रवीश कुमार को कौन नहीं जानता। बिस्कुट का चाय के कप में टूटने पर आपातकाल लाने वाले रवीश जी को हाल ही में मैग्सेसे अवार्ड मिला था जिसे एशिया का नोबेल भी कहते हैं। इस बात में कोई दोराय नहीं कि आने वाले वक्त में रवीश कुमार की छवि जैसी भी हो जाए, लेकिन वो इस अवार्ड के हकदार हैं। हाँ, जिस कालखंड के लिए यह अवार्ड मिला है उस पर मैंने पहले भी आपत्ति दर्ज की है, आज भी करूँगा। वो इसलिए कि ऐसे साइटेशन देने के बाद आदमी का कद ऊँचा हो न हो, मैग्सेसे अवार्ड का कद फिलिपीन्स के फिल्मफेयर टाइप का हो जाता है।
सिवाय इस बात के कि यह स्पीच अंग्रेजी में अनुवाद की गई थी, मैं दावे के साथ कह देता हूँ कि अगर कल रात भी मुझसे कोई पूछता कि रवीश जी सुबह में क्या-क्या बोलेंगे, तो मैं वो स्पीच एक बार में बिना उँगलियाँ उठाए टाइप कर देता। भले ही कुछ पैराग्राफ ऊपर या नीचे हो जाते, लेकिन मूल बातें तो वही होतीं कि भारत में स्वतंत्र विचारों को दबाया जा रहा है, पत्रकारिता की स्थिति बहुत खराब है, मेरे चैनल को छोड़ कर बाकी जगह घृणा बाँटी जा रही है, व्हाट्सएप्प के ट्रोल मुझे गाली देते हैं, कश्मीर में मानवाधिकारों को हनन हो रहा है, आप सरकार के खिलाफ कुछ भी लिखिए तो आप एंटी-नेशनल बता दिए जाएँगे… आप समझ ही गए होंगे कि ये स्पीच आप भी लिख देते, बस मेरी और आपकी टायपिंग स्पीड या अभिव्यक्ति के माध्यम के चुनाव में अंतर है।
जिस रवीश कुमार को, जिस कारण यह अवार्ड मिला है, वो यह बता रहे हैं कि आवाजों को दबाया जा रहा है। यही दबी आवाज इतनी ज्यादा दब चुकी है कि उनका चैनल बाकायदा चल रहा है, उनके फेसबुक पेज चल रहे हैं, और उनके प्रोग्राम को हजारों लोग देखते हैं। यह बात और है कि उन्होंने आज की स्पीच में भी, और पहले भी यह जिक्र जरूर किया है कि उनके चाहने वालों के घरों के ऊपर अमित शाह या मोदी प्लास लेकर केबल का तार काट देता है, या एंटेना हिला कर भाग जाता है। अगर आप किसी देश में, झूठ बोल कर, प्रपंच फैला कर, ‘मुझे लोगों ने बताया’ और ‘सूत्रों के हिसाब से’, अपने मतलब से मुद्दों को मरोड़ कर रखते हैं, आप पर कोई कार्रवाई नहीं होती, तो मुझे लगता है कि भारत में आवाजों को फलने-फूलने का मौका दिया जा रहा है। हाँ, अगर आपकी व्यूअरशिप घट रही है, और तब आपको लगता है कि लोग आपको सुन नहीं रहे, इसमें मोदी का हाथ है, तो मनीला में ही किसी मनोचिकित्सक से भेंट की जा सकती है।
रवीश जी ने आगे कश्मीर की बात की। वही कश्मीर जो या तो आतंकवाद के कारण जाना जाता है, या फिर कश्मीरी पंडितों के पलायन के बारे में। वही कश्मीर जिसके हिन्दुओं को घाटी से रातों-रात कट्टरपंथियों ने भगाया था और रवीश अपने प्राइम टाइम में एक से बात करते हुए इसे सामान्य घटना की तरह ट्रीट करते हुए, बोलते हैं कि सारे कश्मीरी हिन्दू परेशान नहीं है! ये है उनका सैम्पल साइज।
