Wednesday, November 6, 2024
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सोहराबुद्दीन-प्रजापति एनकाउंटर मामला; अदालत ने कहा सीबीआई नेताओं को फंसाना चाहती थी

सोहराबुद्दीन शेख और तुलसीराम प्रजापति एनकाउंटर मामले में एक नया मोड़ आया है। विशेष अदालत ने सीबीआई पर तल्ख़ टिपण्णी करते हुए कहा है कि जांच एजेंसी का मकसद सच्चाई तक पहुंचना नहीं बल्कि नेताओं को फंसाना था। अदालत ने कहा कि मुठभेड़ की जांच शुरू करने से पहले ही सीबीआई ने सबकुछ तय कर लिया था कि किस तरह से और कौन से राजनितिक व्यक्तियों को इस मामले में घसीटना है। मालूम हो कि 2121 दिसम्बर को सीबीआई के विशेष न्यायाधीश एसजे शर्मा ने इस मामले में सभी आरोपियों को बरी करने का निर्णय सुनाया था। अपने 350 पन्नो वाले फैसले में उन्होंने ये तल्ख़ टिपण्णी की।

अदालत के फैसले में कहा गया है;

“मेरे समक्ष पेश किए गए तमाम सबूतों और गवाहों के बयानों पर करीब से विचार करते हुए मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि सीबीआई जैसी एक शीर्ष जांच एजेंसी के पास एक पूर्व निर्धारित सिद्धांत और पटकथा थी, जिसका मकसद राजनीतिक नेताओं को फंसाना था। सीबीआई ने मामले की अपनी जांच के दौरान सच्चाई को सामने लाने के बजाय किसी अन्य चीज पर काम किया।”

आगे इसी फैसले में अदालत ने सीबीआई पर सख्त टिपण्णी करते हुए कहा;

“पूरी जांच एक किसी तरह राजनेताओं को फंसाने के क्रम में गढ़ी गई कहानी पर केंद्रित थी। सीबीआई ने किसी तरह साक्ष्य तैयार किया और आरोपपत्र में गवाहों का बयान आपराधिक दंड प्रकिया की धारा 161 या धारा 164 के तहत दर्ज किया गया झूठा बयान पेश किया।”

अदालत के बयान से ये साफ़ है कि उसकी नजर में केंद्रीय जांच एजेंसी ने जांच की बजाय एक कहानी गढ़ी और कुछ लोगों को इस मामले में घसीटने के लिए उन्हें आरोपित बनाया गया। अदालत का सीबीआई पर गवाहों के झूठे बयान पेश करने वाली टिपण्णी भी जाँच एजेंसी के कार्यप्रणाली पर काफी सवाल खड़ी करती है। अदालत का मानना था कि जांच में गवाहों के गलत बयान रिकॉर्ड किये गए।

ज्ञात हो कि इस मामले की सुनवाई के दौरान करीब 92 गवाह अदालत में अपने पुलिस को दिए गए बयानों से मुकर गए थे। न्यायमूर्ति शर्मा ने कहा कि उन्हें साफ़-साफ़ प्रतीत हो रहा था कि ये गवाह अदालत के सामने सच बोल रहे हैं।

“मुझसे पहले वाले जज ने आरोपित नंबर 16 (अमित शाह) को आरोपमुक्त करते हुए ये साफ़-साफ़ कहा था कि जांच राजनीति से प्रेरित थी।”

– न्यायमूर्ति एसजे शर्मा, विशेष अदालत

बता दें कि इसी मामले में अमित शाह सहित 15 अन्य आरोपियों को 2014 में आरोपमुक्त कर बरी किया जा चुका है जबकि बाँकी के सभी आरोपियों को विशेष अदालत ने इस महीने बरी कर दिया। ये मामला पुलिस और अपराधियों में हुए मुठभेड़ों से जुड़ा है। नवम्बर 2015 में गुजरात और राजस्थान की एसटीएफ ने अपराधी सोहराबुद्दीन शेख को एक मुठभेड़ में मार गिराया था और इनके लगभग एक साल बाद उसके सहयोगी तुलसीराम प्रजापति को भी एक एनकाउंटर में मार गिराया गया था। सीबीआई के अनुसार ये फर्जी मुठभेड़ थे। इस मामले में अधिकतर अभियुक्त नेता और पुलिस अधिकारी थे जिनमे सभी बरी हो चुके हैं।

इसी महीने दिए गये अपने निर्णय में न्यायमूर्ति एसजे शर्मा ने अपने कार्यकाल का अतिम फैसला सुनाते इस मुठभेड़ को फर्जी मानने से इनकार कर दिया था और कहा था कि सीबीआई द्वारा पेश किये गए सबूत अभियुक्तों को दोषी ठहरानी के लिए काफी नहीं हैं। शर्मा इस महीने के अंतिम तारीख को रिटायर हो रहे हैं।

त्रिपुरा निकाय चुनावों में भाजपा का क्लीन स्वीप, अमित शाह जनवरी में करेंगे दौरा

भारतीय जनता पार्टी ने त्रिपुरा में हुए निकाय चुनावों में भारी जीत दर्ज की है। पार्टी ने राज्य के सभी 11 नगरपालिकाओं पर जीत का परचम लहराया है। वहीं राजधानी अगरतला महानगरपालिका की सभी चार सीटों पर क्लीन स्वीप करते हुए भाजपा ने विपक्षी दलों को चारों खाने चित कर दिया है। पार्टी के त्रिपुरा प्रभारी सुनील देवधर ने एक ट्वीट के माध्यम से इसकी जानकारी देते हुए भाजपा की राज्य इकाई को बधाई दी। उन्होंने लिखा;

“फिर से! त्रिपुरा से बहुत अच्छी खबर आ रही है। त्रिपुरा की 11 में से 11 नगरपालिकाओं पर जीत के लिए त्रिपुरा भाजपा एवं बिप्लब देव को हार्दिक बधाई। कांग्रेस और सीपीआईएम की लगभग सभी सीटों पर जमानत जब्त।”

वहीं त्रिपुरा के मुख्यमंत्री बिप्लब देव ने भी इस जीत के लिए कार्यकर्ताओं का धन्यवाद किया।

मुख्यमंत्री ने कहा कि इस जीत से यह साबित हो गया है कि राज्य की जनता ने प्रधानमंत्री मोदी की नीतियों में फिर से भरोसा जताया है। भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव राम माधव ने कहा कि अब 20 में से 11 नगरपालिकाओं पर भाजपा का कब्जा है।

राम माधव ने लिखा;

“निकाय चुनावों में 11 नगरपालिका सीटों पर जीत के लिए बिप्लब देव और त्रिपुरा भाजपा को हार्दिक बधाई। करारी हार को सामने देखते हुए सीपीएम कल दोपहर बीच चुनावों में से ही भाग कड़ी हुई। अब राज्य की 20 में से 11 नगरपालिका सीटों पर भाजपा का कब्जा है।”

याद हो कि इसी साल हुए चुनावों में भाजपा ने वाम का गढ़ माने जाने वाले त्रिपुरा में बड़ी जीत दर्ज की थी। बीस सालों से वहां सत्ता सम्भाल रहे माणिक सरकार की सीपीएम को हार का सामना करना पड़ा।

उधर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह अगले साल होने वाले लोकसभा चुनावों के लिए पार्टी की तैयारियों का जायजा लेने पांच जनवरी को त्रिपुरा का दौरा करने वाले हैं। पार्टी के मुख्या प्रवक्ता अशोक सिन्हा ने अधिक जानकारी देते हुए कहा;

‘अमित शाह जी का पांच जनवरी को विवेकानंद ग्राउंड पर ‘पृष्ठ प्रमुख सम्मेलन’ को संबोधित करने के लिए राज्य का दौरा करने का कार्यक्रम है। सम्मेलन के दौरान वह संगठन के प्रदर्शन की समीक्षा करेंगे और 2019 के आम चुनावों के लिए ‘पृष्ठ प्रमुखों’’ को कुछ कार्य सौंपेंगे।’’

NIA द्वारा पकड़े आतंकी 25 किलो ‘मसाले’ से चिकन मैरिनेट करने वाले थे

माओ की नाजायज़ वामपंथी कामभक्त औलादों को यूँ ही गाली नहीं पड़ती है, ये मोदी-विरोध में इतना गिर चुके हैं कि कल को कोई कह दे कि बच्चे अपने माँ-बाप की पैदाइश होते हैं, तो ये कहने लगेंगे कि ‘नहीं, हम तो माओ के प्रीजर्व्ड सेमेन से जन्मे हैं’।

NIA की टीम ने ISIS के कुछ आतंकी पकड़े और उनसे बरामद की गई वस्तुओं को पब्लिक में दिखाया। उसमें, यूँ तो वैसे भी हथियार थे ही, लेकिन बने-बनाए बम या शायद न्यूक्लियर मैटेरियल नहीं मिलने से इन लम्पटों में खासा रोष है। रोष इसलिए कि कट्टे, रॉकेट लॉन्चर, और 25 किलो बारूद के साथ सौ से ज़्यादा अलार्म क्लॉक और सिम कार्ड तथा फोन मिले।

ज़ाहिर तौर पर इन सब चीजों से सब्जी बनाई जाती है, और अलार्म क्लॉक का प्रयोग गरीब बच्चों को पढ़ाई के लिए जल्दी जगाने के लिए किया जाता है। वामपंथी पत्रकार सब परेशान हो गए कि विद्यार्थियों को पकड़ लिया, वो तो रसायन विज्ञान का प्रोजेक्ट बना रहे थे। इन बुद्धिजीवियों ने सुतली बम पर अपना फ़ोकस लगातार बनाए रखा जैसे कि आतंकी सुतली बम नए साल का स्वागत करने के लिए रखे हुए थे।

