Friday, March 29, 2024
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रवीश जी, इतने दुबले क्यों हो रहे हैं कश्मीर को लेकर?

वो व्यक्ति पत्रकारिता का स्तंभ होने का दंभ भरता है जिसके पैनल में हमेशा एक ही विचार के लोग होते हैं, और विरोध के मत वालों को बुलाने की कोशिश भी नहीं होती। रवीश के प्राइम टाइम से ज्यादा अलोकतांत्रिक न्यूजरूम कहीं नहीं होता जहाँ, ऐसी तानाशाही प्रवृत्ति के लोग, हर रात यह चिल्लाते हैं कि असली पत्रकारिता वही कर रहे हैं, वो जो कह रहे हैं वही शाश्वत सत्य है, जबकि नंगा सच यह है कि रवीश कुमार से ज़्यादा मैनेज्ड पैनल किसी भी स्टूडियो में नहीं दिखता।

मैग्ससे अवॉर्ड से पुरस्कृत रवीश कुमार जी को अवॉर्ड मिला ही था कि अमित शाह ने पूरी कोशिश कर दी कि आदमी गुस्से में अवॉर्ड वापसी कर दे। अभी चॉकलेट फ्लेवर केक की महक स्टूडियो के एग्जॉस्ट फैन ने पूरी तरह से बाहर फेंकी भी नहीं थी कि अमित शाह ने उनकी खुशियों की चमक को हैलोजन लाइट से सीधा लाल-हरी एलईडी में बदल दिया। प्राइम टाइम इंट्रो करते-करते रवीश जी कश्मीर पर पूरा प्राइम टाइम ही निकाल ले गए।

स्टूडियो में परममित्र फैजान मुस्तफा जी के अलावा किसी राजनैतिक दल के प्रतिनिधि नहीं थे। ये बात और है कि रवीश भक्त मानते हैं कि रवीश जी स्वयं ही अपने आप में सारे राजनीतिक दल हैं। अगर महाभारत की बात करें तो रवीश जी आने वाले दिनों में अपना विराट रूप दिखा सकते हैं, जिसमें हम देखेंगे कि ‘सब जन्म मुझी से पाते हैं, फिर लौट मुझी में आते हैं’। उस हिसाब से उन्होंने विपक्षी दलों की भूमिका में स्वंय को रखते हुए, पत्रकारिता के स्वनिर्धारित फर्जी मापदंड कि ‘पत्रकार का काम हमेशा सरकार के विरोध में रहना होता है’ को शिद्दत से निभाया। पक्ष में अमित शाह के क्लिप्स तो आ ही रहे थे।

कश्मीर की बात करते हुए पहला दर्द जो रवीश जी के फूले हुए सीने में सुई जैसा चुभा वो यह था कि सरकार ने कश्मीर के लोगों से राय क्यों नहीं ली? उन्होंने ज़ोर दे कर पूछा कि पीडीपी और नेशनल कॉन्फ़्रेंस के सासंदों से क्यों नहीं पूछा गया। कश्मीर के लोगों की राय इसलिए नहीं ली गई क्योंकि उन्होंने किसी भी नेता को अपनी राय देने के लिए नहीं चुना था, इसलिए सरकार गिर चुकी है। जहाँ तक इन पार्टियों के सांसदों का सवाल है, एक ने अपना कुर्ता फाड़ कर श्रग नामक फैशनेबल वस्त्र बना लिया, और साथ ही संविधान को भी सदन में फाड़ गया। दूसरी बात यह है कि सासंदों को नाम लिखवा कर अपनी राय देने का प्रावधान है, उन्हें सुपारी और जनेऊ देकर बुलाया नहीं जाता कि भैया राय दे दो।

एक लाइन जो रवीश जी ने अपने डार्क ह्यूमर का प्रयोग करते हुए बार-बार कही और अपने भक्तों को रवीश प्रोफेशनल प्रोपेगेंडा यूनिवर्सिटी (व्हाट्सएप्प पत्राचार माध्यम) के नए शोध के कोर्सवर्क के तौर पर प्रदान की, वो यह थी कि ‘इससे क्या होगा, ये समस्याएँ तो बाकी राज्यों में भी है, उन्हें भी केन्द्र शासित बना दिया जाए’। रवीश जी शायद मैग्ससे वाले केक खाने के चक्कर में भूल गए कि बाकी राज्यों में न तो 370 था, न 35A, और कश्मीर बाकी राज्यों की तरह नहीं था इसीलिए ऐसा करना पड़ा।

