Wednesday, October 16, 2024
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सलमान रुश्दी की किताब पर सबसे पहले भारत ने ही लगाया था बैन, मुस्लिम तुष्टिकरण में अव्वल थी राजीव गाँधी सरकार: आज तक भड़क रही वो आग

इस किताब को बैन करने का अभियान उस समय कॉन्ग्रेस के सांसद सैयद शहाबुद्दीन और खुर्शीद आलम खान (सलमान खुर्शीद के अब्बा) ने चलाया था। CNN के फरीद जकारिया के अब्बा रफीक जकारिया भी इस किताब को बैन करने के अभियान में सबसे आगे थे।

प्रसिद्ध लेखक सलमान रुश्दी (Salman Rushdie) पर शुक्रवार (13 अगस्त, 2022) पर न्यूयॉर्क में एक कार्यक्रम से पहले हमला कर दिया गया। हादी मतार नाम के संदिग्ध ने कई बार चाकू मार कर रुश्दी को गंभीर रूप से घायल कर दिया। फरवरी 1989 में ईरान के अयातुल्ला खुमैनी ने उनकी पुस्तक ‘द सेटेनिक वर्सेज’ को लेकर उनके खिलाफ फतवा जारी किया था। ये भी जानने लायक है कि रुश्दी की किताब को बैन करने वाला पहला देश ईरान, नहीं बल्कि भारत था। अक्टूबर 1988 में सबसे पहले भारत ने इस किताब को बैन कर दिया था।

रुश्दी पर हुए हमले के बाद से एक बार फिर से किताब ‘द सेटेनिक वर्सेज सुर्खियों में आ गई है। यही वो किताब है, जिसके कारण रुश्दी की जान पर 3 दशक से खतरा मँडरा रहा है। ईरान के अयातुल्ला खुमैनी ने 14 फरवरी, 1989 को उनके खिलाफ फतवा जारी किया था। भारत की राजीव गाँधी सरकार ने इसे सबसे पहले बैन कर के अपने ‘मुस्लिम तुष्टिकरण’ वाला रवैया दिखाया।

उस समय के भारत के प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने 1985 में शाह बानो केस में सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलट कर पहले ही जता दिया था कि उनकी सरकार इस्लामी कट्टरपंथियों के सामने झुकी हुई है। इसके बाद ‘द सेटेनिक वर्सेज’ को बैन करके उन्होंने इस्लामवादियों के सामने अपनी गर्दन फिर झुका ली। दिलचस्प बात ये है कि भारत ने कभी भी पुस्तक पर एकमुश्त प्रतिबंध नहीं लगाया, इसकी बजाए, ‘सीमा शुल्क अधिनियम’ के तहत पुस्तक के आयात पर बैन लगाते हुए, वित्त मंत्रालय के माध्यम से किताब को प्रतिबंधित कर दिया गया।

इतना ही नहीं, कॉन्ग्रेस सरकार ने रुश्दी के भारत आने पर भी रोक लगा दी। हालाँकि, इस फैसले को 11 साल बाद 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने हटा दिया।

‘द सेटेनिक वर्सेज’ किताब को पहली बार 26 सितंबर, 1988 को ब्रिटेन में पब्लिश किया गया था। भारत ने इसके आयात पर 10 दिनों के अंदर बैन लगा दिया था। इसके बाद भी किताब की कुछ प्रतियाँ भारतपहुँच चुकी थीं, लेकिन हाल के दिनों में नूपुर शर्मा के समर्थकों का हश्र देखने के बाद हम समझ सकते हैं कि उस समय कोई सामने आकर अपने पास इस किताब की प्रति होने की बात क्यों नहीं स्वीकार रहा था।

इस किताब को बैन करने का आह्वान उस समय कॉन्ग्रेस के सांसद सैयद शहाबुद्दीन और खुर्शीद आलम खान (सलमान खुर्शीद के अब्बा) ने किया था। शहाबुद्दीन ने किताब के खिलाफ एक याचिका दायर की थी। याचिका में इस पुस्तक को सार्वजनिक व्यवस्था के लिए खतरा बताया गया था। जिसके बाद इस किताब पर बैन लगा दिया गया था। CNN के फरीद जकारिया के अब्बा रफीक जकारिया भी इस किताब को बैन करने के अभियान में सबसे आगे थे।

राजीव गाँधी जैसे कमजोर प्रधानमंत्री ने वही किया, जो उनसे अपेक्षित था। अपनी पार्टी के मुस्लिम सांसदों के दबाव में आकर उन्होंने किताब पर प्रतिबंध लगा दिया। इससे वो आग लगी, जो आज तक जल रही है। भारत में किताब बैन होने के बाद सूडान, बांग्लादेश, श्रीलंका और दक्षिण अफ्रीका में भी इस किताब पर प्रतिबंध लगा दिया गया।

ब्रिटेन, जहाँ ये किताब पहली बार पब्लिश हुई थी, वहाँ इसके खिलाफ बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुआ था। किताब की प्रतियों में आग लगा दी गई थी। इसके बावजूद तत्कालीन प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर की सरकार ने इस किताब को बैन करने से इनकार कर दिया था। ये विरोध जल्द ही पाकिस्तान और उसके बाद अमेरिका में भी फैला।

जब ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्ला खुमैनी ने देखा कि विश्व स्तर पर इस पुस्तक का जबरदस्त विरोध हो रहा है तो वो भी इस विवाद में कूद पड़े। उन्होंने इसके लेखक और प्रकाशकों के खिलाफ फतवा जारी कर दिया। इसके बाद ईरान ने रुश्दी के सिर पर 6 मिलियन डॉलर (अब के 47.77 करोड़ भारतीय रुपए) के इनाम घोषित कर दिया।

फतवे का कोई ‘एक्सपायरी डेट’ तो था नहीं, इसलिए वो आज तक मान्य है। हो सकता है कि इस फतवे ने ही हमलावर हादी मतार को रुश्दी पर हमले के लिए प्रेरित किया हो। अक्टूबर 1988 में राजीव गाँधी ने ‘द सेटेनिक वर्सेज’ को बैन करके जो चिंगारी धधकाई थी, वही आज भी असहिष्णुता की आग को भी भड़का रही है।

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ऑपइंडिया स्टाफ़
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कार्यालय संवाददाता, ऑपइंडिया

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