एक टर्म आपलोग हमेशा सुनते होंगे ‘IED’, जिसका शब्दशः मतलब है: जुगाड़ से बनाया गया बम। इसमें आप डायनामाइट या टीएनटी जैसे परम्परागत विस्फोटक का प्रयोग नहीं करते, बल्कि बारूद बनाने का रॉ मैटेरियल ले आते हैं, और उसे अलग-अलग ज़रूरतों के अनुसार प्रयोग करते हैं। ये रॉ मेटैरियल कहीं से भी लिया जा सकता है।

सुतली बम से भी बारूद मिलता है, और बाकी बारूद का कैमिकल पहले से निकाल कर रखा हुआ था। ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि अगर आप एक बड़ी मात्रा में बारूद ख़रीदते हैं, या परम्परागत विस्फोटक सामान ख़रीदते हैं तो आपके पकड़े जाने की संभावना बढ़ जाती है।

लेकिन वामपंथी पत्रकार, और मोदी-विरोधी गिरोह के दोमुँहे फेसबुकिया विश्लेषक, सारी चीज़ों को दरकिनार करते हुए कि आखिर सौ से ज़्यादा अलार्म घड़ियों और सिम कार्ड का ये लोग अचार ही तो डालने वाले थे, ये लिखते पाए गए कि देखो मोदी सरकार ने कट्टे चलाने वाले आतंकी पकड़े हैं।

ये लोग इतने गिरे हुए हैं कि पुल बनने पर नाव चलाने वालों की आजीविका की बात करते हैं, और पुल न बने तो केले के तनों पर नदी पार करके स्कूल जाते बच्चों की तस्वीर लगाकर सरकार से सवाल पूछते हैं। इसलिए, इन गंदी नाली के कीड़ों को वही सड़ाँध वाले दिन चाहिए जब हर त्योहार पर बम फटा करते थे।

ये जो फ़ेसबुकिया स्मार्टी पैन्ट्स हैं, और जो ट्विटर पर अँगूठों से विष्ठा करते रहते हैं, वो एके सैंतालिस भी देख लेंगे तो कहेंगे कि ये तो लोहे के कल-पुर्ज़े हैं, भारत के जेम्स बॉन्ड ने लोहा पकड़ा है! इन्होंने बिलकुल वही किया है। 25 किलो पोटेशियम नाइट्रेट, अमोनिया नाइट्रेट, सल्फ़र आदि तो चिकन को मैरिनेट करने के लिए रखा था आतंकियों ने।

अपने ही देश की सुरक्षा एजेंसियों और क़ाबिल अफ़सरों को इस तरह से नीचा दिखाना इनका टी-टाइम टाइमपास है। वामपंथी चिरकुट पत्रकार गिरोह लगातार ये देख रहा है कि अगर ये सरकार रही तो आतंकी घटनाएँ तो बंद होंगी ही, नक्सलियों का भी शिकार चलता रहेगा। यही कारण है कि प्रधानमंत्री की हत्या की साज़िश रचनेवाला व्यक्ति कभी एक्टिविस्ट हो जाता है, तो कभी कवि कहलाता है।

इनकी छटपटाहट देखते ही बनती है जब एक के बाद एक आतंकी, नक्सली आतंकवादी और आतंकियों के हिमायती लगातार पकड़े जा रहे हैं, और रात के दो बजे भी सुप्रीम कोर्ट खुलवाने के बावजूद वो तथाकथित एक्टिविस्ट जेल में बंद किए जा रहे हैं।

यही कारण है कि आतंकी हमला हो जाने पर यही माओवंशी ‘कड़ी निंदा’ का मजाक बनाते हैं जैसे कि विश्व के किसी भी जगह के राजनेता ने ऐसी घटनाओं पर प्रेस कॉन्फ़्रेंस में ‘कड़ी निंदा’ और ‘बदला लेंगे’ के अलावा कुछ और कहा हो। आखिर और क्या कहा जा सकता है प्रेस से? जहाँ तक करने की बात है, तो वो तो राजनाथ सिंह ने कितना किया है, वो सबके सामने है।

कोई इतने विस्फोटक लेकर पकड़ा जाता है तो वो इसका मजाक बनाते हैं, और अगर कल को राजनाथ सिंह प्रेस कॉन्फ़्रेंस में एक रॉकेट लॉन्चर लेकर पहुँच जाएँ कि ‘इसी से हम आतंकियों का ख़ात्मा करेंगे’ तो यही चिरकुट कहेंगे कि ‘अरे गृहमंत्री पद की गरिमा बनाए रखिए!’

कुल मिलाकर बात बस इतनी है कि जब भी आतंकी पकड़े जाते हैं, इन बेचारों के गुर्दों में जलन होती है। क्योंकि कहीं न कहीं ऐसे लोग, जो भारत को तोड़ना चाहते हैं, यहाँ की जनता में डर भरना चाहते हैं, हनुमान के स्टिकर को धार्मिक आतंक कहते हैं, गाय की रक्षा करनेवालों को आतंकवादी कहते हैं, बम पकड़े जाने पर उसकी क्वालिटी और क्वांटिटी पर डिबेट करते हैं, ये मानते हैं कि पुराना सिस्टम वापस लौट आए जहाँ से इनकी फ़ंडिंग होती थी, और ऑलिव ब्रान्च धरा दिया जाता था।

अब इनको बुद्धिजीवी बनने के पैसे नहीं मिलते, इनके एनजीओ पर ताले लग रहे हैं जो कि कन्वर्जन से लेकर आतंकी गतिविधियों में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से शामिल रहे हों, तो ज़ाहिर है कि अंदर का कफ ऐसे ही दुर्गंध फेंकता मवाद बनकर बाहर आएगा। ये इनकी सोच और लिखे हुए पोस्ट में छन-छनकर बाहर आता रहा है, आता रहेगा।

लेकिन अब बात यह है कि इनके गुर्दे छीलने के लिए और पिछले कुछ सालों में इनकी नंगई को एक्सपोज करनेवाले बहुत आ गए हैं। अब इनको पोस्ट पर इनको गाली ही पड़ती है। जो इनकी बड़ाई करते हैं, उनके नामों पर सरसरी निगाह डालने से पता चल जाता है कि इनकी विचारधारा कोई भी पंथ नहीं, बल्कि धर्म के नाम पर आतंकियों को प्रोत्साहन देना है।

ये जो सारे आतंकवादी पकड़े गए हैं, सब के सब समुदाय विशेष के हैं, लेकिन इनका फ़ोकस ‘इस्लामी आतंक’ से कहीं दूर, ‘ये तो सुतली बम है’ पर है। अभी ये इस्लामी आतंक नहीं है क्योंकि शायद आईसिस के झंडे पर ‘अल्लाहु अकबर’ दूसरी भाषा में होने के कारण ये पहचान नहीं पा रहे। हनुमान तो खैर हर जगह दिखते हैं, तो उनका पोस्टर लगाना हिन्दू आतंक है। तो ऐसा है लम्पटो, सुतली बम के सिरे जोड़ लो, आग लगाकर बैठ जाओ, उसी से तुम्हारी जलन मिटेगी क्योंकि न रहेगा वो, न होगी जलन।

अलीगढ में दर्जन भर गायों को दफनाने का मामला; नाराज ग्रामीणों ने किया प्रदर्शन

अलीगढ के इगलास थाना इलाके में मथुरा रोड पर अज्ञात लोगों ने नहर किनारे एक गड्ढे में जिंदा गायों को दफन करने का मामला सामने आया है। कहा जा रहा है कि सुबह जब लोग खेत में पहुंचे तो उन्हें इसकी भनक लगी और फिर उन्होंने उन गायों को नकालने के लिए जद्दोजहद शुरू कर दी। इतने में वहां सैकड़ों ग्रामीण इकट्ठे हो गए और उन्होंने पुलिस तथा प्रसाशन के खिलाफ नारेबाजी शुरू कर दी। ख़बरों के अनुसार पुलिस ने मौके पर पहुँच कर लोगों को समझा-बुझा कर शांत कराया। पुलिस अधीक्षक (ग्रामीण) मणिलाल पाटीदार ने इस बारे में विशेष जानकारी देते हुए कहा;

“हो सकता है यह गोवंश पूर्व में नहर किनारे दफन कर दी गई हों, जो आज कुछ लोगों को दिखाई दे गई हैं। लोगों ने इसे बढ़ाचढ़ाकर पेश किया और उपद्रव किया है। उपद्रवियों पर कठोर कार्रवाई की जाएगी।”

एसपी के बयान से लग रहा है कि पुलिस का मानना है कि गायों को काफी पहले मरने के बाद यहाँ दफ़न किया गया होगा और कुछ लोगों ने इसके मद्देनजर अफवाह फैला दी। दरअसल ये मामला टीकापुर गावं का है जहां नहर के किनारे बुधवार की रात कई गायों को मृत समझ कर दफनाया गया था। ऐसे में सुबह खेतों में काम करने पहुंचे किसानों ने ये देखा और फिर ग्रामीणों को इसकी सूचना दी जीके पाद प्रदर्शन और नारेबाजी चालू हो है। लोगों का कहना है कि करीब एक दर्जन गायों को ज़िंदा दफना दिया गया है। ताजा सूचना मिलने तक पुलिस ने मृत गायों को पोस्टमोर्टेम के लिए अस्पताल भेज दिया है।