कहने लगे कि रोजगार के अवसर अगर पैदा होते हैं तो फलाँ राज्य को भी केन्द्रशासित बना दिया जाना चाहिए। भ्रष्टाचार तो हर जगह है, सबको बाँट देना चाहिए। ऐसे ही वक्त पर रवीश जी क्यूटाचारी हो जाते हैं। मतलब, एक राज्य को, जहाँ बाहरी व्यक्ति रोजगार ला ही नहीं सकता, बाहरी का बसना गैरकानूनी है, बाकी के राज्यों के समकक्ष रख रहे हैं जो नॉर्मल है? ‘रोजगार नहीं है’ का भांडा कई बार फूट चुका है, इसलिए इस पर चर्चा नहीं करूँगा।

कश्मीर सामान्य राज्य नहीं था, इसलिए वहाँ जो समस्याएँ थीं, भले ही वो बाकी राज्यों में भी हो, उसके समाधान के लिए उसकी उस विशेषता को हटाना होगा जो उसके विकास की बाधक है। इसलिए, चुटकुलेबाजी के लिए तो नकली हँसी हँसते हुए रवीश कह सकते हैं कि यूपी को भी बाँट दिया जाए, लेकिन वो कुतर्क है, उस पर चर्चा नहीं होनी चाहिए।

उसके बाद, भावुक आवाज किन्तु भावहीन चेहरे के साथ रवीश जी ने बताया कि कैसे 1948 में जब आतंकियों ने हमला किया तब नेशनल कॉन्फ्रेंस के कार्यकर्ताओं ने अपनी शहादत दी थी। बिल्कुल दी थी रवीश जी, बाकी पार्टियों के कार्यकर्ता भी मरे थे। और संसद में रखे गए आँकड़ों की माने तो कश्मीर में अब तक लगभग 50,000 लोग मारे जा चुके हैं।

दूसरी बात यह है कि रवीश जी 1948 में तो चले गए, क्योंकि उनको सूट कर रहा था, लेकिन 1989-90 में क्या हुआ, ये पूरे एपिसोड में नहीं बता सके। रवीश कुमार एक लाइन नहीं बोल सके कि इन दो सालों के बीच, और उसके बाद ऐसा क्या हुआ कि रातों रात कश्मीर की डेमोग्रफी बदल गई और शिव की धरती पर मंदिरों में नमाज पढ़े गए। आप ये कह कर नहीं बच सकते कि उस घटना के सामने तो सारे तर्क निरस्त हो जाते हैं। आपको हर बार क्रूरता की डिग्री को माइक्रोस्कोप से देखना होगा, एक पूरी जनसंख्या की हर छटपटाहट को पढ़ना होगा और तब कहिए कि कश्मीर कैसे अलग है, और जो हुआ उसे कैसे ठीक किया जाए।

‘डर का माहौल’, ‘आवाज को दबाया जा रहा है’, ‘सवाल करना एंटी नेशनल बनाता है’ जैसी फर्जी बातें बेच कर, हजारों करोड़ के मनी लॉन्ड्रिंग का आरोप झेल रहे मालिक की डुगडुगी बजाते पत्रकारिता के स्वघोषित स्तंभ ने कहा कि अगर लोग प्रश्न पूछेंगे तो उन्हें अलगाववादी कह दिया जाएगा। लगता है कि प्राइम टाइम में जिस अनौपचारिकता और उपेक्षा से रवीश आजकल बैठते हैं, बातें करते हैं, उन्होंने सिर्फ वही क्लिप्स देखीं जो उनके एडिटर ने उनके लिए छाँटी थी। अगर उन्होंने पूरी कार्यवाही देखी होती तो कैमरे में देख कर ऐसा बेहूदा झूठ नहीं बोलते। लेकिन बात तो वही है कि हमारा कैमरा, हमारा स्टूडियो और हमारे रवीश भक्त, हम जो कहेंगे वही सही है। जबकि, संसद में कई सांसदों ने सवाल किए, उन्हें जवाब दिया गया। उन्होंने स्पष्टीकरण माँगे, उन्हें स्पष्टीकरण दिया गया।

