राजस्थान में जारी सियासी ड्रामे के बीच एक नाम अचानक से उभर कर सामने आया है। यह नाम है सीपी जोशी का। वे राजस्थान विधानसभा के अध्यक्ष हैं। उन्होंने सचिन पायलट और उनके साथी 18 विधायकों को एक नोटिस थमाया है।
यह नोटिस पार्टी ह्विप का उल्लंघन कर बैठक में शामिल नहीं होने पर उनकी सदन की सदस्यता खत्म करने से जुड़ी है। पायलट सहित 19 विधायकों ने इसे हाई कोर्ट में चुनौती दे रखी है।
वैसे भी जब इस तरह की सियासी स्थिति उत्पन्न होती है तो स्पीकर की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण हो जाती है। कर्नाटक और मध्य प्रदेश में हाल में ही हम देख चुके हैं कि स्पीकर ने सरकार बचाने के लिए अंत तक प्रयास किए थे। हालॉंकि अदालत के दखल के बाद दोनों जगहों पर कॉन्ग्रेस और उसके सहयोगी दल की सरकार को अल्पमत में होने की वजह से जाना पड़ा।
अतीत के इन अनुभवों पर गौर करें तो जान पड़ता है कि राजस्थान की इस सियासी उठा-पटक के कई पन्ने अभी लिखे जाने शेष हैं। लेकिन, जो सीपी जोशी आज अशोक गहलोत की सरकार के तारणहार की भूमिका में दिख रहे हैं, वे भी कभी उसी तरह खुद को ठगे महसूस कर रहे थे, जैसा 2018 में सचिन पायलट के साथ हुआ था।
पायलट और जोशी के राजनीतिक सफर में कई समानताएँ हैं। दोनों को राजस्थान कॉन्ग्रेस की कमान पार्टी की करारी शिकस्त के बाद मिली थी। दोनों पॉंच साल इस मोर्चे पर लगातार लगे रहे और अगले चुनाव में राज्य की सत्ता में पार्टी को लाकर ही ठहरे। दोनों के कार्यकाल के दौरान प्रदेश की सियासत में गहलोत की सक्रियता कम ही रही। लेकिन, दोनों ही मौकों पर गहलोत विजेता बनकर उभरे और मुख्यमंत्री पद पर शीर्ष नेतृत्व ने उनकी ही ताजपोशी की।
हालॉंकि पायलट और जोशी के बीच एक फर्क है। पायलट चुनाव जीतकर भी सीएम पद तक नहीं पहुॅंच पाए, जबकि जोशी अपने जीवन के सबसे निर्णायक चुनाव में खुद हार गए। हार हुई भी तो केवल एक वोट से।
1998 में जब गहलोत ने राजस्थान में सरकार बनाई तो जोशी भी उनकी कैबिनेट में थे। 2003 के विधानसभा चुनाव में कॉन्ग्रेस को हार झेलनी पड़ी। इसके बाद जोशी प्रदेश अध्यक्ष बनाए गए। वे शीर्ष नेतृत्व के खास माने जाते थे। यहॉं तक कि 2008 के विधानसभा चुनाव के दौरान यह तय माना जा रहा था कि सत्ता में पार्टी की वापसी हुई तो जोशी ही मुख्यमंत्री होंगे। चुनाव प्रचार के दौरान राहुल गॉंधी ने भी कई मौकों पर इसके संकेत दिए।
कहा तो यह भी जाता है कि जोशी ने शपथ लेने की तैयारियाँ भी शुरू कर दी थी। वैसे भी राजस्थान की परंपरा 5 साल पर सत्ता बदलने की भी रही है। लेकिन, ऐन मतगणना के दिन जोशी की किस्मत उनसे रूठ गई। नाथद्वारा सीट से चुनाव लड़ रहे जोशी को 62215 वोट मिले। उनके प्रतिद्वंद्वी बीजेपी उम्मीदवार को कल्याण सिंह चौहान को मिले 62216 वोट।
यानी एक वोट से किस्मत ने जोशी को धोखा दे दिया। बाद में यह बात सामने आई कि जोशी की पत्नी ने भी मतदान नहीं किया था। मीडिया रिपोर्टों के अनुसार खुद जोशी ने इस बारे में कहा था, “हॉं यह सच है। उस दिन मेरी पत्नी और बेटी मंदिर गई हुई थी। इस वजह से वे मतदान नहीं कर पाई थीं।”
नाथद्वारा वो सीट थी जहॉं से 2008 का चुनाव हारने से पहले जोशी चार बार 1980, 1985, 1998 और 2003 के चुनावों में जीत हासिल कर चुके थे। इतना ही नहीं कुछ महीने बाद जब 2009 में आम चुनाव हुए तो राजस्थान के भीलवाड़ा से ही जोशी ने फिर शानदार जीत हासिल की। केंद्र में मंत्री भी बने। कई राज्यों का पार्टी ने प्रभार भी दिया। लेकिन, वह मौका चूकने के बाद जोशी कभी सीएम रेस में शामिल तक नहीं हो पाए।