पुलिस का दावा ग्रामीणों के उलट है। पुलिस ये मान कर चल रही है कि यहाँ ज़िंदा नहीं बल्कि मृत गायों को ही दफनाया गया था। मालूम हो कि अलीगढ़ में बुधवार को सैकड़ों किसानों द्वारा गायों से अपनी फसलें बचाने के लिए गायों को एक प्राइमरी स्कूल में बंद करने की खबर आई थी। प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि उन्होंने नहर किनारे गाय के शरीर के कुछ टुकड़े देखे और ताजा बंद किये गए गड्ढों को देख कर उन्होंने खुदाई का फैसला लिया। बाद में मशीन से भी खुदाई की गई। ग्रामीणों ने कहा कि एक ज़िंदा गाय को भी गड्ढे ने निकाला गया जो कि कुछ देर बाद ही मर गई। गोरक्षा वाहिनी ने इसे हिन्दू धर्म पर चोट करने की साजिश करार दिया है।

मुख्य पशु चिकित्साधिकारी डॉ. केवी वार्ष्णेय ने इस बारे में अधिक जानकारी देते हुए कहा;

“कुल 12 गायों का पोस्टमॉर्टम किया गया। उन गायों की मौत दम घुटने के कारण हुई थी। पांच गायों का इलाज अस्पताल में चल रहा है। मुझे नहीं पता कि वे गायें उसी जगह से खोदकर लाई गई थीं या कहीं और से यहां लाई गई हैं।”

वहीं डीएम सीबी सिंह ने दावा किया कि जिन्गायों का इलाज चल रहा है वो खुदाई वाली जगह के पास बैठी हुई मिली थी। उन्होंने ये भी कहा कि मृत गायों को ही दफनाया गया और लोग अफवाह फैला रहे हैं। कई थानों की पुलिस घटनास्थल पर कैम्प कर रही है और लोगों को समझाने-बुझाने का काम जारी है।

‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’: कांग्रेस ने दी फिल्म की रिलीज़ रोकने की धमकी

कल अनुपम खेर और अक्षय खन्ना अभिनीत फिल्म ‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ का ट्रेलर जारी किया गया जिसे दर्शकों और विश्लेषकों की काफी अच्छी प्रतिक्रया मिली। ये फिल्म पूर्व प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह के कार्यकाल के बारे में है और डॉक्टर सिंह के मीडिया सलाहकार रहे संजय बारू की इसी नाम की किताब पर आधारित है। वहीं कांग्रेस की तरफ से इस फिल्म कोल लेकर काफी तीखी प्रतिक्रिया आई है और फिल की रिलीज़ रोकने की धमकी दी गई है। महाराष्ट्र युवा कांग्रेस ने फिल्म के निर्माता को एक चिट्ठी लिखी है जिसमे फिल्म को उन्हें दिखाने की मांग की गई है।

महाराष्ट्र युवा कांग्रेस के अध्यक्ष सत्यजीत ताम्बे पाटिल ने कहा कि अगर फिल्म से कथित विवादित सीन को हटाया नहीं गया तो कांग्रेस पूरे देश में कहीं भी इसका प्रदर्शन नहीं होने देगी। साथ ही उन्होंने फिल्म की से पहले पहले कांग्रेस नेताओं के लिए स्पेशल स्क्रीनिंग किये जाने की मांग भी रखी। यूथ कांग्रेस ने अपने धमकी भरे पत्र में लिखा;

“ट्रेलर देखकर लगता है कि तथ्यों के साथ छेड़छाड़ की गई है और उन्हें पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी और कांग्रेस पार्टी को नुकसान पहुंचाने के लिए गलत तरीके से पेश किया गया है जोकि अस्वीकार्य है।”

फिल्म में मनमोहन सिंह को काफी लाचार हालत में दिखाया गया है और गाँधी परिवार को उनपर हावी होता दिखाया गया है। फिल्म में पूर्व पीएम मनमोहन सिंह का किरदार राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता अभिनेता अनुपम खेर ने निभाया है वहीं संजय बारू के किरदार में अक्षय खन्ना दिख रहे हैं। ये फिल्म 11 जनवरी से सिनेमाघरों में प्रदर्शित की जाएगी। राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता फिल्मकार हंसल मेहता ने फिल्म का स्क्रीनप्ले लिखा है। भारतीय जनता पार्टी ने भी अपने आधिकारिक सोशल मीडिया हैंडल से इन फिल्म के ट्रेलर को ट्वीट किया और इसकी प्रसंशा की।

वैसे बता दें कि यह पहला मौका नहीं है जब कांग्रेस ने किसी फिल्म का विरोध किया हो। कांग्रेस सरकारों के कार्यकाल के दौरान राजनीती पर आधारित कई फिल्मों को बैन भी किया जा चुका है। 1975 में रिलीज़ हुई गुलजार द्वारा निर्देशित फिल्म ‘आंधी’ का भी कांग्रेस ने कड़ा विरोध किया था। कांग्रेस द्वारा इस फिल्म को तत्कालीन प्रधानमन्त्री इंदिरा गाँधी पर आधारित बताया गया था। श्रीमती गाँधी के दो स्टाफ ने इस फिल्म को देखा जिसके बाद इसके प्रदर्शन की इजाजत दी गई लेकिन बाद में इस फिल्म को सरकार द्वारा बैन कर दिया गया। इसी तरह 1975 में रिलीज़ के लिए तैयार शबाना आजमी अभिनीत फिल्म ‘किस्सा कुर्सी का’ को लेकर कांग्रेस ने आपत्ति जताई थी। इतना ही नहीं, तत्कालीन कांग्रेस सरकार द्वारा इस फिल्म के प्रिंट्स और नेगटिव्स भी जला दिए गए गए थे।

अभी हाल ही में आपातकाल को लेकर बनी मधुर भंडारकर की फिल्म ‘इंदु सरकार’ को लेकर भी कांग्रेस ने कड़ा विरोध जताया था और इसके प्रदर्शन को रोकने की धमकी दी थी। इन धमकियों के मद्देनजर उस समय डायरेक्टर भंडारकर की सुरक्षा भी बढ़ानी पड़ी थी। नागपुर के एक होटल में कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने फिल्म की प्रेस कांफ्रेंस को रोक दिया था जी कारण से टीम को आधे रास्ते से ही लौटना पड़ा था। वहीं 2010 में आई प्रकाश झा की फिल्म ‘राजनीती’ को लेकर भी कांग्रेस पार्टी ने आपत्ति जताई थी। ऐसे में ताजा धमकियों के बाद अब देखना पड़ेगा कि ‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ को लेकर आगे कांग्रेस पार्टी का क्या रुख रहता है।

विपक्षी दलों के वॉकआउट के बीच लोकसभा में पारित हुआ तीन तलाक विल

करीब पांच घंटे तक चली जोरदार बहस के बाद आखिरकार तीन तलाक बिल लोकसभा में पास हो गया। इस बिल के अनुसार किसी मुस्लिम पुरुष का अपनी पत्नी को तीन तलाक देना दंडनीय अपराध होगा। बता दें कि बिल को अभी राज्यसभा में पास होना बांकी है। जिस तरह से विपक्ष ने इस बिल को लेकर वोटिंग के समय सदन से वॉकआउट किया, उस से राज्यसभा में इस बिल के पास होने के बहुत कम आसार नजर आ रहे हैं। हलांकि ये विधेयक पिछले साल भी लोकसभा में पास हो गया था लेकिन राज्यसभा में राजग के पास बहुमत न होने कारण अटक गया था। इसके बाद सरकार ने एक अध्यादेश लाकर तलाक ए बिद्दत को दंडनीय अपराध घोषित किया था लेकिन नियमानुसार अध्यादेश सिर्फ छः महीने तक ही प्रभावी रहता है या फिर इस दौरान संसद सत्र चालू हो जाये तो उसे संसद में पारित कराना पड़ता है।

पांच घंटे तक चली जोरदार बहस में सत्तापक्ष और विपक्ष के नेताओं ने अपनी-अपनी बात रखी और विधेयक के समर्थन और विरोध में अपने दलील रखे। चर्चा के दौरान कांग्रेस की अगुवाई में विपक्षी दलों ने इसे असंवैधानिक बताते हुए संयुक्त प्रवर समिति के पास भेजे जाने के लिए सरकार पर दबाव बनाया। उधर के चंद्रशेखर राव की पार्टी टीआरएस ने भी इस विधेयक का विरोध किया जिसे ओवैसी इफ़ेक्ट के तौर पर देखा जा रहा है क्योंकि एआईएमआईएम भी इस विधेयक के विरोध में है। वोटिंग के दौरान विधेयक के पक्ष में 245 मत पड़े वहीं इसके विरोध में महज 11 मत पड़े। इस हिसाब से यह विधेयक लोकभा में 245-11 से पारित हुआ।

बता दें कि वोटिंग के समय सदन में विपक्षी दलों के नाम पर सिर्फ वामदल और ओवैसी की पार्टी ही सदन में उपस्थित रहे जबकि कांग्रेस और सपा सहित सभी प्रमुख विपक्षी पार्टियों ने वॉकआउट किया। भाजपा की सहयोगी पार्टी जदयू ने भी वोटिंग में हिस्सा नहीं लिया। हलांकि लोकसभा में जदयू के सिर्फ दो सांसद हैं लेकिन राज्यसभा में जदयू के छः सांसद हैं। उधर बिल के पास होने के बाद विभिन्न नेताओं ने सोशल मीडिया के माध्यम से नरेन्द्र मोदी और उनकी सरकार की प्रसंशा की और धन्यवाद दिया। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने ट्वीट करते हुए कहा;

लोकसभा में तीन तलाक बिल सफलतापूर्वक पास कराने के लिए प्रधानमंत्री मोदी जी और पूरी केंद्र सरकार को बधाई। यह मुस्लिम महिलाओं के लिए समानता और गरिमा सुनिश्चित करने वाला एक ऐतिहासिक कदम है। मुस्लिम महिलाओं के प्रति दशकों के अन्याय के लिए कांग्रेस और अन्य दलों को माफी मांगनी चाहिए।”

