देश में इस समय ‘लव जिहाद’ पर चर्चाओं का दौर चरम पर है। जब से भाजपा शासित राज्यों ने इसे रोकने के लिए क़ानून बनाने का ऐलान किया है तभी से बुद्धिजीवियों के माथे पर चिंता की लकीरें गाढ़ी होती जा रही हैं। बीते दिनों इतने संवेदनशील मुद्दे पर ‘हें हें हें’ करते हुए देश के प्रख्यात लिब्रेश्वर पत्रकार और लघु प्रेमकथाओं (लप्रेक) के सदाबहार लेखक रवीश कुमार ने भी प्राइम टाइम कर ही दिया। किया तो किया लव जिहाद को ‘हिन्दू-मुस्लिम सिलेबस का हिस्सा’ भी बता दिया। लगभग 2 मिनट तक एक साँस में दिए गए अधकचरे प्रोपेगेंडा परस्त ज्ञान में रवीश कुमार ने और भी कई निराधार तर्क पेश किए।
18 नवंबर 2020 को प्रसारित हुए लगभग 34 मिनट की अवधि के प्राइम टाइम के शुरुआती दो मिनट की सभी पक्षपाती दलीलें रवीश कुमार का पूरा एजेंडा साफ़ कर देती है। कार्यक्रम शुरू होने के 13 सेकेंड बाद रवीश कुमार पहली पंक्ति कहते हैं, “भारत का समाज बुनियादी रूप से प्रेम का विरोधी है। किसी को प्रेम न हो जाए, अपनी पसंद से जाति या धर्म के बाहर शादी न हो जाए, इस आशंका में डूबा रहता है और डरा रहता है।”
वामपंथ के पोलियो से ग्रसित रवीश कुमार को यहाँ समझने की आवश्यकता है कि भारतीय समाज में प्रेम के लिए स्थान हमेशा से रहा है। ऐसा समाज जिसके लिए प्रेम हमेशा से शाश्वत विषय रहा है और इसके जीवंत उदाहरण हैं भारतीय संस्कृति में प्रेम पर रचित अनेक दर्शन। लेकिन एक मज़हब ऐसा है जिसके लिए प्रेम और पाखंड एक ही रास्ते के दो छोर हैं जो अंत तक साथ चलते हैं। किस संभ्रांत समाज में अपना नाम या अपनी पहचान बदल/छुपा कर प्रेम किया जाता है? लेकिन अफसोस इस पहलू के सामने आते ही देश के प्रख्यात लिबरल पत्रकार को सांप्रदायिकता का मोतियाबिंद हो जाता है।
इसके बाद प्रोपेगेंडा परस्त रवीश कुमार कहते हैं, “भारतीय समाज हिन्दी सिनेमा में सोते-जागते गीतों के नाम पर प्रेम गीत ही सुनता है, वहीं प्रेम से इतना डरता है। इतना डरता है कि डर का भूत खड़ा करता है। उसी एक भूत का नाम है लव जिहाद। वैसे तो यह हिन्दू-मुस्लिम नेशनल सिलेबस का हिस्सा है, लेकिन बेवक्त-बेज़रूरत इसे छेड़ने का मतलब यही है, किसी को यकीन है कि भारत के समाज को हिन्दू बनाम मुस्लिम के भूत से डराया जा सकता है। हें हें हें हें।”
यहाँ भी वैचारिक विकलांगता से मजबूर रवीश कुमार को कई बातें समझने की ज़रूरत है। लव जिहाद कोई आज या कल की समस्या नहीं है। यह पिछले काफी समय से हो रही है फिर भी रवीश कुमार जैसे स्वयंभू बुद्धिजीवी इस तरह के मामलों की सच्चाई को स्वीकारना नहीं चाहते हैं। इन्हें नहीं नज़र आता कि ऐसे मामलों में एक महिला की अस्मिता से खिलवाड़ होता है और उनका शारीरिक तथा मानसिक शोषण होता है। इतना ही नहीं उन पर धर्मांतरण का दबाव बनाया जाता है और इतने से बात नहीं बनती है तो सूटकेस में फिट करने का विकल्प सदाबहार है ही।
रवीश कहते हैं, “खैर यह किसी की सियासी ज़रूरत हो सकती है लेकिन समाज की सच्चाई भी तो है। उस समाज से आप उम्मीद ही क्या करें जहाँ 90 फ़ीसदी संबंध दहेज़ के सामान से तय होते हों, वहाँ प्रेम कितना ही होगा। इसलिए जिसने प्रेम को कार और वाशिंग मशीन समझा, उससे यही उम्मीद की जा सकती है कि वह लव जिहाद के भूत को खड़ा करेगा।” इसके बाद रवीश कुमार धीरे से लव जिहाद को पितृसत्तात्मक समाज की उपज बता देते हैं।
2 मिनट के इस प्रोपेगेंडा भरे ज्ञान में न तो पहचान छुपाने का ज़िक्र हुआ और न ही प्रेम के नाम पर बहला-फुसलाकर शारीरिक शोषण करने का ज़िक्र हुआ। न ही सहमति के विरुद्ध महिलाओं को मज़हब कबूल कराने की बात का ज़िक्र हुआ। यानी रवीश कुमार के दृष्टिकोण में मूल समस्या का एक भी बिंदु अहम नहीं है। यह समस्या नई नहीं है और विशेष रूप से रवीश कुमार जैसे पत्रकारों के साथ जो ‘तार्किक’ भी हैं और ‘तजुर्बेकार’ भी।