जब अभियुक्त हिन्दू हो, पीड़ित कट्टरपंथी तब ये शरियत से चलते हैं। तब फतवा निकलता है, तब इसी राष्ट्र के संविधान की होली जला कर कट्टरपंथी वही करता है जो एक बड़ा कट्टरपंथी कहीं से बैठ कर आदेश देता है।
चूँकि भाषाई बाध्यता है कि इस नृशंस हत्या का जश्न मनाने वाले जिहादी मानसिकता के मुसलमानों को आप एक स्तर तक ही कुछ कह सकते हैं वरना इनकी परवरिश तो नाली के कीचड़ में मिली विष्ठा में लोटते उस जीव की तरह ही है जिसका नाम लेना मैं चाहता नहीं।
जिस धर्म के हजारों बड़े मंदिर तोड़ दिए गए, उनकी आस्था पर सिर्फ इस मकसद से हमला किया गया कि ये टूट जाएँ और यह विश्वास करने लगें कि उनका भगवान भी स्वयं के घर की रक्षा नहीं कर पा रहा, उस धर्म के लोग जब अपनी आस्था को पहचानने को खड़े हुए हैं तो उन्हें स्कूल और हॉस्पिटल की याद दिलाई जा रही है?
बंधु प्रकाश गलत राज्य में पैदा हुआ, गलत जाति-धर्म का था, गलत राज्य में मारा गया। मरने के बाद की चर्चा में बने रहने के लिए आपको निर्दोष होना मात्र 'सही' नहीं होता। आपको किसी खास जाति, किसी खास मजहब में होना होता है, किसी खास तरह के हत्यारे का शिकार बनना पड़ता है, और वहाँ सत्तारूढ़ पार्टी कौन सी है, इसका भी बहुत असर पड़ता है।
बुद्ध बोलते रहे, "अब इस मायावती नामक जीव को ही देखो। जब तक एक जाति को दूसरे से लड़ा कर, भटका कर, झूठे वादों पर विश्वास दिला कर इनका काम निकलता रहा, तब तक ठीक था। नाम मेरा लेते हैं और आंदोलनों के नाम पर हिंसा और आगजनी से इनका इतिहास पटा पड़ा है।"
चाकुओं से गोदने और रेतने में वही अंतर है जो झटका और हलाल में होता है। एक में पीड़ित को सिर्फ मारना उद्देश्य होता है, एक में तड़पा कर मारना, और शायद कोई मैसेज देना।