बता दें कि तीन तलाक बिल के अनुसार किसी भी मुस्लिम पुरुष द्वारा तीन बार तलाक शब्द का प्रयोग कर के अपनी पत्नी को तलाक देने पर तीन साल तक की सजा का सामना करना पड़ेगा। वहीं भाजपा के वरिष्ठ नेता और राज्यसभा सांसद सुब्रह्मण्यम स्वामी ने उम्मीद जताया कि यह विधेयक राज्यसभा में भी पारित हो जायेगा। उन्होंने कहा कि हम तीन तलाक की तरह निकाह हलाला भी हम खत्म करना चाहते हैं। एक कार्यक्रम के दौरान स्वामी ने कहा;

“निकाल हलाला की प्रथा भी महिलाआें को अपमानित करने के लिए चली आ रही है जिसे अब नहीं होना चाहिए। ध्यान रहे कि निकाह हलाला के तहत एक व्यक्ति तलाक देने के बाद अपनी ही पत्नी से दोबारा शादी नहीं कर सकता जब तक कि वह किसी आैर से विवाह करके तलाकशुदा न हो जाए।”

लोकसभा में बिल के पारित होने बाद अब सबकी निगाहें राज्याभा पर टिकी हुई है जहां अब इस बिल को पेश किया जाना है। वहां भाजपा सबसे बड़ी पार्टी तो है लेकिन फिर भी अल्पमत में है। भाजपा के अपने ही साथियों जैसे कि जदयू का वोटिंग में हिसा नहीं लेना और लोजपा का अपने सांसदों को व्हिप नहीं जारी करना भाजपा के लिए सरदर्द बनता दिख रहा है। हलांकि बीजद और एआईडीएमके- इन दोनों बड़ी पार्टियों ने विधेयक पर “निष्पक्ष” रहने का रूख अपनाया। राज्यसभा में इन दोनों दलों की अछि उपस्थिति है, ऐसे में भाजपा इन्हें विधेयक के पक्ष में करने की पूरी कोशिश करेगी।

सबरीमाला विवाद: जेंडर इक्वालिटी, धार्मिक परम्पराएँ और धर्म

धर्म क्या है?

धर्म को आप या तो मानते हैं, या नहीं मानते। धर्म के भीतर के ईश्वर की सत्ता आप मानते हैं, या नकार देते हैं। इसमें बीच के रास्ते अगर आप बना रहे हैं तो आप भ्रम की स्थिति में हैं। यह बात भी जान लीजिए कि भ्रम की स्थिति भी कोई नकारात्मक स्थिति नहीं है। क्योंकि भ्रम से ही प्रश्नों का उदय होता है, और जिसे भ्रम का समाधान करना है, वो इनके उत्तर ढूँढता है। 

सनातन धर्म में हर तरह के दर्शन और मान्यताओं का सम्मान किया जाता रहा है। एकेश्वरवाद, बहुईश्वरवाद, साकार, निराकार, आस्तिक, नास्तिक, मंदिर जाने वाला, दिल में रखने वाला, पूजा और व्रत रखने वाले, सातों दिन मांसाहार करने वाले, पवित्रता की हर सीढ़ी चढ़ने वाले, नहीं नहाने वाले आदि सारे लोग सनातनी हैं क्योंकि कहीं भी एक ही तरह की बात को मानने या मनवाने की बात नहीं है।

चूँकि कोई एक धर्मग्रंथ नहीं है, तो कहीं भी कोई कोड नहीं है कि पूजा इसी की हो, सर्वश्रेष्ठ इसी को माना जाए, यही जगह एक परम तीर्थ है, यही सबसे बड़े देवता हैं, इसी व्रत को रखा जाए आदि। कहने का मतलब यह है कि संदर्भ और आपके प्रश्नों के समाधान के हिसाब से हर विधि, हर देवता और हर व्रत अलग तरीके से किए जाते हैं। मतलब, किसी के लिए शिव महादेव हैं, तो किसी के लिए विष्णु की पूजा ही उनके लिए मनचाहा फल दे सकती है। कहीं गणेश सबसे आगे हैं, तो कहीं हनुमान।

फिर आगे, एक ही देवता के अवतार हैं, जो अलग-अलग गुणों और प्रकृति के हैं। शिव जहाँ पार्वती के पति हैं, वहीं शिव के अवतार हनुमान ब्रह्मचारी हैं। कहीं राम शिव की पूजा करते मिलते हैं, कहीं हनुमान राम के सबसे बड़े भक्त हैं। कहीं कार्तिकेय को गणेश से ज़्यादा प्राथमिकता दी जाती है, तो कहीं गणेश को कार्तिकेय से। ये तो बस कुछ बातें हैं जो मैं आगे की बात समझाने के लिए लिख रहा हूँ, बाकी बातें जानकार लोग बेहतर समझा पाएँगे।

सनातनी परम्परा कभी भी एक मत को स्वीकारने वाली नहीं रही है। एक तरह से बहुईश्वरवादी समाजों में हर मत के सम्मान की बात बुनियादी तौर पर दिख जाती है कि ये भी हिन्दू, वो भी हिन्दू। एक मत से मतलब है कि जिसको जिसे, जिस तरह से मानना है, उसे उसकी स्वतंत्रता है क्योंकि वो उसका सत्य है जो इसके अनुभवों का निचोड़ है। 

हमेशा ही सनातन परम्परा में सवालों को मान्यातओं से ऊपर रखा गया है इसीलिए इतने देवता, इतने तरह के मंदिर, इतनी उपासना पद्धतियाँ, प्रकृति के हर हिस्से के लिए ग्रंथ, हर तरह के ज्ञान और सिद्धी के लिए वेद आदि आते चले गए। इसमें कहीं भी, रुकने की बात नहीं है, न ही यह कहा गया है कि इस जगह पर ऐसा ही होना चाहिए। और जब हमने पूछा कि क्यों तो वो चुप हो गए। उसका एक कारण है, जो आपको बताया जाएगा, या आप सही आदमी से पूछिए। 

अब आते हैं सबसे पहले पैराग्राफ़ की बात पर। अगर आप मानते हैं कि कम्प्यूटर होता है, तो आपको ये भी मानना चाहिए कि कम्प्यूटर बिजली से चलता है, उसमें फ़लाँ सॉफ़्टवेयर से विडियो चलेगा, ये टाइप करेंगे तो वो होगा आदि। आप वीएलसी सॉफ़्टवेयर खोलकर ये नहीं बोल सकते कि यार कहा था कि कम्प्यूटर में तो टाइपिंग हो जाती है, यहाँ तो कुछ हो ही नही रहा!

धर्म और परम्पराओं का सामन्जस्य 

उसी तरह धर्म को मानते हैं तो उसे उसकी पूर्णता में मानिए। आप सवाल कीजिए, बेशक और बेहिचक कीजिए लेकिन कम्प्यूटर पर पानी फेंककर ये आशा मत रखिए कि उसकी बैटरी चार्ज होने लगेगी। धर्म में मंदिर आते हैं। जब मैं मंदिर लिखता हूँ तो उसका तात्पर्य वैसे मंदिरों से है जो मंदिर बनाने के शास्त्र के हिसाब से बनाए गए हैं। हमारी-आपकी सोसायटी में जो मंदिर होते हैं, वैसे मंदिर भक्ति आंदोलन के खराब बायप्रोडक्ट हैं जिसके कारण ये बात प्रचलन में आ गई कि भक्त कहीं भी भगवान को रख सकता है।

ये भावना गलत नहीं है, लेकिन ये भावना है, और मंदिरों के बनाए जाने का अपना विज्ञान होता है। जो लोग इस बात को नहीं मानते, वो आगे न पढ़ें क्योंकि आपके लिए आगे कोरी बकवास ही लिखने वाला हूँ। मंदिर कहाँ बने, उसका गर्भगृह किस आकार में हो, कितनी दूरी पर हो, देवी-देवता की मूर्ति कहाँ रखी जाए, किस तरीके से प्राण-प्रतिष्ठा हो, किस तरह के पत्थर से मूर्ति और मंदिर बनें, सबका अपना एक तर्क और विज्ञान है। उस शास्त्र को ‘आगम शास्त्र’ कहते हैं जिसमें इन सारी बातों का विस्तार से वर्णन है। 

जो लोग ग्रह-नक्षत्रों को मानते हैं, या ईश्वरीय सत्ता को मानते हैं, उन्हें ये स्वीकारने में संशय नहीं होना चाहिए कि हर वस्तु की अपनी प्रकृति होती है जिसके कारण मानव प्रकृति प्रभावित होती है। जैसे कि कोई आदमी एकमुखी रूद्राक्ष पहनता है, कोई तीनमुखी, तो कोई पंचमुखी। हर आदमी, हर तरह के रूद्राक्ष नहीं धारण कर सकता, वरना उसके नुकसान भी हैं। यहाँ आप या तो रूद्राक्ष को मानते हैं, या नहीं मानते हैं। वैसे ही जो लोग अँगूठी में रत्न पहनते हैं, वो या तो रत्नों के प्रभाव को मानते हैं, या नहीं मानते हैं। आप ये नहीं कह सकते कि नीलम रत्न मानवों को प्राभवित करता है, मोती नहीं। या एकमुखी रूद्राक्ष काम करता है, तीनमुखी नहीं। 

जो लोग ईश्वर को मानते हैं, वो मंदिरों को मानते हैं, वो उन बातों को भी मानते हैं जो जानकार पुजारी या शास्त्र बताते हैं। जैसे कि हनुमान की उपासना महिलाएँ कर सकती हैं, पर आप उन्हें छू नहीं सकती। इसके पीछे तर्क यह है कि बजरंगबली की प्राण-प्रतिष्ठा किसी मंदिर या पूजाघर में होने के बाद उनमें उस देवता का एक अंश आ जाता है, और हमके लिए पत्थर की मूर्ति देवता हो जाती है। जब आप मूर्ति को देवता मानते हैं, और प्राण-प्रतिष्ठा कराकर स्थापित करते हैं, तो आप ये नहीं कह सकते कि मैं तो नहीं मानती कि हनुमान को छूने से उनका ब्रह्मचर्य नष्ट हो जाएगा। 

