल थिमैया ने अपना इस्तीफ़ा पत्र लिख कर भेज दिया था। हालाँकि, इसे अस्वीकार कर दिया गया लेकिन बाद में इसका क्रेडिट भी नेहरू ने ही लूटा कि कैसे उन्होंने जनरल थिमैया को पद पर बने रहने के लिए मनाया।
अब भारत जवाब देता है क्योंकि…
अब भारत अपनी ज़मीन पर हुए हर एक आतंकी हमले का पुरजोर जवाब देता है, प्रत्युत्तर में आतंकियों को मार गिराता है व सीमा पार ऑपरेशन करने से भी नहीं हिचकता। यह सब इसीलिए संभव हो पाता है क्योंकि सरकार सेना की सुनती है, सुरक्षा बलों की सलाह को गंभीरता से लेती है व सेना का मनोबल बढ़ाने वाला कार्य करती है। सबसे बड़ी बात तो यह कि सरकार जनता के आक्रोश को भी समझती है और उचित निर्णय लेती है।
इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि सरकार आनन-फानन में कार्रवाई कर जनता के आक्रोश को ठंडा कर देती है। बात तो यह है कि सेना व संबंधित संस्थाओं को पूरी आज़ादी दी जाती है ताकि वो बिना किसी राजनीतिक हस्तक्षेप के अपनी कार्ययोजना तैयार कर सकें। सरकार और सेना का समन्वय सही है और प्रधानमंत्री अक्सर सेना के तीनों प्रमुखों से बैठक करते हैं।
अब भारत जवाब देता है क्योंकि अब हमारा सुरक्षा तंत्र किसी भी प्रकार के पलटवार के लिए तैयार बैठा है। अब भारत जवाब देता है क्योंकि प्रधानमंत्री सेना के अधिकारियों की सलाह को अनसुनी नहीं करते। अब भारत जवाब देता है क्योंकि पीएम सेनाध्यक्ष के पीठ पीछे उनके ख़िलाफ़ साज़िश नहीं रचते। अब भारत जवाब देता है क्योंकि राजनीतिक इच्छाशक्ति मजबूत है।