कश्मीर की बात हो और कश्मीरी पंडित कैसे नहीं आएँगे चर्चा में! लेकिन अगर रवीश का शो हो तो वो सरकार को गलत साबित करने के लिए पूरे भारत से तीन ऐसे गाँव ले आएँगे जहाँ बिजली के खंबे तो हैं लेकिन उन पर सरकार ने तार खींचने से पहले पूरे भारत के विद्युतीकरण का हल्ला कर दिया। ये इंसान इस बात पर अचंभित नहीं होता कि भारत के कई हजार गाँव अब बिजली पा सकेंगे, बल्कि वो इस पर खुश होता है कि तीन में तो नहीं हुआ न! उसी तर्ज पर, कश्मीरी पंडितों के बारे में लम्बी हाँकने के बाद रवीश ने किसी व्यक्ति को यह कहते दिखाया कि कश्मीर में 5-6000 कश्मीरी पंडित 101 जगहों पर रह रहे हैं। उन्हें कोई समस्या नहीं है।

रवीश जी किताबों का हवाला देते हैं, पन्ने का नंबर बताते हैं। मैं भी आँकड़ों की बात करते हुए बताना चाहूँगा कि सबसे कम संख्या बताने वाले लोग कहते हैं कि जनवरी 1990 से घाटी छोड़ने वाले कश्मीरी हिन्दुओं की संख्या एक लाख है। कुछ के अनुसार यह संख्या डेढ़ लाख है, और कुछ इसे आठ लाख तक बताते हैं। सबसे कम वाले को भी सही माना जाए तो क्या पाँच हजार लोगों के कश्मीर में होने से बाकी के 95,000 और उनके अभी के परिवारों का न्याय हो गया? पाँच प्रतिशत के वहाँ होने की बात दिखा कर किसको सांत्वना दे रहे हैं? क्योंकि आने वाले दिनों में आपके भक्तगण काले बैकग्राउंड पर ‘भाजपा का झूठ पकड़ा रवीश ने, कश्मीरी पंडित अभी भी खुशहाल हैं घाटी में’ घुमाते मिलेंगे। उनमें से किसी को तीन साल बाद रवीश श्री या रवीश विभूषण भी मिल जाएगा, किसको पता!

उसके बाद रवीश कुमार ने बताया कि इन दोनों केन्द्रशासित प्रदेशों की राजनैतिक पहचान आधी रह जाएगी! इसका मतलब क्या है, मुझे नहीं पता क्योंकि इतनी खूफियागीरी तो मैं नहीं कर सकता। कश्मीर की पहचान, दुर्भाग्य से, एक आतंकग्रस्त राज्य के रूप में ही रही है जहाँ के लोग अपने आप को आजादी के लिए तैयार करते रहते हैं। ऐसा मानना सच है या गलत, वो अलग चर्चा है, लेकिन अब कश्मीर की राजनैतिक पहचान भारत के एक अभिन्न अंग के रूप में है जहाँ भारत का संविधान, झंडा, दंड विधान और सारी योजनाएँ लागू होंगी। इसलिए, इनकी राजनैतिक पहचान आधी नहीं हुई, बल्कि अब उन्हें पूर्णता मिली है।