देवी-देवताओं की प्रकृति और प्राण-प्रतिष्ठा के मायने

हनुमान ब्रह्मचारी हैं, और उस मूर्ति में आपने उनको अंशरूप में स्थापित किया है तो उसी देवता की प्रकृति के बारे में आपको पता होना चाहिए। उसके बाद फिर बात आती है आपके इंटेंट की, आप किस भावना से उसे छूती हैं। बेशक देवता इस बात को समझ सकते हैं, और आपकी भूल माफ़ हो जाए, लेकिन जानबूझकर अगर आप चैलेंज करके देखने के लिए ऐसा करती हैं तो आपकी धर्म और हनुमान पर जो आस्था है, उस पर सवाल उठता है। 

इसके बाद, अगर आपको अपनी पूजा, उपासना का फल चाहिए चाहे वो सुख-समृद्धि हो, या मानसिक शांति, या कोई भी और बात, तो आपको अपेक्षित फल के लिए उचित पद्धति से चलना होगा। न कि आप शिव को लाल फूल से प्रसन्न करने जा रहे हैं, और बजरंगबली को बेलपत्र से। फिर बात वही है कि अगर आप देवता को मानते हैं, तो देवता किस चीज से प्रसन्न होते हैं, वो भी तो उसी ग्रंथ का हिस्सा है, तो उपाय भी वही कीजिए। वरना अगरबत्ती और धूप तो सबको देते हैं, देते रहिए। कौन से देवी-देवता को क्या पसंद है, क्या नहीं, यह भी पुराणों में वर्णित है। 

अगर आप उपासना के तरीक़ों में मिलावट कर रहे हैं, तो फिर आपको फल भी उसी अनुपात में मिलेगा, मिलावटी। किसी भी वस्तु को, व्यक्ति को, मशीन को सटीक तरीके से  कार्य करने के लिए एक तय सेटिंग चाहिए। जैसे कि आपको थ्रीडी गेम का आनंद लेना है तो आपके पास अच्छे प्रोसेसर वाले कम्प्यूटर के साथ, अच्छे उपकरण, बिजली, एसी और गेम के तमाम नियमों का पता होना ज़रूरी है। आप एक गर्म कमरे में, कम प्रोसेसर स्पीड के कम्प्यूटर पर, कम जानकारी के साथ गेम खेल तो लेंगे लेकिन आप उस स्तर तक नहीं जा पाएँगे जहाँ वो व्यक्ति जा पाएगा जिसे हर चीज का उचित सेटअप पता है। 

तो सबरीमाला में जो देवता हैं, उनकी प्रकृति ब्रह्मचारियों वाली है, और आप वहाँ, वहाँ के स्थापित नियमों के साथ छेड़-छाड़ करके जा रही हैं, तो आपको मनोवांछित फल नहीं मिलेगा। यहाँ आप सामाजिक व्यवस्थाजन्य जेंडर इक्वैलिटी की बात को गलत तरीके से समझने की कोशिश कर रहे हैं। क्योंकि अगर यहाँ स्त्रियों का जाना वर्जित नहीं रहा तो क्या मूर्ति के पास बैठकर मांसाहार सही होगा? वहाँ क्या जूठन फेंक सकते हैं? क्योंकि मांसाहार तो संविधान प्रदत्त अधिकार है कि हमारी जो इच्छा हो, हम खा सकते हैं। यहाँ मंदिर को आप एक स्थान मात्र नहीं, देवस्थान मानते हैं इसलिए आप उसके नियमों को भी मानते हैं कि यहाँ मांसाहार वर्जित है। कल को संवैधानिक अधिकारों के नाम पर मंदिर में मांस ले जाना भी सही कहा जाएगा क्योंकि बस स्टेशन में तो मना नहीं होता!

अब बात यह है कि दो अलग विषयों को एक तरह से देखकर एक निर्णय दे दिया गया। आप अपनी समझ से ये बताइए कि जो इस देवता को मानते हैं, वो क्या इसी देवता के लिए बनाई गई पद्धतियों को मानने से इनकार कर देंगे और मनोवांछित फल की आशा रखेंगे? वो लोग पहले भी नहीं जाते थे, वो अब भी नहीं जाएँगे।

मंदिर: धार्मिक स्थल भी है, और पर्यटन के भी

तो फिर जाएगा कौन? यहाँ पर बात आती है मंदिरों के दूसरे फ़ंक्शन या उपयोग की। अब मंदिर सिर्फ मंदिर नहीं रहे, वो स्थापत्य कला के बेहतरीन नमूने भी हैं। इसलिए मंदिर अब धर्म से बाहर निकलकर सरकार के पर्यटन के स्कोप में आ गया। अब वहाँ सिर्फ पूजा नहीं होती, अब वहाँ लोग घूमने भी जाते हैं। 

हिन्दुओं के साथ ये समस्या रही है कि उनके मंदिरों के मालिक सरकार हैं, न कि मस्जिदों या चर्चों की तरह कोई धार्मिक संस्था। तो इसमें मंदिर का काम सिर्फ पूजा-पाठ या धार्मिक अनुष्ठान ही नहीं रहा, अब उससे सरकारों को आमदनी होती है और इसी कारण वो मंदिर भी हैं, पर्यटन स्थल भी। इसलिए जब सुप्रीम कोर्ट जेंडर इक्वालिटी की बात करती है तो वो मंदिर के पर्यटन स्थल के लिए है, न कि पूजा स्थल के रूप में। क्योंकि धार्मिक आस्था को मानकर तो ये फ़ैसला दिया ही नहीं जा सकता। चूँकि, यह बात भी साबित नहीं हो सकती कि वहाँ जाने से लाभ हुआ, तो फ़ैसला सही है या गलत यह भी भविष्य में पता नहीं चलेगा। कोई आपदा आई तो वो दैवीय है या मानवीय यह फ़ैसला उसी आधार पर होगा कि आप कहाँ खड़े हैं।

पर्यटन स्थल में धर्म नहीं है, मंदिर में है। जो मंदिर में पूजा करने जाता है वो मंदिर के तौर-तरीकों को मानेंगे। नहीं तो बात वही है कि एकमुखी रूद्राक्ष पहनकर तीनमुखी के फल की आशा करना मूर्खता है। जो धर्म में आस्था रखते हैं, देवताओं से आशा रखते हैं कि वो उनके कष्टों का निवारण करे, वो उसी देवता के लिए बनाए गए तरीक़ों से चलेंगे तो फल की प्राप्ति होगी। या तो व्यक्ति खुद सारे शास्त्र पढ़कर तय करे कि मंदिर जाना है कि नहीं, या फिर ये फ़ैसला शास्त्रों की जानकारी रखने वालों पर छोड़ दे। 

सेल्फी लेने की ही बात है, तो उन्हें पहले भी मंदिर के धार्मिक नज़रिए से मतलब नहीं था, आज भी नहीं होगा। जेंडर इक्वालिटी सामाजिक बात है, धार्मिक नहीं। धर्म में जेंडर का स्कोप ही नहीं, वहाँ तो सब मनुष्य हैं, जीव हैं। वहाँ हर व्यक्ति के लिए अलग कार्य हैं। इस व्यवस्था को ट्विस्ट कौन करता है? समाज। इस समाज में भेदभाव है, लेकिन किसी भी ग्रंथ में भेदभाव की बात नहीं है। यह बात ज़रूर है कि हर तरह के व्यक्ति के लिए अलग तरह की बातें हैं, लेकिन उसे भेदभाव नहीं कहते। 

ऑपरेशन थिएटर में सर्जन और नर्स जाते हैं, न कि एक शिक्षक। तो क्या हर जगह, हर व्यक्ति को जाने की अनुमति होनी चाहिए। अगर शिक्षक चला भी गया तो क्या वो सर्जरी करेगा, या सर्जरी देखेगा? जब आप धर्म के होने को, मंदिर के होने को स्वीकार रहे हैं तो फिर उसके धार्मिक नियमों को सामाजिक मानदंडों के आधार पर क्यों तौल रहे हैं? या तो सुप्रीम कोर्ट यह कह दे कि धर्म कुछ भी नहीं है, हर बात में सबसे ऊपर संविधान है, और चूँकि वहाँ हर नागरिक समान है तो हर नागरिक को हर धार्मिक जगह पर जाने की अनुमति होनी चाहिए। 

आस्था, धार्मिक नियम और उसे तोड़ने की कोशिशें

हर धार्मिक स्थल के अपने नियम हैं, और उसके पीछे तर्क हैं। हो सकता है कि आपको तर्क समझ में न आए, हो सकता है कि आपका नज़रिया अलग हो, हो सकता है कि मंदिर आपके लिए पत्थरों से निर्मित एक घर लगे, तो ज़ाहिर है कि आप उसकी धार्मिकता को परे रखकर ही फ़ैसला लेंगे। जेंडर इक्वालिटी के नाम पर सुप्रीम कोर्ट पुरुषों को माहवारी के दर्द से गुज़रने का आदेश भी दे सकता है। वो कह सकता है कि पुरुषों को एक टैबलेट लेना होगा ताकि उन्हें ये दर्द महसूस हो।