जब सैम्पल साइज का लोचा हो, तो जाहिर है कि कविता कृष्णन जैसे धूर्त नक्सलियों द्वारा कश्मीर जा कर, चार लोगों के पैर दिखा कर, कल्पनाशीलता से दुखी कहानियाँ लाने को आप पूरे कश्मीर की वस्तुस्थिति के समानांतर रख सकते हैं। तब आपको श्रीनगर के पुलिस अधिकारी श्री इम्तियाज हुसैन या जिलाधिकारी श्री शाहिद चौधरी जी की हर दिन की रिपोर्ट पर भरोसा नहीं होगा। क्योंकि आप वही सुनना चाहते हैं जो कहानी आपने पहले से मन में बना रखी है।
रवीश जी पूछते हैं कि क्या उपस्थित सुधिजन इस बात का अंदाजा लगा सकते हैं कि कश्मीरियों को इंटरनेट का एक्सेस नहीं है! मुझे आज पता चला कि जिस इंटरनेट का प्रयोग करके भारत के कई राज्यों में दंगे हुए हैं, कश्मीर में पत्थरबाजों को इकट्ठा किया गया है, उस इंटरनेट को आतंकियों को एक्सेस के लिए सरकार को छोड़ देना चाहिए था क्योंकि रवीश जी की दिली इच्छा थी। यहाँ कश्मीर में हिंसा का इतिहास जिसने 42,000 से ज्यादा लोगों की जानें लीं, वहाँ के हर सप्ताह मरने वाले चार आतंकी, और हर शुक्रवार को होने वाली पत्थरबाजी की बातों को सरकार को इग्नोर करते हुए, इंटरनेट एक्सेस दे देना चाहिए था। क्यों? क्योंकि रवीश जी को लगता है कि किसी को सूचना से दूर रखना गलत बात है!
बोलने का मंच मिले तो नेशनल आदमी इंटरनेशनल हो कर कुछ भी बोल सकता है क्योंकि सुनने वाले कहीं जा नहीं सकते, और उनके भूरे-सफेद चेहरों पर जो भी फेंक दो, गम्भीरता का लबादा ओढ़े, वो लगातार ऐसे सुनते हैं जैसे कि रवीश उत्तरी कोरिया से सुरंग खोद कर, धारीदार गंजी और फटे पैंट के साथ सीधा मनीला में प्रकट हुए हैं।
सोशल मीडिया को पिछले छः सालों तक ट्रोलों का तंत्र और व्हाट्सएप्प यूनिवर्सिटी कह कर, इसे आईटी सेल से जोड़ने वाले रवीश जी की स्पीच में अचानक से इस माध्यम के प्रति प्रेम उबलता दिख पड़ा। जिस सोशल मीडिया ने इनके हर प्रोपेगेंडा को वहीं के वहीं नकारा है, याद दिलाया है कि उनकी घृणा और आलोचना की परिभाषा में अंतर है, उसी की बात करते हुए रवीश जी बताने लगे कि असली बदलाव यहीं से आएगा।
फर्क बस इतना है कि रवीश जी बदलाव देखना चाहते हैं, जबकि बदलाव आ चुका है। वो दिन गए जब इनके जैसे एंकर एकतरफा संवाद करते हुए जुनैद की हत्या को बीफ की वजह से बता देते थे और सवाल पूछने वालों को जगह नहीं मिलती थी। आज वो इन्हें याद दिलाते हैं कि जुनैद तो सीट के चक्कर में मारपीट का शिकार हुआ था। लेकिन रवीश ने न तो तब नैतिकता दिखाई न आज। इसलिए, वो जब दोबारा कश्मीर को याद करते हुए कहते हैं कि अगर कश्मीर की कोई लड़की ब्लॉग लिखेगी तो उसे एंटी-नेशनल कह दिया जाएगा।
जबकि अजीब बात यह है कि इन्होंने जितनी बार हर छोटी सी बात पर एंटिसिपेटरी बेल लेने जैसा ‘अब आपको एंटी नेशनल कह दिया जाएगा’ वाला पासा फेंका है, उतनी बार तो किसी ने किसी को एंटी नेशनल बोला भी नहीं है। ये तकनीक रवीश पिछले पाँच सालों से अपना रहे हैं, और सफलता भी इनके चरणचुंबन करती रही है। जैसे कि सबको याद होगा कि आपातकाल नामक बैल को ये कितनी बार नाथ से पकड़ कर अपनी घृणा की बैलगाड़ी चलाने के लिए उसके जुए तक लाते रहे हैं, लेकिन वो बैल भी इनके बागों के फर्जी बहार और काली स्क्रीन की नौटंकी को देख कर बोर हो चुका था, और ज्यादा दूर जा न सका।
