आपने अनिल पाठक का नाम सुना है। शायद नहीं। वे इस वक्त पटना के इंदिरा गॉंधी आयुर्विज्ञान संस्थान (IGIMS) में डायलिसिस से अपनी खून साफ करवाकर जिंदा रहने की कोशिश कर रहे हैं। गुमनाम से पाठक सन् 80 में पहली बार चर्चा में आए थे। बिहार के कॉन्ग्रेसियों ने उनके खून से चिट्ठी लिखकर इंदिरा गॉंधी को अपनी वफादारी साबित की थी। कालांतर में पाठक दूसरे दलों में रहे। कुछ साल नीतीश कुमार के भी करीब रहे। लेकिन, आज जीवन की लड़ाई अकेले लड़ रहे हैं।
इस घटना के कुछ साल बाद ही सन् 82 में करीब दो महीने के लिए कॉन्ग्रेस असम में एक शख्स को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठाती है। नाम: केशब चंद्र गोगोई। पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई के पिता। गुरुवार यानी 19 मार्च 2020 को जब पूर्व सीजेआई गोगोई राज्यसभा सदस्य के तौर पर शपथ लेने पहुँचे तो विपक्षी सदस्यों ने उच्च सदन में हंगामा किया। शेम-शेम के नारे लगाए। सदन से वॉक आउट किया।
गोगोई से विपक्ष की नाराजगी को समझने से पहले 1998 में आई फिल्म चाइना गेट के विलेन जागीरा का एक डायलॉग सुनते हैं;
आगे बढ़ते हैं। ऐसा नहीं है कि रंजन गोगोई से कॉन्ग्रेस, लिबरलों और सेकुलरों को पुरानी चिढ़ है। ये बीमारी नई है। 12 जनवरी 2018 को एक ऐतिहासिक प्रेस कॉन्फ्रेंस में दिखने के बाद तो गोगोई इस जमात की आँखों के तारे थे। उनकी चिंता में पूरा जमात दुबला हुआ जा रहा था। आशंका जता रहा था कि नंबर होने के बावजूद उन्हें देश का अगला मुख्य न्यायाधीश नहीं बनने दिया जाएगा। उनके सीजेआई बनने पर कॉन्ग्रेस के इस ट्वीट पर गौर करिए;
We welcome the appointment of Justice Ranjan Gogoi as the Chief Justice of India. We hope that during his tenure he will continue to push the cause of justice as he has done previously in his career. pic.twitter.com/nM2wJ4dBmP
— Congress (@INCIndia) September 13, 2018
फिर ऐसा क्या हुआ कि गोगोई से आज इतनी चिढ़ है? असल, गोगोई के कार्यकाल में कई महत्वपूर्ण फैसले हुए। राफेल से लेकर अयोध्या मामले तक। लेकिन, इसमें से किसी भी फैसले से जमात को ‘इंसाफ’ होता नहीं दिखा, क्योंकि उनके लिए न्याय का मतलब कानून की किताब से फैसला नहीं है। उनके लिए जस्टिस का मतलब है उनकी मर्जी के अनुसार फैसला। उन्हें उम्मीद थी कि गोगोई मोदी सरकार को कुचल देंगे। लेकिन, उन्होंने अदालत के सामने मौजूद तथ्यों के अनुसार फैसला दिया। उन्हें उम्मीद थी कि गोगोई कॉन्ग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गॉंधी को आम चुनावों में राफेल में उड़ान भरने के लिए ईंधन देंगे, लेकिन उन्होंने शीर्ष अदालत का गलत हवाला देने की वजह से गॉंधी परिवार के चिराग को तलब कर लिया। माफी मॉंगने के बाद ही छोड़ा। वे उम्मीद कर रहे थे कि गोगोई की अगुवाई वाला पीठ अयोध्या से रामलला को बेदखल करने की नेहरू की लाइन पर चलेगा। लेकिन, उन्होंने पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर फैसला दे दिया।