यह बात भी लगभग तय ही है कि जो लोग सबरीमाला में पूजा करने जाते हैं, उन में अब भी महिलाएँ नहीं ही होंगी। ये पूरी योजना ही फ़र्ज़ीवाड़ा है जिसकी जड़ में एक एनजीओ खड़ा मिलता है। आपको अगर लगता है कि केरल की महिलाएँ वहाँ पूजा करने जाने लगेंगी तो आप गलत हैं। वहाँ कुछ दिनों तक कुछ लोग तख़्तियाँ और छद्मनारीवाद का झंडा लेकर जाएँगे, सप्ताह भर कुछ आर्टिकल छपेंगे कि कैसे ये नारीवाद की जीत है, और फिर कुछ नहीं होगा।

जो अयप्पा की पूजा करके फल की इच्छा रखते हैं, वो एनजीओ और छद्मनारीवाद के रास्ते से नहीं चलते। इस एनजीओ का उद्देश्य भी महिलाओं का उत्थान तो बिलकुल नहीं होगा, इसका उद्देश्य वही है जो आप समझ रहे हैं: हिन्दू आस्था और प्रतीकों पर हमला। इसलिए, हर ग़ैरज़रूरी जगह पर ये झंडे उठाए जाते हैं, और इसे मानवता की जीत बता दिया जाता है। 

जबकि शणि सिंगणापुर के मंदिर कोई गया हो कोर्ट के फ़ैसले के बाद से, तो मुझे ये बता दे कि कितनी महिलाएँ शणिदेव को छूती हैं। बात घूमकर वहीं आ जाती हैं कि आप मानते क्या हैं? क्या आपकी आस्था के लिए मंदिर और उसके अंदर का भगवान बड़ा है, या कोई सुप्रीम कोर्ट? जो कोर्ट को मानते हैं उनके लिए वैसे भी मंदिर पत्थर का घर है, और जो भगवान को मानते हैं, वो मंदिर के नियमों के ख़िलाफ़ कभी नहीं जाएँगे। 

अंततः फ़ैसला एक टोकनिज्म के अलावा कुछ भी नहीं। सामाजिक व्यवस्था के लिए तमाम आदेश आते हैं, जहाँ विकल्प है, वहाँ आदमी विवेक से चलता है। जहाँ सुप्रीम कोर्ट ये कह देगा कि हर दिन पाँच हजार महिलाओं को सबरीमाला जाना ही होगा, तब देखते कि कितनी महिलाएँ अंदर जातीं। इसलिए, समाज और धर्म को एक ही मानकर, मंदिर को पूर्णतः पर्यटन स्थल मानकर उसमें जेंडर इक्वालिटी का तड़का मत लगाइए। हर बात, हर जगह लागू नहीं होती। अगर हो पाती तो मुस्लिम महिलाएँ भी हर मस्जिद में नमाज़ पढ़ पातीं और एक एनजीओ इसी सुप्रीम कोर्ट में इसे लागू करने के लिए लगातार प्रयत्न करती रहती। 

UGC NET द्वारा उमैया खान का हिजाब उतरवाना एहतियात है, भेदभाव नहीं

उमैया खान ने गुहार लगाई कि उनके मजहब के कारण, जो कि उन्हें हिजाब पहनने की आज़ादी देता है, UGC NET की परीक्षा में बैठने नहीं दिया गया। अल्पसंख्यक आयोग ने इसे भेदभाव मानते हुए यूजीसी को नोटिस भेजा है। यूजीसी ने कहा कि उसे हिजाब पहनने के कारण परीक्षा से अलग नहीं किया गया, बल्कि वो हिजाब हटाने को तैयार नहीं थी जो कि नियमों के खिलाफ है। 

यहाँ पर दो बातें हैं, पहली तो यह कि इस देश में जिस समुदाय की संख्या बीस करोड़ है, वो अल्पसंख्यक तो किसी भी तरीके से नहीं है। बीस करोड़ से कम आबादी के दसियों देश हैं, और ऐसे समुदायों को अनंतकाल तक अपनी नकली व्यथा कहते हुए विक्टिम-विक्टिम खेलने की कोई ज़रूरत नहीं। दूसरी बात यह है कि जहाँ परीक्षा के लिए कोई तय नियम है, तो वो संवैधानिक रूप से हर अभ्यर्थी पर लागू होगा। 

समुदाय विशेष की लड़कियाँ हिजाब पहनती हैं, लेकिन हिजाब पहनना ही किसी को मुस्लिम नहीं बनाता, न ही किसी सही कारण से उस कपड़े को हटाकर चेहरा दिखाने, चेक करवाने से उसका इस्लाम या मज़हब ख़तरे में पड़ जाता है। ऐसा तो नहीं है कि हर मुस्लिम लड़की हिजाब पहनती है, न ही ऐसा है कि उसे सड़क पर, किसी सामाजिक आयोजन पर, किसी भीड़ में से निकाल कर यह कह दिया गया कि हिजाब उतार दो।

ऐसा नहीं हुआ। आज जब इसी चोरी और व्यवस्थित तरीके से हो रही हाईटेक चीटिंग के कारण SSC की परीक्षाएँ कैंसिल हो रही हैं, कोर्ट में हर परीक्षा पर केस हो जाता है, रिजल्ट आने में साल से दो साल तक की देरी होती, वहाँ अगर कोई संस्था अपने नियमों से चले और हर लड़की-लड़के को अच्छे से चेक करे तो उसमें गलत क्या है?

एहतियात या भेदभाव?

किसी घटना के होने के बाद एक बड़ी अव्यवस्था को रोकने के बजाय अगर एहतियात के तौर पर क़दम उठाए जाएँ तो वो भेदभाव नहीं है। कई लोगों का कपड़ा एयरपोर्ट पर उतरवाकर उन्हें बाक़ियों से ज़्यादा देर तक रोककर सुनिश्चित किया जाता है कि वो सही व्यक्ति हैं, तो इसमें उस देश की सुरक्षा एजेंसी भेदभाव नहीं कर रही, उनके पास जो आँकड़ें हैं, उनके आधार पर वो अपनी सुरक्षा को लेकर सचेत हैं। 

वैसे ही, जब हर परीक्षा में चोरी की बातें सामने आ रही हैं, तो हर परीक्षा केन्द्र को, हर कर्मचारी को ये अधिकार है कि वो बाकी के परीक्षार्थियों के साथ भेदभाव न हो, इससे बचने के लिए सारे लोगों को एक ही मानदंड पर सचेत रहकर जाँच करे। क्योंकि कल को अगर पता चले, और साबित हो जाए कि अमुक केन्द्र पर चोरी हुई तो सिर्फ हिजाब या मफ़लर वाले की परीक्षा निरस्त नहीं होगी, पूरे केन्द्र या फिर पूरी परीक्षा ही निरस्त की जा सकती है। ऐसा कई बार हुआ भी है। इसलिए ऐसे मामलों में भावुक होकर धार्मिक अल्पसंख्यक का कार्ड खेलना एक बेकार बात है। 

धर्म के आधार पर भेदभाव हिजाब देखकर किसी को रोकना नहीं है, बल्कि नाम पढ़कर कोई ऐसा नियम बता देना भेदभाव है जो बाकी के साथ नहीं होता। उसे यह कहा जाता कि तुम्हारे जूते का रंग वैसा नहीं है, जैसा परीक्षार्थी को पहनना चाहिए। भेदभाव उसे कहते हैं, न कि जिस हिजाब के अंदर कोई उसका लाभ लेते हुए इयरपीस लगा रखा हो, और नियमों की अनदेखी करते हुए आने पर जाँच करने को।

किसी लड़के ने मफ़लर या टोपी पहन रखी हो, तो क्या उसे ऐसे ही बैठने दिया जाए? क्या जिस बात पर अल्पसंख्यक आयोग नोटिस भेज रही है, वो ये जानती है कि वहाँ बैठे बच्चों के मफ़लर, टोपी, स्कार्फ़ कभी नहीं उतरवाए गए होंगे? मैंने भी यही परीक्षा दी है और मुझसे भी हर लूज़ कपड़ा (गमछी, टोपी, मफ़लर आदि) उतरवा कर रखवा दिया गया था। तो क्या मैं यह कहने लगूँ कि ये मेरे कपड़े पहनने की स्वतंत्रता का हनन है?

वैयक्तिक अधिकार बनाम संस्थागत नियम

धार्मिक स्वतंत्रता एक मौलिक अधिकार है, लेकिन सरकारी संस्थाओं के अपने नियम भी उनकी स्वायत्तता के अनुसार संवैधानिक हैं। वो एक तार्किक दायरे में रहकर हर कैंडिडेट को एक ही तरीके से परखने के मानक रखते हैं। बाद में आरक्षण के आधार पर कम नंबर वाले पास होते हैं, वो बात अलग है। लेकिन परीक्षा से पहले किसी को दूसरे परीक्षार्थी से ज़्यादा छूट देना बाक़ियों के साथ भेदभाव जैसा है। 

हो सकता है कि उमैया के कानों में कोई इयरफोन नहीं रहा हो, लेकिन ये कौन तय करेगा कि बिना देखे ही उसे सत्य मान लिया जाए? फिर अगले पेपर में दस लोग हिजाब और बुर्क़े में आ जाएँ, दस लोग बंदर-टोपी पहनकर आ जाएँ और कहें कि ‘उसे तो नहीं रोका, हमें क्यों रोक रहे’, तो यूजीसी क्या कहकर अपना पक्ष रखेगी? और आप इस बात पर संविधान का नाम लेकर, ‘शॉविनिस्टिक गवर्मेंट सरवेंट’ की हद तक चली जाती हैं मानो उसका काम आपके धर्म के वैकल्पिक बातों को तरजीह देना हो, न कि इस बात की कि कोई चोरी न करें, हिजाब पहनकर!

