भारत के आंतरिक मामलों में दखल देने की अमेरिका को रह-रहकर होने वाली खुजली नागरिकता संशोधन विधेयक के मुद्दे पर एक बार फिर सामने आ गई है। अमेरिकी सरकार की दुनिया में चौधराहट कायम रखने के लिए बने प्रोपेगेंडा आयोग U.S. Commission on International Religious Freedom (USCIRF) ने नागरिकता संशोधन विधेयक पर ‘चिंता’ जताते हुए अमेरिकी सरकार से ‘गुज़ारिश’ की है कि इसके लिए वह गृह मंत्री अमित शाह “और अन्य चोटी के नेताओं” पर प्रतिबंध लगाने पर विचार करे।
पहली बात तो किस “और अन्य चोटी के नेताओं” पर प्रतिबंध का मंसूबा USCIRF पाल रही है? अमित शाह से वरिष्ठ तो केवल पीएम मोदी हैं। मोदी जब गुजरात के सीएम थे, तब USCIRF ने कोशिश की थी– नतीजा यह निकला कि मोदी प्रधानमंत्री बन गए। अब उन्हें अमेरिका का चुनाव जितवाना चाहती है ये कमीशन?
कमीशन के बयान में कहा गया है कि यह “आस्था के आधार पर नागरिकता तय करने की न्यायिक ज़मीन तैयार कर रहा है”, यह बिल “भारत के ‘सेक्युलर बहुलतावाद’ के इतिहास के विपरीत है”, “लाखों मुस्लिमों से नागरिकता छीनने की दिशा में कदम है”- वही सारे झूठ, जो भारत में वामपंथी और विपक्षी नेता गढ़ रहे हैं।
यह कमीशन न केवल इस बात के लिए बदनाम है कि दूसरे देशों में अमेरिकी सरकार ने आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक हस्तक्षेप और आधिपत्य के लिए बहाना तैयार करने में इसकी रिपोर्टों का इस्तेमाल होता है। इसके अलावा कई देशों पर सैन्य कार्रवाई करने के लिए गिनाए गए कारणों में भी इसकी रिपोर्ट का हवाला अमेरिकी सरकारें देती रही है। यानी, यह अमेरिका को दूसरे देशों पर हमले करने के बहाने देने के लिए भी आरोपित रहता है।
इसके अलावा इसे ईसाई मिशनरियों को गैर-ईसाई देशों में बढ़ावा देने और ईसाई मत में जबरन/लोभ द्वारा मतांतरण में भी संलिप्त पाया गया है। इस कमीशन को 1998 में बनाने वाले सांसदों में से एक सैमुएल ब्राउनबैक थे, जिन्हें अमेरिका में कट्टर और दूसरे मज़हबों का मतांतरण कराने वाले ईसाई के रूप में जाना जाता है।
पिछले साल ईसाई मिशनरी जॉन एलन चाउ ने अंडमान की विलुप्तप्राय और जैविक रूप से बीमारियों को लेकर संवेदनशील सेन्टिनलीज़ जनजाति के लोगों की जान खतरे में डाल उन्हें ईसाई बनाने की कोशिश की थी और उनके हाथों मारा भी गया था। उसके लिए भी पहले मिशनरियों ने अमेरिका पर दबाव बनाने की कोशिश की कि भारत सरकार को सेन्टिनलीज़ जनजाति के लोगों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए वह मजबूर करे। लेकिन चूँकि उस मामले में चाउ ने सेन्टिनलीज़ लोगों की जान से खिलवाड़ करने की कोशिश की थी और भारत ही नहीं, दुनिया भर के हिन्दुओं ने इस बात को लेकर मिशनरियों के खिलाफ कड़ा रुख अख्तियार कर किया था, अतः खिसिया कर ब्राउनबैक को कहना पड़ा कि अमेरिकी सरकार चाउ की गलती मानती है और भारत सरकार से
