कश्मीरी पंडितों के साथ 90 के दशक में हुई इस्लामी बर्बरता को छिपाने के लिए केरल कॉन्ग्रेस समेत कई सेकुलरवादी राज्य के तत्कालीन राज्यपाल जगमोहन मल्होत्रा को जिम्मेदार बता रहे हैं। दावा किया जा रहा है कि जगमोहन आरएसएस से थे और वीपी सरकार में उन्हें ही कश्मीर भेजा गया था जिसके बाद हिंदुओं का सारा पलायन हुआ।
भाजपा पर या राज्यपाल रहे जगमोहन पर ये गंभीर आरोप हाल फिलहाल के नहीं हैं। लंबे समय से इस्लामी कट्टरपंथियों के बचाव में ये तर्क पेश किए जाते रहे और आज द कश्मीर फाइल्स आने के बाद फिर से यही सब शुरू हो गया है। केरल कॉन्ग्रेस के ट्विटर से खुलेआम पूरे नरसंहार का ठीकरा बीजेपी पर फोड़ा गया और जनता को भ्रमित करने का काम हुआ। इसके बाद कई कॉन्ग्रेसी अपनी थ्योरी लेकर आए।
इससे पहले कोई इन कॉन्ग्रेसियों द्वारा गढ़े तर्क में 1 प्रतिशत की सच्चाई खोजे कुछ तथ्य उसे मालूम होने चाहिए। सबसे पहले तो जैसा कि कॉन्ग्रेस ने जगमोहन पर दावा किया कि उनके आने के बाद पलायन होना शुरू हुआ, उस बिंदु की हकीकत यह है कि जगमोहन बतौर जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल बनकर 21 जनवरी 1990 को श्रीनगर पहुँचे थे लेकिन कश्मीरी पंडितों का पलायन 1988-89 से शुरू हो गया था।
दूसरी बात ये कि जैसा कॉन्ग्रेस समझा रही है कि जगमोहन भाजपा के, आरएसएस के, वीपी सरकार के नुमाइंदे थे और उनके जाने से घाटी में आतंक फैला…तो सच्चाई ये है कि भाजपा का दामन उन्होंने कुछ साल बाद थामा उससे पहले वह कॉन्ग्रेस के चहेते थे और आपातकाल के दौरान इंदिरा गाँधी-संजय गाँधी के दुलारों में से एक थे।
एक बात और गौर करिए कि पहली बार जगमोहन को जम्मू-कश्मीर का राज्यपाल नहीं बनाया गया था, खुद इंदिरा गाँधी ने उन्हें पहली बार जम्मू-कश्मीर का राज्यपाल तब बनाया था। जब वह फारूख अब्दुल्ला को हटाकर उनके बहनोई गुल शाह को मुख्यमंत्री बनाना चाहती थीं। रिश्ते में इंदिरा के भाई तत्कालीन राज्यपाल बीजू नेहरू ने ऐसा करने से इनकार कर दिया तो उनकी जगह जगमोहन लाए गए जो 1989 तक अपने पद पर रहे।
इसके बाद 1990 में वे दोबारा राज्यपाल बने। तब केन्द्र में वीपी सिंह की सरकार थी और वह भाजपा के समर्थन से चल रही थी। यह भी सच है कि उनके इस कार्यकाल में कश्मीरी पंडितों का बड़े पैमाने पर पलायन हुआ। लेकिन, उसका दूसरा पहलू ऊपर वाला भी है कि उनके राज्यपाल बनने से पहले 1987-88 से ही पंडितों ने घाटी छोड़ना शुरू कर दिया था।
14 सितंबर 1989 को भाजपा नेता पंडित टीका लाल टपलू की निर्मम हत्या कर दी गई थी। इसके कुछ समय बाद ही जज नीलकंठ गंजू की हत्या कर दी गई। गंजू ने जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के नेता मकबूल भट्ट को मौत की सजा सुनाई थी। जुलाई से नवंबर 1989 के बीच 70 अपराधी जेल से रिहा किए गए थे। घाटी में हमें पाकिस्तान चाहिए। पंडितों के बगैर, पर उनकी औरतों के साथ जैसे नारे लग रहे थे। ऐसे माहौल में श्रीनगर पहुॅंचे जगमोहन ने कश्मीरी पंडितों को घाटी से सुरक्षित निकलने का मौका मुहैया कराया, जिसके लिए कश्मीरी पंडित उन्हें आज भी अपना मसीहा मानते हैं और उनके प्रयासों की सराहना करते हैं।
मालूम हो कश्मीर में आए इस दौर के बीतने के कुछ साल बाद जगमोहन भाजपा में शामिल हुए थे और वाजपेयी सरकार में मंत्री बने थे। ऐसे में जाहिर है कि उन्हें कॉन्ग्रेस की नजरों में विलेन बनना ही था। एक ऐसा विलेन जिसके निधन के बाद भी कॉन्ग्रेस उस पर दाग लगाने से पीछे नहीं हट रही और खुद इस्लामी आतंकियों के कुकर्मों को छिपाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रही जबकि सच्चाई ये है कुछ परिवारों की गलती से बदतर हुए हालात पर काबू पाने के लिए जगमोहन दूसरी बार श्रीनगर भेजे गए।
परिवारों की साठ-गाँठ और घाटी में कट्टरपंथ
जी हाँ, शुरुआत में जब पाकिस्तानी कबायली सेना ने हमला किया तो कश्मीर के महाराजा हरि सिंह (उनके बेटे कर्ण सिंह कॉन्ग्रेस के वरिष्ठ नेता हैं) ने भारत के साथ विलय की संधि की। तब, शेख अब्दुल्ला कश्मीर के प्रधानमंत्री बने जिन्हें नेहरू का समर्थन हासिल था। बाद में दोनों के रिश्तों में कड़वाहट आ गई। 1953 में अब्दुल्ला गिरफ्तार कर लिए गए।
फिर इंदिरा गाँधी का दौर आया। नेहरू की बेटी इंदिरा ने शेख अब्दुल्ला से सुलह कर ली। उन्हें 1975 में कश्मीर का मुख्यमंत्री बनाया। यह रिश्ता इंदिरा ने शेख अब्दुल्ला के बेटे फारूक के साथ भी शुरुआत में निभाया। फिर इंदिरा ने 1984 में कैसे फारूख को हटाकर गुल शाह को सीएम बनवाया। शाह ने जम्मू के न्यू सिविल सेक्रेटेरिएट एरिया के एक प्राचीन मन्दिर परिसर के भीतर मस्जिद बनाने की अनुमति दे दी ताकि मुस्लिम कर्मचारी नमाज पढ़ सकें। इस फैसले का जम्मू में विरोध हुआ और दंगे भड़क गए। घाटी में पंडितों पर अत्याचार का सिलसिला यहीं से शुरू हुआ।इंदिरा की हत्या के बाद फारूक ने उनके बेटे राजीव से दोस्ती गांठी और 1986 में दोबारा सीएम बने। इधर, पंडितों के खिलाफ अलगाववादियों की साजिश चरम पर पहुॅंच गई थी। कई कश्मीरी पंडितों को मारा गया, लेकिन फारूक अब्दुल्ला ने कुछ नहीं किया।