अल्पसंख्यकों के पास अधिकार हैं, ज़रूर हैं, संवैधानिक हैं। लेकिन, यही संविधान तमाम संस्थाओं को सही तरीके से परीक्षा कराने का भी आदेश देती है। कई संस्थाएँ बेल्ट उतरवा लेती हैं, हाफ शर्ट पहनकर आने कहती हैं, खाली पैर में परीक्षाएँ लेती हैं, फ़िज़िकल एक्जाम अंडरवेयर में लेती हैं, तो क्या वहाँ अभ्यर्थी अपने अधिकारों को लेकर अड़ जाए? 

जब आपकी परीक्षा हॉल की टिकट पर लिखा रहता है कि आपको किस रंग की क़लम और पेंसिल लेकर आना है, तो क्या हम कहते हैं कि हम भगवा रंग की क़लम से सर्कल को रंगेंगे? परीक्षा के तय नियम हैं, जो सबके लिए समान नहीं होंगे तो निश्चित ही आप किसी को जानबूझकर फ़ेवर कर रहे हैं। अगर किसी मुस्लिम को उसके धार्मिक वेशभूषा के आधार परीक्षा में बैठने दिया जाए, तो यह सुनिश्चित कैसे होगा कि वो इसका ग़लत लाभ नहीं ले रही?

हमारे स्कूलों की अवधारणा में ‘यूनिफ़ॉर्म’ की बात होती है। सारे विद्यार्थी एक तरह के कपड़े पहनते हैं ताकि ‘समानता’ हर स्तर पर दिखे। बच्चों के दिमाग से जाति, धर्म, स्टेटस या किसी भी और तरह की बात को वहीं से हटाने की ये एक कोशिश शुरु होती है कि आप सब समान हैं। आपको वही शिक्षक/शिक्षिका पढ़ाते हैं, आप एक ही प्रार्थना करते हैं, एक ही संविधान की प्रस्तावना को ज़ोर से दोहराते हैं। 

तब क्या एक मुस्लिम, ईसाई या हिन्दू विद्यार्थी यह कहकर इनकार कर दे कि उसके धर्म में ऐसा करना वर्जित है? अगर वर्जित हैं तो आप उस स्कूल में मत जाइए क्योंकि कि एक धर्मनिरपेक्ष समाज में जहाँ आप इस तरह की लाइन पकड़ते हैं तो आप बेवजह विक्टिम बनने की कोशिश करते हैं। आपको ऐसे सिस्टम से समस्या है तो आपके पास यह आज़ादी है कि आप उस सिस्टम का हिस्सा न बनें। आपको अपने जीवन के कई पड़ावों पर यह चुनना पड़ेगा कि आप के लिए धार्मिक मान्यताएँ ज़्यादा ज़रूरी हैं या कुछ और। 

मैं यह नहीं कह रहा कि हिजाब वालों को यूजीसी की परीक्षा नहीं देनी चाहिए। मैं बस यह कह रहा हूँ कि हर साल दो बार, दसियों मुस्लिम लड़कियाँ इस परीक्षा में बिना हिजाब और बुर्क़ा के उत्तीर्ण होती हैं। उन्होंने अपने धर्म की कुछ बातों को, जो कि वैकल्पिक हैं, उसे छः घंटे के लिए परीक्षा भवन के बाहर छोड़कर, एक सामान्य अभ्यर्थी की तरह परीक्षा दी और पास हुए। 

क्या यूजीसी ने नाम देखकर उसकी छँटनी कर दी? या यह कह दिया कि तुम हिजाब पहनकर आई हो, अब तो बेठने ही नहीं देंगे? यूजीसी ने कहा कि इसे आप हटाकर, हमें दिखा दीजिए कि इसमें कुछ भी ऐसा नहीं है, जो कई चोर लगाकर आ जाते हैं। इसमें भेदभाव तब होता जब वो हिजाब पहनकर बैठती और वहीं कोई मुस्लिम परीक्षार्थी यह सोचती कि उसने तो अपने धर्म को कमरे के बाहर त्याग दिया था, जबकि वो उसे टेबल तक ला सकती थी। उसे इस बात की ग्लानि ही होने लगेगी कि वो कम मुस्लिम है! 

शिक्षा व्यवस्था का मूल कार्य देश को एक बेहतर नागरिक देना है, जो कि हर तरह के भेदभाव से ऊपर उठा हो। जहाँ समुदाय विशेष के बच्चे बहुसंख्यक हैं, वहाँ वो धार्मिक ‘विकल्पों’ को अतिमहत्वपूर्ण ‘ज़रूरत’ मानकर शिक्षा पाते हैं। वैसे ही गुरुकुलों में बच्चों का अलग ड्रेस कोड है, वहाँ उन्हें सर मुड़ाकर बैठना होता है, एक धोती पहननी होती है। अगर संस्थान की प्रकृति धार्मिक है तो वहाँ बेशक धार्मिक मानक अपनाएँ जाएँ, लेकिन जहाँ संवैधानिक बात होगी, वहाँ तो हमें हर नागरिक को समान मानकों पर आँकना होगा। 

जबरदस्ती के मतलब निकालने की अस्वस्थ परम्परा

कुल मिलाकर, आजकल यह एक फ़ैशन हो गया है कि बीस करोड़ की आबादी वाले समुदाय के अति-सुरक्षित दायरों में रहनेवाले लोग अपने बच्चों की ज़िंदगी के लिए डरने लगे हैं। अब एक सामान्यीकृत लेकिन ग़लत विचार पनपने लगा है कि फ़लाँ सरकार हमारे मतलब की नहीं है तो उसे हर उस बात पर खींच लिया जाए, जिससे के पीछे सिवाय कुतर्क के कुछ नहीं। 

यही कारण है कि असंवैधानिक और ग़ैरक़ानूनी तरीके से गाय काटकर दंगे को हवा देने वाली साज़िशों पर जब योगी आदित्यनाथ यह कहते हैं कि हम गाय काटनेवालों को सजा दिलवाएँगे तो कुछ गिरोह के लोग स्वयं ही ये हल्ला करने लगते हैं कि उसके लिए आदमी की जान गाय से कमतर है। जबकि दूसरी पंक्ति में वही आदित्यनाथ यह भी कहते सुनाई देते हैं कि दो व्यक्तियों की मौतें एक दुर्घटना थी और पुलिस उसकी भी जाँच कर रही है। 

लेकिन चुनावों के दौर में, नैरेटिव पर शिकंजा कसनेवाले गिरोह के लोगों की बिलबिलाहट ही है जो इस तरह की फ़र्ज़ी और बेकार बातों को हवा देते हैं कि किसी लड़की का हिजाब यूजीसी जैसी संस्था के तय नियमों से ऊपर की चीज है। लड़की जब फ़ॉर्म भर रही होती है तो वो किसी इस्लामी मदरसे का फ़ॉर्म नहीं होता, वो भारत की संवैधानिक संस्था का फ़ॉर्म होता है जहाँ हिजाब उतनी ही ग़ैरज़रूरी वस्तु है जितनी मंकीकैप। 

जो लोग परीक्षा भवन में हिजाब के होने को इस्लाम का अभिन्न अंग मानते हैं, उन्हें न तो इस्लाम की समझ है, न ही इसकी कि परीक्षा भवन में परीक्षार्थी बेठते हैं, हिन्दू और मुस्लिम नहीं। स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय में जाकर भी अगर आप इतनी सी बात नहीं समझ पा रहे कि छः घंटे के लिए हिजाब उतार लेने से आपके साथ भेदभाव नहीं हो रहा, बल्कि आपको बाक़ी परीक्षार्थियों के समान देखा जा रहा है, तो आपने जो भी पढ़ाई की है, उसमें आग लगाकर हाथ सेंक लीजिए।

हर जगह अल्पसंख्यक होने का रोना रोना वही कुतर्क है जैसे कि किसी महिला का पुरुष ट्वॉयलेट में नारीवाद के नाम घुसने की बात। अल्पसंख्यक हैं तो उसको अपनी कमज़ोरी मत बनाइए, उसका गलत फायदा मत उठाइए क्योंकि जिस बुनियादी अधिकार के कारण आपको ये लगता है कि आप हर संस्था में अपने अधिकार का झंडा लेकर घूम सकती हैं, वही संविधान और कोर्ट यूजीसी जैसी संस्थाओं को भी अपने हर परीक्षा में तमाम एहतियात बरतने की आज़ादी देता है। 

(इसी आर्टिकल का विडियो यहाँ देखें)

संसद में तीन तलाक बिल पर हुई तीखी बहस, जानिए किसने क्या कहा

तीन तलाक को गैर-कानूनी करार देने से जुड़े नए विधेयक पर आज लोकसभा में चर्चा शरू हुई। इस दौरान नेताओं में तीखी नोंक-झोंक देखने को मिली। क़ानून मंत्री रविशंकर प्रसाद से लेकर विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे तक ने इस बिल को लेकर अपनी-अपनी बात रखी। आइये एक नजर डालते हैं कि चर्चा के दौरान किसने क्या कहा।

रविशंकर प्रसाद, केंद्रीय कानून मंत्री:

इस मामले को सियासत के तराजू पर नहीं इंसाफ के तराजू पर तौला जाना चाहिए।क् या राजनीतिक कारणों से तीन तलाक की पीड़ित महिलाओं के पक्ष में कार्रवाई नहीं करनी चाहिए। यह बिल महिलाओं के न्याय से जुड़ा है और सदन को एक सुर में बोलना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक को असंवैधानिक करार दिया है। कोर्ट ने कहा कि हम संसद से अपील करेंगे कि वह तीन तलाक के खिलाफ बिल पारित करे। एक आंकड़े के मुताबिक जनवरी 2017 से लेकर 10 दिसंबर तक देश में 477 तीन तलाक हुए हैं। रविशंकर प्रसाद निर्भया की दुहाई दी और कहा कि संसद में एक बलात्कारी को फांसी की सज़ा का प्रावधान है। मामले को सियासत के तराजू में ना देखे यह घर में नारी के सम्मान का मामला है।

