Saturday, April 20, 2024
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चंद कौड़ियों के लिए जब पादरी ने कर दिया था कैथोलिक लड़कियों का सौदा

जालंधर के बिशप फ्रांको मुलक्कल पर नन के बलात्कार के अभियोगों के बाद से तो जैसे गटर से कोई ढक्कन ही हट गया है। देखने लायक ये होगा कि स्थापित मीडिया किसका साथ देती है? क्या उसमें सच का साथ देने की हिम्मत बची भी है?

सोलह साल की लड़की को सिर्फ 150 पौंड के लिए बेच दिया गया। उस मासूम की आह, दर्द और कराह को किसी ने नहीं सुना, बस उसका शारीरिक-शोषण होता रहा।

पाँच दशक पहले की किसी वारदात पर खोजबीन करने निकलेंगे तो क्या हाथ आएगा? जिन मलयाली कैथोलिक लड़कियों ने मेट्रिक की परीक्षा पास कर ली हो, ऐसी लड़कियों को पादरियों ने रोजगार के अवसर के नाम पर बुलाना शुरू किया था। बीस लड़कियों का ऐसा पहला दल 1963 में केरल से विदेशों में भेजा गया और 1972 से इनके साथ दुर्व्यवहार की कहानियां सुनाई देने लगीं। ‘द गार्डियन’, ‘द टाइम्स’ और ‘वाशिंगटन पोस्ट’ जैसे अख़बारों/प्रकाशनों में जर्मनी भेजी गई इन लड़कियों की कहानियाँ आने से मामला प्रकाश में आया।

इसके बावजूद भारत में इनके बारे में कोई चर्चा करना किसी को ज़रूरी नहीं लगा। रॉयटर्स की फ़ेलोशिप के लिए लंदन गए फ़िल्मकार राजू ई राफ़ेल को सन 2000 में जब इसका पता चला तो उन्होंने इस विषय पर एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाने की सोची। के राजगोपाल के साथ मिलकर उन्होंने इस विषय पर ‘अरियाप्पेदथा जीवीथांगल’ नाम की डॉक्यूमेंट्री बनाई। इसे बनाना कोई आसान काम नहीं था, क्योंकि शुरूआती दलों में गईं कई लड़कियों की या तो मृत्यु हो चुकी थी, या लौटकर वो कहीं दूरदराज के क्षेत्रों में मिशनरी काम कर रही थीं।

पादरी ने किया था 16 साल की किशोरी का सौदा

सोलह साल की जिस लड़की को पादरी ने सिर्फ 150 पौंड के लिए बेच दिया हो, उस किशोरी की तकलीफ की कल्पना करना भी मुमकिन नहीं। जब फ़िल्मकार उन बची हुई ननों से मिले तो हालात काफ़ी बदल चुके थे। कुछ मलयाली ननें भावनात्मक मुश्किलों से उबर पाई थीं। उनमें से कुछ अब वहाँ की चर्च में ऊँचे ओहदों पर हैं। कई ऐसी भी थीं जिनका मानसिक स्वास्थ बिगड़ गया। मजहब के नाम पर हुए ऐसे शोषण के बारे में आम तौर पर भारत में कोई बात नहीं होती। अक्सर इसे अल्पसंख्यक समुदाय का विशेषाधिकार मान लिया जाता है।

फिल्म के लिए शोध करने का काम जोस पुन्नापरम्बिल के जिम्मे था। लम्बे समय जर्मनी में रहने के कारण उनकी जान पहचान भी अच्छी थी। उनका कहना है कि अनोखी बात ये है कि कभी चंद पाउंड के लिए जर्मनी भेजी जा रही मलयाली ननों का ही अब वहाँ के चर्च में दबदबा है। जर्मन लोग मज़हबी कामों में अब कम रूचि लेते हैं, इसलिए उनकी गिनती घटती जा रही है। सिर्फ शोषण की कहानी तक ही अपनी डॉक्यूमेंट्री को सीमित रखने के बदले राजू ई राफ़ेल ने कहानी का अंत तक पीछा किया।

जो ननें जर्मनी भेजी गई थीं, उनमें से कुछ अपने गाँव लौटकर अब सेवानिवृत्त जीवन बिताती हैं। उन्हें तलाशते हुए राजू महाराष्ट्र, केरल और मध्यप्रदेश के गावों तक पहुँच गए। चालीस मिनट की इस फिल्म की विश्वसनीयता इसलिए भी बढ़ जाती है क्योंकि फ़िल्मकार ने शुरुआती बैच में गई कई ननों से मुलाकात और बातचीत भी रिकॉर्ड कर रखी है। ये एक ऐसी पुरानी कहानी है जो न चाहते हुए भी बार-बार उभर आती है।

‘स्पॉटलाइट’ फिल्म से सामने आया था पादरियों का काला कारनामा

दुनिया भर में चर्च के कैथोलिक पादरियों द्वारा किए जा रहे यौन-शोषण पर कुछ साल पहले ‘स्पॉटलाइट’ नाम की फिल्म बनी थी। ऑस्कर जीतने वाली ये फ़िल्म मुख्य धारा की चर्चा में कभी नहीं आई। “बॉस्टन ग्लोब” के शोध के आधार पर बनी इस फ़िल्म के पहले और बाद में कैथोलिक चर्च सिर्फ यौन शोषण के मामलों में करोड़ों का जुर्माना भर चुका है।

हाल ही में भारत में भी ऐसे मामले प्रकाश में आने लगे हैं। गौर करने लायक ये भी है कि ऐसे मुद्दों पर जब बरसों पहले सिस्टर जेसमी ने “ऐमन” (Amen) नाम की किताब लिखी थी तब उन्हें और उनकी किताब को चौतरफा विरोध झेलना पड़ा था।

भारत में ननों के शारीरिक शोषण पर आवाज़ उठाने का मतलब सांप्रदायिक होना क्यों?

भारत में आमतौर पर ननों के बलात्कार जैसे मामलों को भी सांप्रदायिक रंग देकर बहुसंख्यक समुदाय को नीचा दिखाने का प्रयास किया जाता रहा है। झाबुआ नन बलात्कार काण्ड (1998) में भी तब के मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री ने ऐसा करने की कोशिश की थी। बाद में पता चला कि बलात्कारियों में से 12 तो स्थानीय ईसाई आदिवासी ही थे! करीब-करीब ऐसा ही हाल में एक वृद्ध नन के बलात्कार के मामले में हुआ था। इस मामले में बाद में बंगलादेशी घुसपैठिए गिरफ्तार कर लिए गए। गिरफ्तारियों से पहले तक जॉन दयाल जैसे एवेंजलिस्ट इसके लिए हिन्दुओं को कसूरवार बताते रहे थे।

जालंधर के बिशप फ्रांको मुलक्कल पर नन के बलात्कार के अभियोगों के बाद से तो जैसे गटर से कोई ढक्कन ही हट गया है। देखने लायक ये होगा कि स्थापित मीडिया किसका साथ देती है? क्या उसमें सच का साथ देने की हिम्मत बची भी है? स्थापित किए गए नैरेटिव के सुविधाजनक माहौल में आराम से बैठकर खुद को निष्पक्ष घोषित करने का विकल्प भी खुला ही है!

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Anand Kumar
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