चीन ने सितम्बर 1957 में शिजियांग से तिब्बत के गरटोक तक एक हाईवे का निर्माण कार्य समाप्त किया था। यह क्षेत्र अक्साई चिन के पठार यानी भारत के लद्दाख का सीमावर्ती हिस्सा है। इस सड़क निर्माण का एकमात्र उद्देश्य चीनी वामपंथी सरकार की विस्तारवादी नीतियों को बढ़ावा देने के लिए था। इसी के साथ जल्दी ही 28 जुलाई, 1959 को उत्तरी पूर्वी लद्दाख में चीनी सेना ने घुसपैठ भी शुरू कर दी।
संभवतः यह भारत-चीन युद्ध की पहली एक आहट थी, जिसे तत्कालीन भारत सरकार ने समझने में चूक कर दी। एक महीने बाद ही 25-26 अगस्त को लोंग्जू में चीनी सेना दूसरी बार घुसपैठ कर चुकी थी। इस बार दोनों देशों की सेनाओं के बीच गोलीबारी की भी ख़बरें सामने आई थी।
इसी साल 20 अक्टूबर को चीन ने लद्दाख में फिर से घुसपैठ कर तीन भारतीय जवानों को बंधक बना लिया। इस दिन भारत और चीन की सेनाओं के बीच दूसरी बार गोलीबारी हुई, जिसमें कुछ भारतीय सैनिकों ने अपना बलिदान दिया। हालाँकि, इस मुठभेड़ में पहली बार चीन के कई सैनिक भी मारे गए थे।
इस मुठभेड़ के बाद 14 नवंबर, 1959 को हमारे सैनिकों को चीन के कब्जे से छुड़ाने के लिए दोनों देशों के प्रतिनिधियों के बीच एक समझौता वार्ता बुलाई गई। परिणामस्वरूप 10 भारतीय जवानों को चीन सरकार ने वापस भारत को सौंप दिया।
इसी दौरान 1 सितम्बर, 1959 को द टाइम्स ऑफ़ इंडिया ने भारतीय सीमा के साथ चीन का एक नक्शा प्रकाशित किया। जिसमें अखबार ने चीन की विस्तारवादी नीति का उल्लेख करते हुए बताया कि वह कुल 57,000 वर्ग किलोमीटर के विदेशी भूभाग पर कब्ज़ा करना चाहता है – जिसमें भारत के असम – 17,000 वर्ग किलोमीटर और कश्मीर – 22,000 वर्ग किलोमीटर हिस्सा शामिल था।
अगले साल अप्रैल 1960 में चीन के प्रधानमंत्री झ़ोउ एनलाई की पांच दिवसीय भारत यात्रा प्रस्तावित थी। इसे ध्यान में रखते हुए भारत के मुख्य विपक्षी दलों ने प्रधानमंत्री नेहरू को भारतीय पक्ष के संदर्भ में ठोस कदम उठाने की नसीहत दी। दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों के बीच सीमा विवाद के समाधान के लिए कई बैठकें हुई लेकिन दुर्भाग्य से बिना किसी नतीजे के समाप्त हो गयी।
हालाँकि, इन बैठकों में दोनों प्रधानमंत्री राजनायिक तौर पर सीमा विवाद को सुलझाने के लिए तैयार हो गए थे। इस प्रकार अधिकारी स्तर पर कुल तीन बैठकें हुईं – जिसमें आखिरी बैठक 7-12 दिसंबर, 1960 को हुई। जिसके बाद दोनों देशों के अधिकारियों ने सीमा पर वास्तविक स्थिति की रिपोर्ट बनाकर अपने-अपने देश की सरकारों को सौंप दिया।
इन रिपोर्ट्स को 14 फरवरी, 1961 को प्रधानमंत्री नेहरू ने संसद के समक्ष पेश किया। दरअसल, प्रधानमंत्री ने दो रिपोर्ट सदन के पटल पर रखी थी – इसमें एक भारतीय अधिकारियों की तरफ से तैयार की गई, और दूसरी चीन के अधिकारियों की रिपोर्ट शामिल थी। चीन की वास्तविक रिपोर्ट उनकी मन्दारिन भाषा में थी। इसे चीन की सरकार ने अंग्रेजी में अनुवादित कर भारत को सौंपा था लेकिन ऊपर ‘अनाधिकारिक’ लिख दिया था।
जब प्रधानमंत्री नेहरू ने चीन सरकार से इस बात का स्पष्टीकरण माँगा और बताया कि उन्हें परंपरा के अनुसार इस रिपोर्ट को संसद के समक्ष पेश करना है तो इस पर चीन की तरफ से जवाब आया कि अंग्रेजी की रिपोर्ट ‘अनाधिकारिक’ ही रहेगी क्योंकि उसमें कुछ गलतियाँ हो सकती हैं। चूँकि चाइनीज भाषा किसी संसद सदस्य को आती नहीं थी इसलिए मात्र इसी कारण से रिपोर्ट पर संसद में चर्चा नहीं हो सकी। (लोकसभा – 14 फरवरी, 1961)
