Tuesday, November 26, 2024
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अजीत भारती

पूर्व सम्पादक (फ़रवरी 2021 तक), ऑपइंडिया हिन्दी

जब रिपोर्टर मरे बच्चे की माँ से भी ज़्यादा परेशान दिखने लगें…

नर्स एक बीमार बच्चे के बेड के पास खड़ी होकर कुछ निर्देश दे रही है और हमारे पत्रकार माइक लेकर पिले पड़े हैं! ये इम्पैक्ट किसके लिए क्रिएट हो रहा है? क्या ये मनोरंजन है कुछ लोगों के लिए जिनके लिए आप पैकेज तैयार करते हैं? फिर आपने क्या योगदान दिया इस मुद्दे को लेकर बतौर पत्रकार?

Netflix पर आई है ‘लैला’, निशाने पर हैं हिन्दू जिन्हें दिखाया गया है तालिबान की तरह

वो पीढ़ी जिसने जब से होश संभाला है, या राजनैतिक रूप से जागरुक हुए हैं, उन्होंने भारत का इतिहास भी ढंग से नहीं पढ़ा, उनके लिए ऐसे सीरिज़ ही अंतिम सत्य हो जाते हैं। उनके लिए यह विश्वास करना आसान हो जाता है कि अगर इस्लामी आतंक है तो हिन्दू टेरर क्यों नहीं हो सकता।

अप्रिय नितीश कुमार, बच्चों का रक्त अपने चेहरे पर मल कर 103 दिन तक घूमिए

हॉस्पिटल का नाम, बीमारी का नाम, जगह का नाम, किसकी गलती है आदि बेकार की बातें हैं, क्योंकि सौ से ज़्यादा बच्चे मर चुके हैं। इतने बच्चे मर कैसे जाते हैं? क्योंकि भारत में जान की क़ीमत नहीं है। हमने कभी किसी सरकारी कर्मचारी या नेता को इन कारणों से हत्या का मुकदमा झेलते नहीं देखा।

सरकारी डॉक्टर की जान बनाम मुस्लिम वोटबैंक को निहारती निर्मम ममता जो दंगे पीती, खाती और सोती है

ये भीड़ इतनी जल्दी कैसे आती है, कहाँ हमला करती है और किधर गायब हो जाती है? क्या पुलिस ने नहीं देखा इन्हें? क्या हॉस्पिटल में सुरक्षा के लिए पुलिस आदि नहीं होती या फिर इस पहचानहीन भीड़ का सामूहिक चेहरा ममता की पुलिस ने पहचान लिया और उन्हें वो करने दिया जो वो कर गए?

‘अच्छा वाला ओवैसी’ एक छलावा है, दोनों भाई ही एक ही विकृत मानसिकता के शिकार हैं

ओवैसी ने वायु सेना के इस घोषणा पर कहा कि मोदी से पूछ लेते क्योंकि उनको तो रडार की बहुत जानकारी है, और वो तो दुश्मनों के इलाके तक में जहाज़ भेज कर एयर स्ट्राइक करते हैं। वायु सेना को तो मोदी को फोन कर लेना चाहिए था, उनके पाँच लाख बच जाते।

आज़म चड्डी खान की ज़रूरत है इस देश को, ऐसे लोगों को ज़िंदा रखा जाना चाहिए

आज़म खान की पहचान ही इस बात से है कि वो निहायत ही घटिया बातें बोलते हैं। वो अगर बेहूदगी न करें तो देश को पता भी न चले कि खुद को समुदाय विशेष का ज़हीन नेता मानने वाला, और प्रोजेक्ट करने वाला, ये आदमी किस दर्जे का धूर्त है।

सोशल मीडिया पोस्ट के लिए पत्रकारों (या आम नागरिकों) की गिरफ़्तारी पर कहाँ खड़े हैं आप?

क्या हमारे पास इतना समय है कि ऐसे सड़कछाप पत्रकारों के ट्वीट पर उसके घर दो पुलिस वाले को भेज कर उठवा लिया जाए जबकि हर मिनट बलात्कार हो रहे हैं? क्या सरकारों की पुलिस या कोर्ट जैसी संस्थाओं को पास ऐसी बातों को लिए समय है जबकि करोड़ से अधिक गंभीर केस लंबित पड़े हैं?

अलीगढ़ और रवीश: शाह ने नोचा इंटरनेट का तार, मोदी ने तोड़ा टावर, नहीं हो रहा दुखों का अंत

अलीगढ़ मुद्दे के साम्प्रदायिक न होने की वजह से अब भारत का समुदाय विशेष शर्मिंदा नहीं हैं, न ही बॉलीवुड की लम्पट हस्तियाँ शर्मिंदगी के बोझ से मेकअप पिघला पा रही हैं, न ही पत्रकारों में वो मुखरता देखने को मिल रही है कि वो अपनी बेटी से नज़रें नहीं मिला पा रहे कि वो उनके लिए कैसा समाज छोड़े जा रहे हैं।