‘कश्मीर फाइल्स (The Kashmir Files)’ फिल्म के कारण कश्मीरी हिंदुओं के नरसंहार और उनके पलायन का मुद्दा एक बार फिर सुलग उठा है। फिल्म ने इसके कई पहलुओं को सामने रखा है, जिससे भारत के लोग अब तक लगभग अनजान थे। कश्मीर का पूरा सिस्टम हिंदुओं के खिलाफ खड़ा था और वहाँ के हिंदू बेबस और लाचार थे। हिंदुओं के खिलाफ और आतंकियों के समर्थन में कश्मीर के राजनेता से लेकर मीडिया और राज्य के सरकारी कर्मचारी तक शामिल थे।
केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार (Narendra Modi Government) ने जब जम्मू-कश्मीर से धारा 370 खत्म किया, तब नकाब में ढँके ये चेहरे एक-एक करके खुलकर सामने आने लगे। केंद्र सरकार ने आतंकियों के मददागारों, उन्हें फंडिंग करने वालों, उन्हें आश्रय देने वालों, उन तक गोपनीय सूचनाएँ पहुँचाने वालों पर शिकंजा कसना शुरू कर दिया। जुलाई 2021 में केंद्र के निर्देश पर जम्मू-कश्मीर सरकार ने 11 सरकारी कर्मचारियों को सस्पेंड कर दिया था। ये लोग आतंकियों को न सिर्फ गोपनीय सूचनाएँ उपलब्ध कराते थे, बल्कि उन्हें हर तरह से मदद भी देेते थे।
इसी तरह बुधवार (30 मार्च 2022) को भी सरकार ने 5 सरकारी कर्मचारियों को आतंकियों को मदद करने के आरोप में सस्पेंड कर दिया। सितंबर 2021 में आतंकियों के साथ मिलकर काम करने के आरोपित 6 सरकारी कर्मचारियों पर राज्य सरकार ने कार्रवाई करते हुए उन्हें सेवा से बर्खास्त कर दिया था।
राज्य में नवंबर 1986 में मुख्यमंत्री बनने के बाद नेशनल कॉन्ग्रेस के प्रमुख फारूक अब्दुल्ला ने कश्मीरियों के नाम पर मुस्लिमों को उकसाने का काम शुरू कर दिया था। परिणाम ये हुआ कि पूरा तंत्र पाकिस्तान का मोहरा और आतंकियों का मददगार बन गया। इन सबसे सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई कश्मीर के अखबारों ने।
कश्मीर के उर्दू अखबारों ने इन नरसंहारों और पलायन में कश्मीरी नेताओं के बाद आतंकियों की सबसे ज्यादा मदद की थी। राज्य की मीडिया आतंकी संगठनों के मुखपत्र के रूप में काम करते थे। आतंकी जो काम करते उसको सही साबित करना, उनके आतंकी वारदातों को व्हाइटवॉश करना और आतंकियों के प्रति हमदर्दी के लिए घाटी में माहौल बनाना उनका प्रमुख काम था।
1990 के दशक में आतंकी अपनी गोलियों से लोगों में दहशत पैदा करते थे और मीडिया अपनी खबरों के जरिए। 19 जनवरी 1990 की काली रात से पहले घाटी के दो प्रमुख उर्दू अखबार ‘आफताब’ और ‘अल सफा’ ने अपनी खबरों में कश्मीरी हिंदुओं को घाटी छोड़ने का ऐलान करते हुए चेतावनी जारी की थी। उसने आतंकी संगठन हिज्बुल मुजाहिदीन के उस बयान को प्रमुखता से छापा था, जिसमें कश्मीरी हिंदुओं को घाटी नहीं छोड़ने पर चेतावनी दी गई थी।
ऐसा नहीं है कि ये सिर्फ उसी दौर की बता थी। ये आज भी जारी है। बुधवार (30 मार्च 2022) को श्रीनगर में सुरक्षाबलों ने मुठभेड़ में दो आतंकियों को मार गिराया। इस मुठभेड़ में मारा गया आतंकी रईस अहमद भट कभी पत्रकार हुआ करता था। वह ‘वैली न्यूज सर्विस’ नाम से एक वेबसाइट चलाता था और वह इसका एडिटर इन चीफ रहा था। पुलिस ने उसका प्रेस कार्ड भी जारी किया है।
17 मार्च 2022 को ‘द कश्मीर वाला’ (The Kahsmir walla ) नाम के एक कश्मीरी वेबसाइट के मुख्य संपादक फहद शाह (Fahad Shah) के खिलाफ देश विरोधी गतिविधियों में शामिल होने और पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई के समर्थन में कंटेंट पोस्ट करने के मामले में कार्रवाई की गई थी। शाह अपने पोर्टल पर राष्ट्र विरोधी कंटेंट पोस्ट करता था औऱ पत्थरबाजों को पीड़ित के तौर पर पेश करता था।
