ब्रिटिश राज के दौरान ग़रीब हिन्दुओं को ईसाई बनाया गया था। आज उन्हें पाकिस्तान के चर्चों, घरों व स्कूलों में मारा जा रहा है। उनके पक्ष में बोलने वाले मंत्री व गवर्नरों तक की हत्या कर दी जाती है। समझें ईशनिंदा क़ानून का व्यापक और कुटिल कुचक्र।
बानगियों की कमी नहीं है यह जानने के लिए कि आखिर एक सेक्युलर समाज में ऐसी क्या कमी है जो अलगाववादियों को वह मंज़ूर नहीं, और जिससे कश्मीर को आज़ाद कराने के लिए बुरहान वानी और आदिल डार ने जान लेने और देने में कोई संकोच नहीं किया।
कश्मीर में अलगाववाद को बल मिलता है पैन-इस्लामिज़म से, जो खिलाफत आंदोलन के या उससे भी पूर्व के उस विचार से प्रभावित है, जिसमें दुनिया के सभी मुस्लिमों को राष्ट्रीय सीमाओं से परे एक झंडे के नीचे खड़े होने को अपना आदर्श मानता है।
आतंकियों के हमले का निशाना अब 'भारत देश' की जगह 'गोमूत्र पीने वाले हिन्दू' हो चुके हैं। अमरनाथ यात्रा, संकटमोचन मंदिर पर हुए हमले की यादें भी ताजा ही होंगी। इन्हें पढ़कर 'हिन्दूफोबिया' किसी को नज़र नहीं आता।
सेना और हमारे सुरक्षा बलों के जवान बाहरी ख़तरों से तो निपट लेंगे लेकिन ये 'हा-हा' करने वालों से कौन निपटेगा? इन्हें क्यों बर्दाश्त किया जा रहा है इस देश के 'अच्छे मुस्लिमों' द्वारा?
मक़बूल शेरवानी के इस कृत्य को आज भी याद किया जाता है और बारामुला में भारतीय सेना ने उसका स्मारक भी बनवाया है। प्रसिद्ध उपन्यासकार मुल्कराज आनंद मक़बूल शेरवानी से इतने प्रभावित हुए थे कि उन्होंने उसके ऊपर एक उपन्यास लिखा जिसका शीर्षक था: Death of a Hero.
अपनी मौत से पहले कश्मीर की बेटी इशरत मुनीर मिट्टी का क़र्ज़ अदा कर चुकी थी। कश्मीर को बचाने वालों में इशरत अकेली नहीं थी। सत्तर वर्षों से घाटी के राष्ट्रवादी मुस्लिमों ने कश्मीर में पाकिस्तान प्रायोजित आतंक को परास्त करने में भूमिका निभाई है।
अगर पोप और शीर्ष इमाम के बीच का चुम्मा-बंधन पूरा हो तो पोप को हिन्दू मंदिरों पर ईसाई कट्टरवादियों द्वारा किए जा हमले और ननों के यौन शोषण पर भी चुप्पी तोड़नी चाहिए।