Thursday, May 2, 2024
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कहीं 11 किसानों को ज़िंदा जला कर मार डाला, तो कहीं 17 भिक्षुओं को घसीट कर आग में झोंका: बीरभूम से पीछे बंगाल का इतिहास और भी है

बता दें कि जब नानूर हत्याकांड हुआ था, तब राज्य में CPM की सरकार थी और TMC से जुड़े 11 भूमिहीन मजदूरों को ज़िंदा जला कर मार डाला गया था। ये घटना बीरभूम जिले के दक्षिणी-पूर्वी क्षेत्र में स्थित नानूर में हुई थी।

पश्चिम बंगाल के बीरभूम स्थित रमपुरहाट में हुई हिंसा ने पूरे देश को दहला दिया है, जहाँ 8 लोगों को उनके घर में बंद कर ज़िंदा जला कर मार डाला गया। सत्ताधारी तृणमूल कॉन्ग्रेस (TMC) के एक स्थानीय नेता भादू शेख की बमबारी में हत्या के बाद आक्रामक भीड़ ने इस घटना को अंजाम दिया। अब तक चुनाव में भाजपा कार्यकर्ताओं की राजनैतिक हत्याओं पर चुप लिबरल गिरोह को भी अब मुस्लिमों की हत्याओं के बाद पश्चिम बंगाल में ‘जंगलराज’ दिखने लगा है।

लेकिन, ये पहली बार नहीं है जब पश्चिम बंगाल में इस तरह की हिंसा की घटना हुई हो। पहले भी नरसंहार होते रहे हैं और इन्हें कभी वहाँ की वामपंथी सरकार का समर्थन हासिल था तो अब TMC के गुंडों पर आरोप लगते हैं। माओवादियों की हिंसा के बारे में भी कई ख़बरें आपने सुनी होगी। ताज़ा बीरभूम हिंसा की जाँच CBI कर रही है। इसमें अब एक नानूर हत्याकांड का भी नाम आया है, जो 2001 का है। TMC के स्थानीय जिलाध्यक्ष अनुब्रत मंडल में पुलिस को इसी हत्याकांड की तर्ज पर कार्रवाई करने की माँग की है।

बता दें कि जब नानूर हत्याकांड हुआ था, तब राज्य में CPM की सरकार थी और TMC से जुड़े 11 भूमिहीन मजदूरों को ज़िंदा जला कर मार डाला गया था। ये घटना बीरभूम जिले के दक्षिणी-पूर्वी क्षेत्र में स्थित नानूर में हुई थी। इस नरसंहार के बाद तब की सत्ताधारी वामपंथी सरकार ने मृतकों को डकैत करार दिया था। जबकि पार्टी की अंदरूनी कलह में पहले भी ऐसी हत्याएँ वहाँ हो चुकी थीं। 44 आरोपितों में 4 CPM के नेता थे और 40 समर्थक। जबकि पुलिस तब इस बात को नकारती रही थी।

इसी तरह की वीभत्स घटना अप्रैल 1982 में हुई थी, जब ‘आनंद मार्ग संप्रदाय’ के 17 साधुओं को टैक्सी से खींच कर बाहर निकाला गया और फिर ज़िंदा जला कर मार डाला गया था। ये घटना कोलकाता के बिजोन सेतु पर हुई थी। तब भी CPM की ही सरकार थी और उसे लगता था कि ‘आनंद मार्ग संप्रदाय’ किसी अन्य राजनीतिक दल का समर्थन कर रहा है। मृतकों भिक्षुओं में एक महिला साध्वी भी थीं। पश्चिमी मिदनापुर में इसी तरह जनवरी 2000 में 5 लोगों को घसीट कर ज़िंदा जला दिया गया था।

ये घटना TMC के नेता रहे बख्तर मंडल के घर पर हुई थी। इस घटना का आरोप भी तत्कालीन सत्ताधारी वामपंथियों पर ही लगा। इन सभी घटनाओं में पीड़ित विपक्षी दलों से सहानुभूति वाले थे और आरोपित सत्ता पक्ष के। लेकिन, बीरभूम के बगतुइ गाँव में हुई हालिया घटना सत्ताधारी पार्टी के बीच आतंरिक कलह का ही परिणाम बताई जा रही है। राज्य के लगभग सभी लोकतांत्रिक संस्थानों और समूहों पर पूर्ण नियंत्रण रखने वाली TMC की आतंरिक कलह अब पार्टी के नियंत्रण से भी बाहर चली गई है।

पिछले कुछ वर्षों में जब-जब भाजपा, कॉन्ग्रेस और सीपीएम ने अपने कार्यकर्ताओं की हत्याओं का मामला उठाया, तब-तब टीएमसी ने उन्हें ये कह कर चुप कराने की कोशिश की कि राजनीतिक संघर्ष में सबसे ज्यादा उसके ही कार्यकर्ताओं की मौतें हुई हैं। जबकि विपक्षी दलों का कहना है कि इनमें से अधिकतर TMC का अंदरूनी संघर्ष ही था और आरोपित भी सत्ताधारी पार्टी से ही थे। पार्टी इसे अब अपने ही सहानुभूति के लिए इस्तेमाल कर रही है।

पश्चिम बंगाल में यूँ तो दंगों का इतिहास रहा है और ब्रिटिश काल से लेकर आज़ादी के बाद के कई वर्षों तक यहाँ हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष होते रहे हैं। पड़ोसी मुल्क बांग्लादेश से यहाँ अवैध रूप से मुस्लिम घुसपैठियों को बसाने का मुद्दा भी गर्म रहा है। 1946 में कलकत्ता में दंगे हुए थे और फिर मुस्लिम भीड़ ने हजारों की संख्या में हिन्दुओं को सितंबर-अक्टूबर 1946 में नोआखली में मारा। लाखों हिन्दू बेघर हुए। इसी तरह जनवरी 1979 में मरीचझापी से आए 5000 से भी अधिक हिन्दू शरणार्थियों को मार डाला गया था।

1980 से लेकर 1983 तक असम से लेकर त्रिपुरा तक शरणार्थी बंगाली हिन्दुओं का कत्लेआम मचाया जाता रहा। इस तरह देखें तो पश्चिम बंगाल में हिंसा की बात कोई नई नहीं है और इसमें राजनीति भी पहले से रही है। 1970 में कैसे CPM के गुंडों ने सैँबरी दो कॉन्ग्रेस नेताओं की हत्या कर के उनकी माँ को बेटों के खून से सना चावल खिलाया गया, ये इतिहास में दर्ज है। इसी तरह मार्च 2007 में CPM के गुंडों के हमले में 14 किसानों की मौत हो गई थी।

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ऑपइंडिया स्टाफ़
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कार्यालय संवाददाता, ऑपइंडिया

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