एक पोस्ट…
“स्टेशन पर ट्रेन जैसे ही रुकी, जुमे की नमाज़ के बाद 700 मुस्लिमों की भीड़ बगल की एक मस्जिद से निकली। असामाजिक तत्वों ने रेलवे लाइन को पूरी तरह ब्लॉक कर दिया। उनके हाथों में कैब और एनआरसी विरोधी पोस्टर्स थे। दंगाइयों में अधिकतर युवा थे, कई तो 7-8 साल के बच्चे भी थे। उनके हाथों में डंडे, पत्थर और रॉड थे। सबसे पहले उन्होंने ‘हमसफ़र एक्सप्रेस’ की खिड़कियों को तोड़ा। इसके बाद हमारे ट्रेन पर पत्थरबाजी शुरू की। दंगाई भीड़ रॉड से खिड़कियों को तोड़ते हुए यात्रियों को डरा-सहमा देख कर ठहाके लगा रही थी।”
ये वकील शंखदीप सोम के शब्द हैं। वे शुक्रवार (दिसंबर 13, 2019) को हावड़ा-चेन्नई एक्सप्रेस में सवार थे। ट्रेन जब पश्चिम बंगाल के उलूबेरिया स्टेशन पर पहुॅंची तो जो कुछ हुआ वह उन्होंने फेसबुक पर लिखा है। इसे आप भक्त की भड़ास समझें इससे पहले बता दूॅं कि ट्रेन पर पत्थरबाजी से चंद घंटे पहले ही सोम ने सोशल मीडिया में पीएम मोदी का मजाक उड़ाते हुए कथित स्टैंड-अप कॉमेडियन कुणाल कमरा का पोस्ट शेयर किया था। दंगाइयों से बचने के कुछ घंटे बाद ही सोम दोबारा से लिबरल भी हो गए।
एक वीडियो…
फरहाद हकीम पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता के मेयर हैं। सत्ताधारी तृणूमल कॉन्ग्रेस के नेता हैं। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के करीबी बताए जाते हैं। मुस्लिम दंगाई भीड़ से सरकारी संपत्ति को नुकसान नहीं पहुॅंचाने की अपील करते हुए उनका एक वीडियो आया है। इसमें वे कहते सुनाई पड़ रहे हैं, “राज्य में NRC और CAA लागू नहीं किया जाएगा। हमें बंगाल के लोगों की सार्वजनिक सम्पत्ति को नुक़सान नहीं पहुँचाना चाहिए। अगर ऐसा किया जाएगा तो फिर वो लोग अमित शाह का समर्थन करना शुरू कर देंगे। अगर उनमें से 70% लोग अमित शाह का समर्थन करते हैं, तो जब बीजेपी यहाँ सत्ता में आ जाएगी तो आप अपना सिर नहीं उठा सकेंगे जैसा वो (बीजेपी) उत्तर प्रदेश में करते हैं।”
एक फैक्टर…
हैदराबाद के सांसद असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम ने 2021 बंगाल विधानसभा चुनाव लड़ने की घोषणा की है। पार्टी प्रवक्ता असीम वक़ार ने पिछले दिनों ममता बनजी को को चेताते हुए कहा था, “ये सही है कि हम संख्या में कम हैं लेकिन लेकिन कोई हमें छूने की भी हिम्मत न करे। हमलोग एटम बम हैं। दीदी (ममता बनर्जी), हमें आपकी दोस्ती भी पसंद है और हम आपकी दुश्मनी का भी स्वागत करते हैं। अब ये आपके ऊपर है कि आप हमें अपना दोस्त समझती हैं या फिर दुश्मन।”
माना जा रहा है कि बंगाल में दंगाइयों से ममता की नरमी का एक कारण यह भी है। ऐसा कर ममता विधानसभा चुनाव से पहले मुस्लिम वोट बैंक को रिझाना चाहती हैं। लेकिन, उनका खेल बिगाड़ने के लिए ओवैसी को पूरे मुस्लिम वोट बैंक की ज़रूरत नहीं है। माना जा रहा है कि यदि वे 5% के आसपास वोट शेयर हासिल करने में कामयाब रहे तो भी भाजपा को बड़ा फायदा मिलेगा।
एक सवाल…
क्या नागरिकता संशोधन कानून यानी CAA और नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस यानी NRC का विरोध ममता बनर्जी केवल मुस्लिम वोट बैंक को बचाने के लिए कर रही हैं? बांग्लादेशी घुसपैठियों को बाहर निकालने के लिए कुछ साल पहले वे संसद में भी आवाज बुलंद कर चुकी हैं। फिर आज उनकी ढाल क्यों बनना चाहती हैं? क्या वह मुस्लिम वोटों में विभाजन से डरी हैं? या इसकी कुछ और भी वजहें हैं?