मीनाक्षी लेखी, भाजपा सांसद:

तीन तलाक का विरोध करने वालों से पूछना चाहती हूं कि कुरान के किस सूरा में तलाक ए बिद्दत का जिक्र है। ये महिला बनाम पुरुष का नहीं बल्कि मानव अधिकार का मसला है। कांग्रेस तलाक के अधिकार की बात करती है और हम शादी के अधिकार की बात करते हैं। हिंदू विवाह कानून, पारसी विवाह कानून और मुस्लिम विवाह कानून के बीच तुलना करना गलत है। अगर इस पर चर्चा करनी है तो समान नागरिक संहिता पर हम सब एक साथ बैठें। निकाह पूरे समाज के सामने होता है, लेकिन एक वाट्सएप, एक एसएमएस, एक कॉल और शादी खत्म, ये कैसा कानून है।

मल्लिकार्जुन खड़गे, कांग्रेस नेता

तीन तलाक से जुड़ा बिल महत्वपूर्ण है, इसका गहन अध्ययन करने की जरूरत है। यह संवैधानिक मसला है। मैं अनुरोध करता हूं कि इस बिल को ज्वाइंट सिलेक्ट कमेटी के पास भेज दिया है।” ज्वाइंट सिलेक्ट कमेटी (संयुक्त प्रवर समिति) में लोकसभा और राज्यसभा दोनों सदनों के सदस्य शामिल होते हैं। यदि कोई सदस्य किसी बिल में संशोधन का प्रस्ताव पेश करता है तो उसे ज्वाइंट सिलेक्ट कमेटी के पास भेजा जाता है। इस कमेटी के सदस्यों में कौन शामिल किया जाएगा, इसका फैसला सदन करता है।

इसके अलावा आजम खान ने कहा कि उन्हें कुरान के अलावा कोई और कानून मान्य नहीं है। भाजपा सांसद मीनाक्षी लेखी ने कहा कि पैगम्बर मुहम्मद साहब खुद तीन तलाक के विरोधी थे। शिवसेना के अरविन्द सावंत ने तीन तलाक का समर्थन तो किया लेकिन उन्होंने साथ में जोड़ा कि सरकार को देश भर में सामान नागरिक संहिता भी लागू करनी चाहिए। वहीं केंद्रीय मंत्री मुख़्तार अब्बास नकवी ने फतवों पर तंज कसते हुए कहा कि इन फतवों की दुकानों को अब बंद करने की जरूरत है। केंद्रीय मंत्री स्मृति इरानी ने कहा कि अगर 1986 के क़ानून में वो ताकत होती तो सायरा बानो को अदालत का दरवाजा नहीं खटखटाना पड़ता।

मालूम हो कि अगस्त 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने एक बार में तीन तलाक (तलाक-ए-बिद्दत) की 1400 साल पुरानी प्रथा को असंवैधानिक करार दिया था और कहा था कि अर्कार इस पर कानून बनाये। शीर्ष अदालत के निर्णय का सम्मान करते हुए केंद्र सरकार ने दिसंबर 2017 में लोकसभा से मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) विधेयक पारित कराया लेकिन राज्यसभा में भाजपा के पास पर्याप्त संख्या बल न होने कारण ये बिल अटक गया था।

धर्मशाला में गरजे पीएम; कहा कांग्रेस ने कर्जमाफी का झूठा वादा कर किसानों को धोखा दिया

पिछले साल के विधानसभा चुनावों में जीत के बाद पीएम मोदी पहली बार हिमाचल प्रदेश पहुंचे। बता दें कि हिमाचल प्रदेश में जयराम ठाकुर की सरकार ने एक साल पूरा कर लिया है। धर्मशाला में आयोजित ‘जन आभार रैली’ में प्रधानमंत्री ने केंद्र और राज्य सरकार की जनकल्याणकारी योजनाओं से लाभान्वित 36500 लाभार्थियों और पार्टी कार्यकर्ताओं सहित एक विशाल जनसभा को संबोधित किया। इस रैली को लेकत कई दिनों से पूरे जोर-शोर से तैयारियां चल रही थी और मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर खुद समय-समय पर इसका जायजा ले रहे थे। कल केंद्रीय मंत्री जेपी नड्डा, हिमाचल भाजपा प्रभारी मंगल पांडे और प्रदेशाध्यक्ष सतपाल सत्ती ने भी पहुँच कर रैली स्थल का मुआयना किया था और तैयारियों की समीक्षा की थी। उन्होंने हिमाचल प्रदेश की टोपी की तारीफ करते हुए कहा कि वह अपने बैग में हमेशा एक हिमाचल की टोपी रखते हैं।

‘भारत माता की जय’ से अपने संबोधन की शुरुआत करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि वीर्य और शौर्य हिमाचल की रगों में है। उन्होंने साथ ही हिमाचल के व्यंजनों की भी तारीफ़ की। उन्होंने हिमाचल प्रदेश की टोपी की तारीफ करते हुए कहा कि वह अपने बैग में हमेशा एक हिमाचल की टोपी रखते हैं। उन्होंने बताया कि जब इजराइल में उन्होंने यह टोपी पहनी थी तब उन्हें कई फोन आये। उन्होंने कहा;

“हिमाचल आकर ऐसा लगता है कि घर आ गया हूं, यहां काफी साल तक संगठन का काम किया है। उस दौरान जो मेरे साथ काम करते थे, वो आज राज्य के बड़े नेता बन गए हैं। प्रधानमंत्री ने कहा कि ये देवभूमि हैं, जहां मां ज्वाला देवी, कांगड़ा देवी के मंदिर हैं। हर गांव में देवी-देवताओं का स्थान है। यहां की संतान जब बॉर्डर पर बंदूक के साथ खड़े होते हैं तो दुश्मन कांप जाता है।”

इस दौरान हिमाचल प्रदेश और वहां हो रहे विकास कार्य को लेकर एक वीडियो भी दिखाया गया। पीएम ने कहा कि इस वीडियो को हिमाचल के हर एक नागरिक के फोने तक पहुंचाना चाहिए। उन्होंने इस अवसर पर अटल बिहारी वाजपेयी को भी याद किया। हिमाचल प्रदेश का गठन के समय वाजपेयी ही देश के प्रधानमंत्री थे। वन रैंक वन पेंशन को लेकर कांग्रेस पर निशाना साधते हुए मोदी ने कहा

“कांग्रेस ने 2014 में चुनाव से पहले वन रैंक वन पेंशन को लेकर झूठ बोला और सिर्फ 500 करोड़ रुपये का बजट बना दिया। लेकिन जब हमने आकर पूरी जानकारी ली तो पता लगा कि इन्होंने कुछ नहीं किया, हमने बजट चेक किया तो उसपर खर्च 12000 करोड़ रुपये तक गया। कांग्रेस ने 2014 में जवान को लेकर झूठ बोला था और आज किसान को लेकर झूठ बोल रही है।”

कांग्रेस द्वारा कर्जमाफी के वादों को खोखला बताते हुए पीएम ने आरोप लगाया कि कांग्रेस ने किसानों के साथ धोखा किया है। उन्होंने कहा

“2008 में भी इन्होंने ऐसा ही किया, 6 लाख करोड़ रुपये का किसान कर्ज कहकर सिर्फ 60 हजार करोड़ माफ किया और 52 हजार करोड़ रुपये दिया। इनमें से 35 लाख ऐसे किसानों के पास पैसा गया जिनका खेत ही नहीं था। पंजाब में किसानों को लेकर कर्जमाफी का वादा किया लेकिन अभी तक नहीं किया, कर्नाटक में सिर्फ 800 किसानों को टोकन पकड़ा दिया गया कांग्रेस चुनाव जीतने के लिए जवान और किसानों की आंखों धूल झोंकने का काम कर रही है। उन्होंने कहा कि जिन लोगों को लूटने की आदत थी उनकों आज देश के चौकीदार से डर लगने लगा है और वो उसे गालियां देने में लगे हैं।”

हिमाचल प्रदेश में हुए पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा को प्रचंड जीत मिली थी। 68 में से 44 सीट जीत कर भाजपा ने विपक्षी पार्टियों को चारो खाने चित कर दिया था और प्रेम कुमार धूमल के चुनाव हार जाने के कारण जयराम ठाकुर को राज्य का मुख्यमंत्री नियुक्त किया गया था। हिमाचल में केंद्र और राज्य सरकार द्वारा किये जा रहे विकास कार्यों की जानकारी देते हुए प्रधानमंत्री ने कहा;

“26 हजार के करोड़ के प्रोजेक्ट हिमाचल में चल रहे हैं। टूरिज्म बढ़ाने के लिए हवाई यात्रा का बहुत महत्व है। इसका विस्तार किया जा रहा है। कालका शिमला रेलवे का भी विस्तार किया जा रहा है। 9 हजार करोड़ की लागत से नेशनल हाईवे प्रोजेक्ट का काम चल रहा है। भारत दुनिया के टूरिज्म के आकर्षण का केंद्र है। 2013 में 70 लाख विदेशी टूरिस्ट आए और 2017 में यह संख्या 1 करोड़ हो गई।”

साथ ही पीएम मोदी ने ये भी बताया कि सरकार हिमाचल प्रदेश में निवेश बढ़ने के लिए हरसंभव कोशिश कर रही है और इसके परिणाम भी देखने को मिल रहे हैं। बता दें कि पीएम के दौरे से पहले यहाँचाक-चौबंद सुरक्षा की व्यवस्था कर दी गई थी और वरीय अधिकारी मौके पर डटे हुए थे। जनसभा को मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने भी संबोधित किया।