ज्यादा पुरानी बात नहीं है जब भाजपा ने ‘कॉन्ग्रेस मुक्त भारत’ का नारा दिया था। देश की स्वतंत्रता के वक्त महात्मा गाँधी भी यही चाहते थे। आजकल ममता बनर्जी ‘कॉन्ग्रेस मुक्त विपक्ष’ की कोशिशों में लगी हैं। वैसे पिछले कुछ सालों से विपक्षी कुनबे में यह प्रयास समय-समय पर चलता रहता है। कभी केजरीवाल तो कभी पवार की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएँ कुलांचे भरने लगती है।
गाँधी को आशंका रही होगी कि भारतीय लोकतंत्र के लिए कॉन्ग्रेसियों की निजी अकांक्षाएँ, एजेंडा वाली राजनीति सही नहीं रहेगी। संभवत: यही कारण रहा होगा कि वे स्वतंत्र भारत को कॉन्ग्रेस मुक्त देखना चाहते थे। स्वतंत्र भारत ने 70 सालों में जो भोगा उसके अनुभवों को देखते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब कॉन्ग्रेस से मुक्ति की बात आगे बढ़ाई, उस समय कई लोग लोकतंत्र में विपक्ष की जरूरत की दुहाई देते दिखे थे।
यकीनन एक एक लोकतंत्र में विपक्ष भी होना चाहिए। लेकिन जब विपक्ष जीर्ण-शीर्ण हो जाए, उसका राजनीतिक दर्शन लोकतंत्र के लिए के लिए नासूर बन जाए, तो उसका क्या करें? हम यह सवाल इसलिए उठा रहे हैं क्योंकि 29 नवंबर 2021 को संसद के शीतकालीन सत्र की शुरुआत होते ही सदन में विपक्ष के आचरण से देश परिचित है। राज्यसभा में तो हालत इतनी अराजक हो गई कि विपक्ष के 12 सांसदों को निलंबित करना पड़ा। इतने पर भी विपक्ष का रवैया नहीं सुधरा तो मंगलवार (30 नवंबर 2021) को उच्च सदन के सभापति वेंकैया नायडू को यहाँ तक कहना पड़ गया कि निलंबित सांसद अपने किए पर पश्चाताप जताने की बजाए, उसे न्यायोचित ठहराने पर तुले हैं। ऐसे में उनका निलंबन वापस लेने का सवाल ही नहीं उठता है।
नायडू का यह कहना भारत के मौजूदा विपक्ष की उस संस्कृति की ओर इशारा करता है, जिसका राजनीतिक दर्शन ही संसदीय गरिमा को ठेस पहुँचाने, लोकतांत्रिक परंपराओं को अँगूठा दिखाने के इर्द-गिर्द सिमट गया है। इसको समझने के लिए ज्यादा पीछे जाने की आवश्यकता नहीं है।
संसद सत्र की शुरुआत से पहले सर्वदलीय बैठक बुलाने की परंपरा रही है। क्या कारण है कि उस परंपरा का निर्वाह होने के बावजूद, वह अपना प्रभाव सत्र शुरू होने पर नहीं छोड़ पा रही है? इसका कारण विपक्ष का वही राजनीतिक दर्शन है जो ऐसे बैठकों के संदेश की अनदेखी कर उसे सदन में मनमानी करने को प्रेरित करता है। यह उसका नकारात्मक व्यवहार ही है जिसने अधिकांश विपक्षी दलों को संविधान दिवस पर आयोजित कार्यक्रम का बहिष्कार करने को प्रेरित किया। जिस कृषि कानूनों की वापसी को लेकर कथित किसान आंदोलन को विपक्ष भड़काता रहा, कई मौकों पर ऐसी ताकतों के साथ खड़ा नजर आया जिनके हित भारत विरोध में हैं, जब सदन में उन कानूनों की वापसी को लेकर बिल पेश करने का वक्त आया तो वह हंगामे पर उतारू था।
इससे मुद्दों को लेकर विपक्षी दलों में गंभीरता की कमी का पता चलता है। पता चलता है कि वे देश और जन सरोकारों को लेकर कितने संवेदनहीन हैं। दरअसल, हमारे विपक्ष के पास अपनी नकारात्मक राजनीति को शोरगुल से दबाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है। वे जानते हैं कि तमाम अड़चनों के बावजूद मोदी सरकार अपने दूसरे कार्यकाल का भी आधा हिस्सा सफलतापूर्वक पूरा करने के करीब है। इस सरकार पर भ्रष्टाचार का कोई दाग नहीं है। इस सरकार के मुखिया का जनता से सीधा संपर्क है। तमाम दुष्प्रचारों के बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता पहले की तरह बनी हुई है। वैश्विक कोरोना महामारी जैसे संकट से यह सरकार बखूबी निपटने में कामयाब रही है और अब दुनिया का सबसे बड़ा और सबसे सफल वैक्सीनेशन अभियान चला रही है।
दूसरी तरफ विपक्ष तमाम मैनेजर और मैनेजमेंट के बावजूद आज तक मोदी के सामने एक नेता तक खड़ा नहीं कर पाया है। उनके कद का नेता तो खैर दूर की कौड़ी लगती हो। कॉन्ग्रेस के युवराज का ग्राफ चढ़ाने की जितनी जोर से कोशिश होती है, वह उतनी ही रफ्तार से ढलान पर लोट जाते हैं। पालतू मीडिया, लिबरल और वामपंथी गैंग के वैश्विक प्रोपेगेंडा के बावजूद भारत का विपक्ष न तो अपनी जमीन बना पाया है और न अपनी साख। उसके खाते में ऐसा कुछ नहीं है जिसे लेकर वह जनता के बीच जा सके।
जिन पाँच राज्यों में विधानसभा चुनाव सिर पर है वहाँ विपक्ष मुकाबले में नहीं दिखती। जिस एक पंजाब से उम्मीदें थी, वहाँ अमरिंदर सिंह के अलग राह पकड़ने ने विपक्ष के सपनों को अभी ही धूमिल कर दिया है। लिहाजा उसके पास अपनी नकारात्मक राजनीतिक को शोरगुल की आड़ में छिपाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। वह कभी नहीं चाहेगा कि संसद का सत्र सामान्य तरीके से चले। लोकतांत्रिक संस्थाएँ और विमर्श की राजनीति मजबूत हो। क्योंकि इससे उसका एजेंडा बेनकाब होगा। प्रोपेगेंडा तार-तार होगा। लिहाजा 2024 जितना करीब आते जाएगा, यह शोरगुल उतना बढ़ते जाएगा। वह कभी शाहीनबाग तो कभी किसानों का रूप धर देश विरोधी नए-नए उपक्रम करने के प्रयास करेगा।
ऐसे में सवाल उठता है कि ऐसे विपक्ष का क्या इलाज है? क्या लोकतंत्र के नाम पर ऐसे विपक्ष को ढोते रहना चाहिए? लोकतंत्र में माई-बाप जनता होती है। यकीनन इस नासूर का इलाज भी जनता को ही करना होगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि अगले साल राज्यों के चुनाव इसका ट्रेलर होंगे और 2024 में जनता विपक्ष के इस नकारात्मक राजनीतिक दर्शन की नसबंदी कर ही दम लेगी।