ठाकुरबाड़ी का जवाब…
कोलकाता से करीब 76 किलोमीटर दूर उत्तर 24 परगना जिले में बांग्लादेश की सीमा से सटे बनगांव स्थित ठाकुरनगर की ठाकुरबाड़ी में इसका जवाब छिपा है। CAA से यहाँ जश्न है और ‘हर-हर मोदी’ की गूँज सुनाई पद रही है।
आखिर यहाँ CAA से इतना हर्षोल्लास क्यों है? दरसअल, ठाकुरबाड़ी में मतुआ समुदाय के लोग रहते हैं। 1971 से लेकर अब तक कोई सरकार उन्हें भारतीय नागरिकता नहीं दिलवा पाई। उनके सिर पर बांग्लादेशी हिंदू शर्णार्थियों का टैग चिपका रहा। CAA ने उनका यह मलाल दूर कर दिया है। रहा।
बेचैनी की वजह
अब ऐसी स्थिति में जब भाजपा ने ठान लिया है कि वो दूसरे देश के अल्पसंख्यकों को पहचान देंगे, उस समय ममता बनर्जी द्वारा विरोध बताता है कि वो इस कानून के समर्थन में वे कभी नहीं थीं। वे बस इस समुदाय का फायदा उठाकर राज्य में अपनी सरकार खड़ी करना चाहतीं थीं जो उन्होंने किया भी। लेकिन अब उनकी ये नीति नहीं चल पाएगी, क्योंकि सीएए के आने के बाद ठाकुरबाड़ी में नरेंद्र मोदी के नारों ने 2021 के चुनावों की तस्वीर साफ कर दी। इसस पहले बता दें कि परिसीमन के बाद वर्ष 2009 में वजूद में आई इस सीट पर शुरू से ही तृणमूल कांग्रेस का कब्जा रहा है। यहाँ मतुआ समुदाय के वोट निर्णायक हैं। मतुआ समुदाय की कुलमाता कही जाने वाली वीणापाणि देवी का आदेश यहाँ पत्थर की लकीर मानी जाती है। बीते दिनों उनकी मौत के बाद पारिवारिक मतभेद सतह पर आ गए और मतुआ वोट दो हिस्सों में बँट गए।इसका फायदा लोकसभा में भाजपा को हुआ और ठाकुरबाड़ी के शांतनु ठाकुर ने यहाँ से जीत दर्ज कराई। अब फिर वहीं परिस्थितियाँ बनती नजर आ रही हैं।
मतुआ का प्रभाव
मतुआ समुदाय मूल रूप से पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) का है। विभाजन के बाद धार्मिक शोषण से तंग आकर 1950 की शुरुआत में ये लोग यहाँ आए थे। हालाँकि,इस समुदाय को लेकर कोई आधिकारिक आँकड़ा नहीं है, लेकिन इस संप्रदाय के बारे में कहा जाता है कि ये बंगाल में 70 लाख की जनसंख्या के साथ बंगाल का दूसरा सबसे प्रभावशाली अनुसूचि जनजाति समुदाय है। उत्तर व दक्षिण 24 परगना तथा नदिया जिलों की कम से कम 6 संसदीय सीटों पर यह निर्णायक स्थिति में हैं। अनुमान के मुताबिक राज्य के विभिन्न जिलों में इनकी आबादी लगभग 1 करोड़ हैं, जिसके अनुसार 294 विधानसभा में से कम से कम 74 सीटों पर यह निर्णायक भूमिका निभाते हैं। यही वजह है कि मोदी ने फरवरी की अपनी रैली के दौरान वीणापाणि देवी से मुलाकात कर उनका आशीर्वाद लिया था। यह समुदाय पहले लेफ्ट को समर्थन देता था और बाद में वह ममता बनर्जी के समर्थन में आ गया। लेकिन अब पासा फिर पलटने के आसार हैं। माना जाता है कि पिछली बार ममता बनर्जी के सत्ता में आने के पीछे मतुआ समुदाय के वोटर्स का बड़ा हाथ था।