शामली में कुछ दिन पहले मोमोज़ खाने को लेकर हुए दो समुदायों के विवाद के नामजदों की जब पुलिस ने धरपकड़ शुरू की तो समुदाय विशेष के बहुत से लोगों के घर ‘पलायन’, ‘मकान बिकाऊ है’ आदि लिखा जाने लगा है। जहाँ मीडिया इसे ‘डरा हुआ मजहब’ के अपने नैरेटिव के लिए ‘कच्चा माल’ मान रहा है, वहीं पुलिस ने इसे महज़ स्टंट और पुलिस पर दबाव बनाने का हथकंडा करार दिया है।
मोमोज़ खाने को लेकर हुई मारपीट, पुलिस पर हमला
मोमोज़ खाने को लेकर उत्तर प्रदेश के शामली में अजुध्या चौक बाजार में गुरुवार (जून 6, 2019) को 3 युवकों ने मोमोज़ खाने को लेकर बजरंग दल के 2 कार्यकर्ताओं पर हमला किया। हमले में दोनों कार्यकर्ता घायल हो गए। आरोपितों में से एक को पुलिस ने गिरफ्तार किया लेकिन मजहबी भीड़ ने इकट्ठा होकर पुलिस से हाथापाई शुरू कर दी और अपने साथी को भगा ले गए।
साजिद, आबिद और तौफिक नामक इन युवकों के भाग निकलने के बाद पुलिस ने 7-8 नामजदों और लगभग 25 अज्ञात व्यक्तियों के खिलाफ मामला दर्ज कर लिया। नामजदों को पकड़ने के लिए दबिश शुरू हुई, और मामले की फुटेज इकठ्ठा होने लगी ताकि अज्ञातों की शिनाख्त हो सके। इसी के बाद ‘पलायन’, ‘मकान बिकाऊ है’ आदि लोगों के घरों के बाहर लिखा मिलने लगा।
पत्रकारिता के समुदाय विशेष का दोगलापन
वहीं दूसरी ओर पत्रकारिता के समुदाय विशेष ने इस मामले को भी ‘डरा हुआ मजहबी’ के अपने नैरेटिव में बुनते हुए हिन्दुओं के माथे ही मढ़ना शुरू कर दिया है। नवभारत टाइम्स (गाज़ियाबाद संस्करण, 29 जून) को लिखता है:
वहीं जब स्थानीय पुलिस अधिकारी से इस बाबत मीडिया ने बात की तो उन्होंने दो-टूक बताया कि पुलिस को दबाव में लेने, प्रशासन का ध्यान भटकाने और खुद को हिंसा करने के बाद पीड़ित दिखाए जाने की कोशिश हो रही है, और इसी के अंतर्गत पलायन और मकान बेचने का नाटक किया जा रहा है।
पहले भी हो चुका है
ऐसा पहले भी हो चुका है कि सामान्य घटनाओं में शामिल संदिग्धों के बचाव और/या फिर हिन्दुओं को बदनाम करने के लिए मामलों को बेवजह साम्प्रदायिक रूप दे दिया जाता है। लगभग साढ़े तीन साल पहले मणिपुर में यही हुआ था जब एक अध्यापक मोहम्मद हसमद अली की ज़मीन विवाद में हुई हत्या को मीडिया गिरोह ने गौरक्षकों का कृत्य दिखाने की कोशिश की थी। लेकिन उनका भांडा फोड़ते हुए खुद अली के बेटे ने अपने रिश्तेदार पर आरोप लगाया था।