पत्रकारिता की बात
पत्रकारिता की बात करते हुए उन्होंने श्रोताओं का काफी समय बर्बाद किया। वो बताते रहे कि जन आंदोलनों को कवरेज नहीं मिलती मीडिया में क्योंकि वो चलता नहीं। जबकि, स्थिति इसके उलट ऐसी है कि सारे चैनल कॉलेज की झड़प से लेकर, नेताओं के थप्पड़ मारने तक को लाइव कवर करना चाहते हैं। यूनिवर्सिटी के चुनावों तक राष्ट्रीय मुद्दे की तरह दिखाया जाता रहा है। भीमा कोरेगाँव हिंसा हो या फिर पिछले साल का तथाकथित दलित आंदोलन, गुर्जर आंदोलन, सवर्ण आंदोलन, विद्यार्थियों का प्रोटेस्ट, हर आंदोलन को टीवी दिखाता है और रवीश कुमार जैसे एंकर उसी के आधार पर घृणा की दुकान चलाते हैं। लेकिन फिलीपीन्स में बैठे आदमी को क्या पता कि जो रवीश अंग्रेजी में ,रिपोर्ताज ऑफ प्रोटेस्ट्स इज नॉट देयर’ फेंक रहा है वो हिन्दी में कितना क्या करता है।
आगे उन्होंने फिर इलाका धुआँ-धुआँ करने वाला माहौल गढ़ते हुए कहा कि सरकार ने मीडिया को पूरी तरह अपने नियंत्रण में ले लिया है। ये सब बस कहने की बातें हैं क्योंकि भाजपा समर्थकों की सबसे बड़ी चिंता यही है कि दो-तीन चैनल छोड़ बाकी लोग मोदी जी की चालीसा क्यों नहीं पढ़ते। पूरी तरह से नियंत्रण का आखिर क्या मतलब है? अंग्रेजी में इस तरह के वाक्यांश बोलना कूल लगता होगा शायद क्योंकि भारत में मीडिया अगर पक्षपाती है, तो वो दोनों तरीके से है। ये बात और है कि रवीश जी ने दुनिया को टीवी न देखने की सलाह देते हुए शुतुर्मुर्ग टाइप सच में दो-तीन सालों से टीवी देखा ही न हो, और लगता हो कि उनका चैनल छोड़ कर सारे लोग सुबह में ‘अमित शाह जी की जय’ से शुरु करते हैं और शाम में ‘जय मोदी देवा’ कहते हुए सोते हैं।
सब मिले हुए हैं जी
बीच-बीच में लोकतंत्र की जीत और आम तौर पर लोकतंत्र की हत्या का राग छेड़ने वाले रवीश जी ने आज यह भी कह दिया कि सत्ता, पुलिस और न्यायपालिका पूरी तरह से नागरिकों के प्रति शत्रुतापूर्ण आचरण करने लगी है। ये कहने के पीछे रवीश जी, जाहिर तौर पर, अपने ‘जाँच कराने में क्या जाता है’ वाली बात को याद कर रहे होंगे।
रवीश जी की समस्या यह है कि वो सोचते हैं कि जो मुद्दा उन्होंने उठा लिया, उस पर वो जो सोच चुके हैं, न्यायपालिका से लेकर सरकार और पुलिस तक को उन्हीं के आदेशानुसार कार्य करना चाहिए। जैसे कि जस्टिस लोया के केस में परिवार ने जब कह दिया कि उन्हें जाँच नहीं करानी, कोर्ट ने कह दिया कि कुछ गलत नहीं है, तो अंकित सक्सेना के पिता की अपील को सराहने वाले रवीश बिफर गए कि कोर्ट ने ऐसा कैसे कह दिया!
अब, जबकि उनके द्वारा उठाए मुद्दे, उनके द्वारा जारी किए गए दिशानिर्देशों को पूरे भारत की जनता अखंड सत्य मान कर कार्य नहीं करती तो उन्हें लगता है कि सब कुछ मैनेज हो गया है। घर में कोई भाई अगर उनका चैनल ऑफ कर देता है तो वो समाज को बाँटने वाली शक्तियों का परिवार के स्तर पर उतरना हो जाता है। आप यह देखिए कि अवसाद का स्तर कितना ज्यादा हो गया है कि इस व्यक्ति के हिसाब से भारत में हर संस्था न सिर्फ कॉम्प्रोमाइज्ड है बल्कि नागरिकों का शत्रु बन बैठी है!
