मंगलवार (7 मई) की सुबह, मुनि सुनील सागर के नेतृत्व में जैन समुदाय ने राजस्थान के अजमेर जिले में 12वीं सदी की मस्जिद अढ़ाई दिन का झोंपड़ा तक नंगे पैर मार्च किया। उन्होंने कहा कि एएसआई द्वारा संरक्षित इस जगह पर पूजा-अर्चना करना सदियों से उनका रिवाज रहा है। इस दौरान उन्हें रोकने की कोशिश की गई।
एएसआई ने संपत्ति को संरक्षित स्मारक घोषित किया है। स्थानीय लोगों ने उन्हें रोकने की कोशिश ये कहते हुए की, कि जैन मुनि बिना कपड़े पहने मस्जिद में प्रवेश नहीं कर सकते। भिक्षुओं ने तर्क दिया कि ऐसे ही रहना और अढ़ाई दिन का झोपड़ा में जाना उनका अधिकार है। जैन संतों के साथ विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ता भी शामिल थे। उन्होंने कहा कि 12वीं शताब्दी में मस्जिद में बदलने होने से पहले यह स्थान कभी एक संस्कृत विद्यालय था।
जैन संतों और उनके अनुयायियों ने अपनी यात्रा के दौरान मस्जिद के केंद्रीय क्षेत्र में प्रवेश नहीं किया। मुनि सुनील सागर ने स्थल पर पत्थर के मंच पर दस मिनट तक प्रवचन किया। उन्होंने कहा “भवन उसके असली मालिकों के नियंत्रण में होनी चाहिए। अगर यहाँ पूजा-अर्चना करना हमारी परंपरा रही है तो ऐसा करना भी चाहिए। इसे सर्वोच्च पद के अधिकार की मंशा की ओर नहीं ले जाना चाहिए। हमें सावधान रहना चाहिए। जब हम तथ्यों को स्वीकार किए बिना दूसरे की संपत्ति पर अपना अधिकार जताते हैं, तो यह शत्रुता को बढ़ावा देता है। हमें सद्भाव के लिए प्रयास करना चाहिए और आगे बढ़ना चाहिए।”
टाइम्स ऑफ इंडिया से बात करते हुए मुनि सुनील सागर ने कहा, “आज मैंने अढ़ाई दिन का झोपड़ा का दौरा किया और पाया कि यह महज एक झोपड़ी (झोपड़ा) नहीं बल्कि एक महल है। मैंने रामायण और महाभारत के कई प्रतीक देखे। मुझे हिंदू आस्था की टूटी हुई मूर्तियाँ भी मिलीं, फिर भी ये विडंबना है कि इसे मस्जिद कहा जाता है। उन्होंने कहा, “हमें संपत्ति पर उचित स्वामित्व को स्वीकार करना चाहिए। हमें भी पूजा करने का अधिकार है और ऐसे अधिकारों पर किसी का एकाधिकार नहीं है। इतिहास विकसित होता है और परिस्थितियाँ भी। धर्म हमें दया, प्रेम और अहिंसा सिखाता है।”
अढ़ाई दिन का झोपड़ा का इतिहास
मूल रूप से एक शानदार संस्कृत कॉलेज (सरस्वती कंठाभरण महाविद्यालय) जिसमें ज्ञान और बुद्धि की हिंदू देवी माता सरस्वती को समर्पित एक मंदिर है, इस इमारत का निर्माण महाराजा विग्रहराज चतुर्थ द्वारा करवाया गया था। वह शाकंभरी चाहमान या चौहान वंश के राजा थे। कई दस्तावेज़ों के अनुसार, मूल इमारत चौकोर आकार की थी। इसके प्रत्येक कोने पर एक टावर था। भवन के पश्चिमी तरफ माता सरस्वती का मंदिर था। 19वीं शताब्दी में वहाँ सिक्का भी मिला था, जो 1153 ई. की थी। विशेषज्ञों का मानना है कि सिक्के के आधार पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि मूल इमारत का निर्माण 1153 के आसपास हुआ था।
हालाँकि, कुछ स्थानीय जैन किंवदंतियाँ बताती हैं कि इमारत का निर्माण 660 ईस्वी में सेठ विरमदेव काला द्वारा करवाया गया था। इसका निर्माण एक जैन तीर्थस्थल के रूप में किया गया था और पंच कल्याणक मनाया जाता था। उल्लेखनीय है कि इस स्थल पर उस समय के जैन और हिंदू दोनों वास्तुकला के तत्व मौजूद हैं। अढ़ाई दिन का झोपड़ा के इतिहास पर ऑपइंडिया की रिपोर्ट यहाँ पढ़ सकते हैं।