यह भारत के प्रधानमंत्री नेहरू की विदेश नीति थी, जिसमें भाषाई कमियों को दूर करने का भी कोई समाधान नहीं था। अगर उस दिन संसद में रिपोर्ट पर चर्चा हो जाती तो संभवतः चीन की सोच का आकलन किया जा सकता था। अतः भारत की सीमा सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए एक सामरिक रणनीति बनाई जा सकती थी। शायद एक साल बाद होने वाले भारत-चीन युद्ध में भी भारत को कोई लाभ मिल जाता।
एकतरफ प्रधानमंत्री की वार्ता निष्फल रही तो दूसरी तरफ उनके लिए महत्वपूर्ण सामरिक रिपोर्ट्स कोई मायने तक नहीं रखती थी। इस तरह वे भारत-चीन सीमा विवाद को सुलझाने की बनावटी कवायदों में लगे हुए थे।
साल 1959 से लेकर 1961 तक भारत-चीन सीमा विवाद अपने चरम पर था। जब धीरे-धीरे मौके हाथ से फिसल रहे थे, तो प्रधानमंत्री के साथ उनके करीबी और खास समझे जाने वाले रक्षा मंत्री वीके कृष्णा मेनन पर भी सवाल उठने लगे। उस दौरान अधिकतर नेताओं और सेना अधिकारियों का मानना था कि भारत-चीन के बीच पैदा हो रहे गतिरोधों में कृष्णा मेनन की भूमिका संदिग्ध है। इसलिए उन्हें मंत्रिपद से हटाने के भरसक प्रयास किए गए।
इस क्रम में सबसे बड़ा कदम जनरल थिमैय्या ने उठाया – उन्होंने 31 मई, 1959 को मेनन के विरोध में प्रधानमंत्री नेहरू को अपना इस्तीफा सौंप दिया। हालाँकि, प्रधानमंत्री नेहरू ने उनके इस्तीफे को स्वीकार नहीं किया लेकिन मेनन को भी नहीं हटाया।
प्रधानमंत्री नेहरू के इस ‘मेनन प्रेम’ का नुकसान हमारी विदेश नीति के साथ-साथ भारतीय सेना को उठाना पड़ रहा था। इसका विरोध कॉन्ग्रेस के नेताओं सहित प्रमुख विपक्षी दलों के नेता भी कर रहे थे। इसमें प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के नेता आचार्य कृपलानी और भारतीय जनसंघ के महामंत्री दीनदयाल उपाध्याय जैसे नाम शामिल थे।
उधर, कॉन्ग्रेस की कार्यसमिति के सदस्य मोरारजी देसाई और तत्कालीन कॉन्ग्रेस अध्यक्ष नीलम संजीवा रेड्डी ने भी प्रधानमंत्री से भारत-चीन सीमा विवाद को जल्दी सुलझाने के लिए अपील की थी। कॉन्ग्रेस के पूर्व अध्यक्ष यूएन ढेबर का भी यही मत था। साथ ही उन्होंने इस पूरी समस्या का दोष भारत के कम्युनिस्टों पर मढ़ते हुए बताया था कि वे लोग भारत को चीन के साथ युद्ध की ओर धकेल रहे हैं। (द हिंदुस्तान टाइम्स – 29 अप्रैल, 1959)
आखिरकार, सितम्बर 1962 में प्रधानमंत्री नेहरू को जानकारी मिली कि लद्दाख की गलवान नदी तक के इलाके तक चीनी सेना अवैध कब्जा जमा चुकी है। एक महीने बाद दोनों देशों की सेनाएँ एक-दूसरे के सामने थीं। लगभग एक महीने चले इस युद्ध में चीन ने गलवान नदी तक अपनी स्थिति को बरकरार रखा। प्रधानमंत्री नेहरू ने भी इस इलाके को वापस लाने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई।
इस कथित विदेश नीति के तहत जम्मू-कश्मीर का 37,544 वर्ग किलोमीटर का हिस्सा चीन के कब्जे में चला गया। साल 1963 में पाकिस्तान ने 5,180 वर्ग किलोमीटर का इलाका भी गैर-कानूनी रूप से चीन को दे दिया। इस तरह अक्साई चिन, मनसार और शाक्सगाम घाटी का कुल 42,735 वर्ग किलोमीटर का भूभाग चीन अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर (सीओजेके) कहलाता है।
एक बार सरदार पटेल ने भी चीन से उभरते खतरे की तरफ प्रधानमंत्री नेहरू का ध्यान दिलाने की कोशिश की थी। उन्होंने 7 नवंबर, 1950 को प्रधानमंत्री को एक पत्र लिखकर कहा, “चीन सरकार ने शांतिपूर्ण इरादों के बल पर हमें बहकाने की कोशिश की है… हालाँकि हम खुद को चीन का मित्र मानते हैं, चीनी हमें अपना मित्र नहीं मानते।”
सरदार पटेल चीन के संबंध में भारत की विदेश नीति को ठोस और सुरक्षित रखना चाहते थे। हालाँकि, प्रधानमंत्री नेहरू हमेशा उचित सलाह नजरंदाज कर दिया करते थे और इसी बात का खामियाजा आज तक भारत को भुगतना पड़ रहा है।