यह कहते हुए रवीश के होंठ नहीं काँपे क्योंकि हर रात जब व्यक्ति इतने ही अवसाद के साथ, समाज को तोड़ने के लिए लोगों को उकसाता रहता हो, उन्हें तैयार करता हो कि हिन्दू तो तुम्हें राह चलते ‘जय श्री राम’ कहने को बोलेगा, तुम नहीं बोलोगे तो तुम्हें तो लिंच कर देगा, तो जाहिर है कि भारत की स्थिति सोमालिया या नॉर्थ कोरिया से भी बदतर बताने में ये आदमी लायडिटेक्टर मशीन को भी धोखा दे देगा। क्योंकि ऐसा करने में इनका कम्फर्ट लेवल बहुत हाय हो चुका है।
व्हाट्सएप्प यूनिवर्सिटी का हर दिन मजाक बनाने वाले रवीश ने आज स्वयं ही स्वीकार किया कि उनकी पूरी पत्रकारिता आज कल व्हाट्सएप्प से ही चल रही है। अपने व्हाट्सएप्प पढ़ने के हृदयविदारक अनुभव को उन्होंने चम्पारण में किसानों से बात करते महात्मा गाँधी के समकक्ष रख दिया। ये सही तरीका है कि लोग गाँधी न बोलें तो स्वयं ही गाँधी बन जाओ, वैसे भी गाँधियों में रवीश जी को देश का भविष्य तो हाल के दिनों तक दिखता रहा है। व्हाट्सएप्प को न्यूजरूम मानने वाले रवीश जी इसीलिए बिना सबूत के ‘मुझे मैसेज आते हैं‘ के बल पर प्रोग्राम करते हैं, और 25 लाख लोगों की जाती नौकरियों की बात करते हुए, दो आदमी ढूँढ कर नहीं ला पाते जो सरकार के खिलाफ बोल सके। और हाँ, अंत में ‘सरकार का डर इतना ज्यादा है कि लोग कैमरे पर बोलना नहीं चाहते’ वाली कालजयी लाइन तो है ही।
सूचना, सत्य और रवीश
स्पीच के अंतिम हिस्से में उन्होंने जो-जो बात कही, वो सुन कर तथ्यात्मक पत्रकारिता में विश्वास करने वाला सिर्फ मुस्कुरा सकता है। रवीश कुमार ने बताया कि सूचना को तथ्यात्मक होना चाहिए, जबकि रवीश जी को जिस बात के लिए अवार्ड मिला है, उसमें जो सूचना इन्होंने तथ्य के नाम पर प्रोपेगेंडा की चाशनी में डुबा कर बार-बार परोसा है, उसे देखने वालों को तो यह सुन कर गजब आश्चर्य होगा।
पिछले पाँच सालों में रवीश की पूरी पत्रकारिता, सेलेक्टिव रही है। यह कह कर उन्माद फैलाने की कला सिर्फ रवीश को आती है कि जिसमें बार-बार एक समुदाय को कहा जाता है कि ‘डर का माहौल है’, हिन्दू तुम्हें लिंच कर रहे हैं, संभल कर रहो। जब आप रिपोर्टिंग के नाम पर प्रपंच बाँटते हैं तो यही सारी बातें निकलती हैं जहाँ गोएबल्स की बातें करते हुए, खुद ही उसी की तकनीक का इस्तेमाल कर लोगों तक झूठ को सत्य बना कर पहुँचाना मुख्य लक्ष्य हो जाता है।
सामाजिक अपराधों को मजहबी रंग दे कर, कट्टरपंथियों को हमेशा पीड़ित की तरह दिखाना, और उसी तरह के वैसे अपराधों पर चुप हो जाना जिसमें पीड़ित हिन्दू हैं, आरोपित समुदाय विशेष से, यह बताता है कि आपके पत्रकारिता की ब्रांड क्या है। चाहे वो हिन्दुओं के मंदिरों को तोड़ने की बात रही हो, काँवड़ियों पर पत्थरबाजी की बात हो, बंगाल के हर जिले में मजहबी दंगों की बात हो, रवीश की चुप्पी बहुत सहज हो जाती है। जब रवीश अपनी स्पीच में यह कहते दिखते हैं कि भारतीय मीडिया घृणा फैलाने में व्यस्त है, तो वो भी उसके बहुत बड़े हिस्सेदार हैं।