सेन्टिनलीज़ जनजाति के खिलाफ किसी कदम के लिए दबाव इस मामले को लेकर नहीं बनाएगी।
यही नहीं, इस कमीशन के वर्तमान अध्यक्ष टोनी पर्किन्स नामक अमेरिकी राजनेता हैं, जिनकी इस कमीशन में नियुक्ति का अमेरिकी हिन्दुओं ने शुरू से विरोध किया था। पर्किन्स ने अमेरिका में ईश्वर की परिकल्पना को “केवल यहूदी और ईसाई” बताते हुए “अमेरिका और हिन्दू धर्म में कोई संबंध नहीं है” कहा था। एक झटके में अमेरिका के लाखों लोगों को अपने मज़हब या देश में से किसी एक को चुनने का फरमान देने वाले ‘बिगट’ की अध्यक्षता वाला कमीशन दूसरे देशों को क्या सीख दे रहा है? उन्होंने हिन्दू और बौद्ध ध्यान पद्धतियों का भी मखौल उड़ाया था और इन्हें अमेरिकी सिपाहियों को सिखाए जाने का विरोध किया था।
टोनी पर्किन्स को समस्या केवल हिन्दुओं से ही हो, ऐसा भी नहीं है। जिस इस्लाम के भारत में भविष्य की उन्हें चिंता हो रही है, उसी को उन्होंने ‘evil’ कहा था। यह भी कहा था कि उनकी राय के अनुसार अमेरिकी संविधान का आस्था की आज़ादी देने वाला कानून लोगों को इस्लाम चुनने की इजाज़त नहीं देता, क्योंकि उनके अनुसार इस्लाम को पूरी तरह से माना गया तो अमेरिकी समाज छिन्न-भिन्न हो जाएगा। इसके अलावा उन्होंने यह भी दावा किया था कि “यहूदियों-ईसाइयों का वाला परमेश्वर ही” अमेरिका को आस्था की आज़ादी देता है। यानी, उनके कथन के हिसाब से अमेरिका का परमेश्वर यह ‘इजाज़त’ देता है कि अमेरिकी लोग कोई भी आस्था चुन लें, बशर्ते वह ईसाइयत हो।
कमीशन के प्रोपेगेंडा के जवाब में जब विदेश मंत्रालय उनके पूर्वाग्रह और उनके पिछले इतिहास की बात करता है, तो यही सब चीज़ें होतीं हैं।
We regret the inaccurate and unwarranted comments made by USCIRF on #CAB. They have chosen to be guided by their prejudices and biases on a matter on which they have little knowledge and no locus standi.
— Raveesh Kumar (@MEAIndia) December 10, 2019
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इस कमीशन के पिछले अध्यक्ष थे डॉ. तेंज़िन दोरजी। इस संस्था ने कुछ महीने पहले भी जब भारत में मज़हबी स्वतंत्रता के बारे में प्रोपेगेंडा करने की कोशिश की थी, तो उन्होंने बहुमत से अलग न केवल राय रखी बल्कि संख्याबल से दबाए जाने पर कमीशन की रिपोर्ट से अलग राय का असहमति-पत्र (डिसेंट नोट) लिखा। इस नोट में डॉ. दोरजी ने साफ-साफ लिखा कि कमीशन की रिपोर्ट ने हिंदुस्तान का जो चित्रण किया है, उनके व्यक्तिगत अनुभव उससे कतई मेल नहीं खाते। उन्होंने बताया कि एक तिब्बती बौद्ध होने के नाते वह हिंदुस्तान के सबसे कमज़ोर अल्पसंख्यक वर्ग के तौर पर 30 वर्ष रहे हैं। इस दौरान उन्होंने “पूर्ण धार्मिक स्वतंत्रता” का अनुभव किया है। कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि महज़ तीन महीने के भीतर डॉ. दोरजी अपने पद पर नहीं हैं।