बात बस इतनी सी है। वरना न तो राष्ट्रपति ने पहली बार राज्यसभा के लिए किसी को मनोनीत किया और न ही पहली बार कोई पूर्व मुख्य न्यायाधीश संसद के उच्च सदन में पहुॅंचा है। बहरुल इस्लाम से लेकर रंगनाथ मिश्रा तक ऐसे कई उदाहरण आपको मिल जाएँगे। सबके सब कॉन्ग्रेसी राज के। लेकिन, गोगोई पर रंगनाथ मिश्रा की तरह सिख दंगा पीड़ितों की बात नहीं सुनने का आरोप नहीं है। परिवार के प्रति उनकी वफादारी बहरुल इस्लाम जैसी नहीं है। इसलिए, गोगोई उन्हें खटकते हैं।
पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त को कैबिनेट मंत्री, पूर्व जज को उपराष्ट्रपति, राज्यपाल तक बनाने वाली कॉन्ग्रेस को असल में राज्यसभा में मनोनयन को भी उसकी तरह रेवड़ी की तरह बॉंटने की आदत रही है, जैसे उसने पद्म पुरस्कारों समेत तमाम सम्मान में दिखाया है। उसे न तो इन पुरस्कारों का समान भारतीय की दहलीज तक पहुॅंचना बर्दाश्त है, न उच्च सदन में न्यायपालिका की ऐसी आवाज का पहुॅंचना जो खम ठोंक कहता हो- राष्ट्रपति द्वारा मुझे राज्यसभा भेजने के इस फैसले को मैं स्वीकार करता हूँ। यह एक अवसर है, जहाँ से मैं चौथे स्तंभ का पक्ष और उनकी बातों को संसद में रख सकता हूँ। वहीं संसद की बात को भी न्यायपालिका के सामने रखने का मौका है। जब उनसे पूछा जाता है कि क्या वह भाजपा में जाएँगे? तो उनका जवाब होता है- इसका कोई सवाल ही नहीं उठता।
I don’t want to comment on them: Former Chief Justice Ranjan Gogoi to ANI on being asked about opposition’s protest against him in Rajya Sabha during his oath today. (File pic) https://t.co/u3o2plxbod pic.twitter.com/2xQWJeuUXx
— ANI (@ANI) March 19, 2020
ऐसा नहीं है कि लोकतांत्रिक और संवैधानिक मूल्यों को कॉन्ग्रेस केवल गोगोई के मामले में कुचलने की कोशिश कर रही है। हर जगह, हर मौके पर ऐसा करना उसकी आदत में शुमार है। मध्य प्रदेश का सियासी ड्रामा इससे अलग नहीं है। 22 विधायकों के इस्तीफे के बाद कॉन्ग्रेस सरकार बहुमत खो चुकी है। इस बात को बखूबी जानते हुए भी वह तीन-तिकड़म में लगी है। वरना, जो नियम इन 22 में से 6 के इस्तीफे स्वीकार करने की इजाजत विधानसभा के स्पीकर को देता है, वही अन्य 16 के इस्तीफे स्वीकार करने में कैसे आड़े आ रहा है?
इसलिए, कॉन्ग्रेस को मजबूत करना लोकतंत्र के लिए जरूरी है, जैसे तर्क बेमानी हैं। असल में कॉन्ग्रेस एक बीमारी है। इससे देश को जितनी जल्दी निजात मिल जाए उतना बेहतर। देश रहेगा तो लोकतंत्र भी बचेगा और संविधान भी। कोशिश तो ये उसे भी कुचलने की कर चुके हैं। लेकिन, उस वक्त विपक्ष के तौर पर जनता खड़ी हुई और लोकतंत्र का सूरज आपातकाल की कैद से निकला। सो, खुद विपक्ष बनिए। लोकतंत्र की आवाज बनिए। इस बीमारी के भरोसे लोकतंत्र को मजबूत करने के बेतुके तर्कों से निकलिए। अब फिर से जागीरा के डॉयलॉग को याद करिए। क्या जमात आपसे कह रही है- जनादेश तो तुम दे दोगे, पर कमीनापन कहॉं से लाओगे…