अंत में करोड़ों की मनी लॉन्ड्रिंग जैसे आरोप झेलते अपने मालिकों का धन्यवाद करते हुए आपने दोबारा वही एंटिसिपेटरी बेल वाली तकनीक अपनाई जब आपने कहा कि पता नहीं इस स्पीच के बाद उनके साथ क्या हो। आख़िर आपकी स्पीच के कारण उन पर कुछ भी क्यों होगा? आप जब आरोप लगाएँ कि जय शाह ने धाँधली की, डोभाल के बेटे कालाधन छुपा रहे हैं, जस्टिस लोया की हत्या हुई और हर बात में ‘जाँच कराने में क्या जाता है’ कहते रहे तो सब ठीक था, लेकिन आपके मालिकों पर सरकारी एजेंसियाँ पूछताछ कर रही है, जाँच कर रही है, तो आप ऐसा माहौल बना रहे हैं कि मोदी सुबह-सुबह योग करने के बाद टीवी ऑन कर के आपका स्पीच सुन रहा होगा, और खत्म होते ही ईडी वालों को कहा होगा कि जरा देखो तो प्रणय्या क्या कर रहा है, उसको उठा लो।
अपने आपको इतना इम्पॉर्टेंस क्यों देते हैं आप जबकि भाजपा का एक प्रवक्ता भी आपको इम्पॉर्टेंस के लायक नहीं समझता, कारण जो भी हो। कहीं ऐसा तो नहीं कि प्रणय रॉय-राधिका रॉय के मामले में कुछ पता हो आपको जो सरकार को भी पता चल जाए और जब वो पकड़े तो आप उछल पड़ें कि ‘मैंने तो बोला ही था, मैंने बोला था न…’
लोकतंत्र ही रहे, लेकिन चले बस कुछ लोगों के हिसाब से
जब आप घरों में पिता द्वारा टीवी पर अपने प्रोग्राम के बंद करने के बाद, बेटी द्वारा टीवी ऑन कर लेने को लोकतंत्र के बचने के जैसा मान रहे हैं तो कहीं न कहीं ये दिमागी समस्या है। लोकतंत्र की हत्या लगभग हर दिन करने वाले रवीश जी को यह जानना चाहिए लोकतंत्र को बचाने की जरूरत नहीं है क्योंकि वो सक्षम हाथों में है जिसे तय तरीके से, संवैधानिक और लोकतांत्रिक दायरे में रह कर भारत की जनता ने सत्ता दी है।
रवीश और उनके गिरोह को यह बात हमेशा खली है कि वो जिसे चाहते हैं वही लोग सत्ता में क्यों नहीं हैं। यह बात पचाना मुश्किल है, और लगभग उनकी पत्रकारिता द्वारा अजेंडा सेटिंग की क्षमता पर सवाल खड़े करता है कि पाँच साल की अनवरत नकारात्मक अजेंडाबाजी के बावजूद भाजपा को ज्यादा सीटें कैसे आ गईं। उनका दम्भ उन्हें इस बात को समझने से मना करता है कि रवीश के वोट का मोल और सड़क के लिए पत्थर ढोने वाले किसी ब्रजेश के वोट का मोल एक ही है।
जबकि इनकी दिली इच्छा रही है कि नाम तो सिस्टम का डेमोक्रेसी ही रहे, लेकिन सत्ता चुनने का हक उनके गिरोह के पास चला जाए क्योंकि कुपोषण से जूझते, गरीबी में पलते, रटंत स्कूलिंग से निकले और टाय लगाकर डिजिटल मजदूरी करने वाले भारतीयों को समझ में ही क्या आता है कि सरकार होती क्या है, और कैसे चलनी चाहिए। वैसे भी इन्होंने यहाँ के युवाओं की सियासी समझ को थर्ड क्लास कहा ही है और उन्हें मुर्दा भी बताया।
इसलिए, जब रवीश कुमार भारत आएँ, तो उन्हें बताया जाए कि उनके वोट की कीमत दस करोड़ हो गई है। उन्हें बस राजदीप, बरखा, सगारिका जैसे पाँच लोगों को ही तैयार करना होगा कि 2024 के चुनावों में वो लोग वोट दे दें, जिससे कि पचास करोड़ वोट मोदी के खिलाफ हों और वो चुनाव हार जाए। उसके बाद फिर स्टूडियो में बैठ कर, फोन करते हुए, कैबिनेट तय हो जाए, भारत दोबारा वैसा हो जाएगा जैसा 2014 के पहले था: मैडिटेरेनियन क्लाइमेट, अमेरिकी अर्थव्यवस्था और नॉर्डिक शिक्षा-स्वास्थ्य-नौकरी पद्धति का अनूठा संगम!