शाह अपने पोर्टल के जरिए लगातार सेलेक्टिव स्टोरीज को ही पब्लिश करता था, जो बीते दो साल में पाकिस्तान की एजेंसी आईएसआई और अलगाववादी तत्वों के अनुरूप था। इन स्टोरी में कश्मीर घाटी में इस्लामिक हिंसा को जायज साबित करने की कोशिशें की जाती थीं।
इसी तरह 8 जनवरी को जम्मू-कश्मीर पुलिस ने एक कथित पत्रकार सज़्ज़ाद अहमद डार को आतंकी की मौत के बाद संबंधित वीडियो को पोस्ट करके लोगों को भड़काने के आरोप में बांदीपोरा से गिरफ्तार किया था। सज़्ज़ाद अहमद ऑनलाइन पोर्टल ‘द कश्मीर वाला (The Kashmir Walla)’ के लिए काम करता था।
जिस वीडियो को सज्जाद गुल ने पोस्ट किया, उसमें महिलाओं का एक समूह भारत विरोधी नारे लगा रहा था। इसमें पाकिस्तान और आतंकी ज़ाकिर मूसा का समर्थन भी किया जा रहा है। यह वीडियो तब बनाया गया था तब लश्कर ए तैयबा का आतंकी सलीम पैरी को सुरक्षाबलों ने एक मुठभेड़ में मार गिराया था।
गिरफ्तार सज्जाद गुल अहमद डार उर्फ़ सज्जाद गुल, जिस ‘द कश्मीर वाला’ के लिए काम करता था वो संस्थान पहले से ही विवादों में रहा है। इसके एडिटर-इन-चीफ का नाम फहद शाह है। फहद शाह और एक अन्य रिपोर्टर यशराज शर्मा पर पहले भी केस दर्ज हो चुका है। इन्होंने 26 जनवरी को शोपियाँ के एक धार्मिक स्कूल में सेना द्वारा जबरन गणतंत्र दिवस मनाने की झूठी खबर प्रकाशित की थी। यशराज शर्मा इस बार भी आतंकियों के साथ खड़े सज्जाद गुल का समर्थक रहा है।
अप्रैल 2020 में भी भी गौहर गिलानी नाम के एक पत्रकार के खिलाफ UAPA के तहत मामला दर्ज किया गया था। गिलानी सोशल मीडिया के माध्यम से गैरकानूनी गतिविधियों को बढ़ावा देने वाले पोस्ट और लेख लिखता था और आतंकवादियों का महिमामंडन करता था। इसके अलावा भी वह कई तरह की गैर-कानूनी गतिविधियों में लिप्त था।
इससे पहले, जम्मू-कश्मीर पुलिस ने मसरत ज़ाहरा और पीरज़ादा आशिक नाम के दो पत्रकारों पर भी कार्रवाई की थी। ये पत्रकार सोशल मीडिया पर गलत सूचना फैलाते और देश विरोधी पोस्ट करते थे। पीरज़ादा आशिक ने शोपियाँ मुठभेड़ के बारे में कथित तौर पर झूठी खबर प्रकाशित की थी।
इसी तरह जुलाई 2019 में कश्मीर घाटी में आतंकी फंडिंग के मामले में ‘कश्मीर रीडर’ नाम के एक स्थानीय अखबार के संपादक हयात भट्ट उर्फ हाजी हयात से NIA ने कई घंटों तक पूछताछ की थी। भट ने साल 2012 में ‘कश्मीर रीडर’ अखबार की शुरुआत की थी और इससे पूर्व वो हेल्पलाइन ऐडवर्टाइजिंग एजेंसी चलाता था, जिसे किसी दूसरे देश से फंडिंग मिलती थी। वह लश्कर-ए-तैयबा से उसका बेहद करीबी संबंध था। हयात अपने अखबार में जिहादी विचारधारा वाले पत्रकारों को नौकरी देता था और आतंकियों को महिमांडित करवाने वाले लेख लिखवाता था।
कश्मीर घाटी में ऐसे अनगिनत पत्रकार हैं तो आतंकियों के स्लीपर सेल के रूप में काम करते हैं। आतंकियों और पत्थरबाजों को शोषित तथा सुरक्षाबलों को उत्पीड़क के रूप में दिखाकर सहानुभूति हासिल करना और अतंरराष्ट्रीय स्तर पर भारत को बदनाम करने वाले गैंग को सहायता पहुँचाना इनका प्रमुख उद्देश्य है। इन्हें न सिर्फ आतंकियों से मदद मिलती है, बल्कि पाकिस्तान में बैठे आतंकी सरगना और वहाँ की बदनाम आईएसआई भी इनकी खूब मदद करती है।
हालाँकि, केंद्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा शासन के आगमन के बाद इनके चेहरों पर से नकाब उतरने लगे हैं और इनके खिलाफ कार्रवाई भी तेज हो गई है, फिर भी ये कथित पत्रकार इस्लामिक जेहाद में अपनी योगदान देने के लिए सीधे तौर पर आतंकी हमलों में भी शामिल होने लगे हैं। बुधवार को मारा गया रईस अहमद भट इसका उदाहरण है।