इसके बाद रवीश जी बिलकुल ऐसे बोलने लगे जैसे वो कल ही पैदा हुए और आज उन्हें स्टूडियो में बिठा दिया गया। वो सत्यपाल मलिक के जून और दो दिन पहले के बयान दिखाते हुए बोले कि देखिए राज्यपाल तो कह रहे हैं कि कश्मीर में कुछ नहीं होने वाला, सब अफवाह है कि ये हटेगा, वो हटेगा। लेकिन दो दिन बाद तो हटा दिया गया। इसके बाद रवीश जी ने इसका मतलब निकाला कि इतना बड़ा फैसला था और राज्यपाल को भी ये बात पता नहीं थी। जी रवीश जी, राज्यपाल को पता नहीं था, वरना वो तो लाउडस्पीकर लेकर कहता फिरता कि कश्मीर वालों तुम्हारा स्पेशल स्टेटस गया ‘चितरा के झाँट में’, सड़कों पर उतरो और पत्थरबाजी करो, राज्य सरकार तुम्हें पाँच सौ रुपए देगी। एक ही दिल है कितनी बार सांकेतिक छुरा मार कर आत्महत्या करूँ आपके कुतर्क सुन कर? (‘चितरा के झाँट में’ मिथिला क्षेत्र की ठेठी बोली का मुहावरा है जिसका तात्पर्य है ‘चित्रा नक्षत्र की फुहार’। इसका अर्थ ‘भाँड़ में जाओ’ जैसा है।)

कुल मिला कर, अंग्रेजी की एक कहावत रवीश जी के प्राइम टाइम को समेट देती है कि ‘some people speak because they have something to say, while some speak because they have to say something’. इसका अर्थ है कि कुछ लोग इसलिए बोलते हैं कि उनके पास बोलने के लिए कुछ होता है, जबकि कुछ लोग बस इसलिए बोलते हैं क्योंकि उन्हें कुछ बोलना होता है।

रवीश कुमार की एक समस्या यह भी है कि चालीस मिनट के प्राइम टाइम में वो इस बात पर खुश नहीं होते कि हजारों गाँवों में बिजली पहुँची, बल्कि वो पूरे समय यह बताने में लगे रहते हैं कि नहीं, तीन गाँव में नहीं पहुँची। यही पत्रकारिता उन्हें बाकी पत्रकारों से अलग बनाती है। उनमें यह दैवप्रदत्त कला है कि वो जब पत्रकार होते हैं तो वो अपने भाई और मालिक को भूल जाते हैं कि उनके कांड क्या हैं। वो जब पत्रकार होते हैं तो जेडीयू को यह याद जरूर दिलाते हैं कि वो भाजपा के साथ सरकार में हैं, और उन्हें कश्मीर वाले मसले पर जब सूचना भी नहीं दी गई तो उन्होंने इस्तीफा भी नहीं दिया।

जबकि उन्हें ही पत्रकारिता का आदर्श मानने वाले भक्तों से मेरा सवाल यह है कि मोदी से हर रात कठिन सवाल पूछने वाले रवीश अपने जमीर से कब कठिन सवाल पूछेंगे? आखिर वो कब इस्तीफा देंगे क्योंकि जब तक प्रणय रॉय अपने पैसों वाले कांड से बाइज़्ज़त बरी नहीं हो जाते, वो एनडीटीवी से नैतिकता के आधार पर तो जुड़े नहीं रह सकते? लेकिन वो ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि फिर अपने हृदय में अंधेरा लिए घूमने वाले पत्रकार शिरोमणि भारत की जनता को कैसे बताएँगे कि उनके डिश की छतरी की तार मोदी रात में काट देता है!

वो व्यक्ति पत्रकारिता का स्तंभ होने का दंभ भरता है जिसके पैनल में हमेशा एक ही विचार के लोग होते हैं, और विरोध के मत वालों को बुलाने की कोशिश भी नहीं होती। रवीश के प्राइम टाइम से ज्यादा अलोकतांत्रिक न्यूजरूम कहीं नहीं होता जहाँ, नेता तो चलिए आते नहीं है, जानकार भी अपने विरोध की आवाज को प्रदर्शित करने नहीं बुलाए जाते। क्या राजनैतिक विश्लेषक सिर्फ एक ही विचारधारा के होते हैं, या भाजपा के बायकॉट के बाद, भाजपा के समर्थकों में कोई विश्लेषक नहीं है? ऐसा नहीं है, बात इतनी है कि ऐसे तानाशाही प्रवृत्ति के लोग, हर रात यह चिल्लाते हैं कि असली पत्रकारिता वही कर रहे हैं, वो जो कह रहे हैं वही शाश्वत सत्य है, जबकि नंगा सच यह है कि रवीश कुमार से ज़्यादा मैनेज्ड पैनल किसी भी स्टूडियो में नहीं दिखता।

दुनिया से कठिन सवाल पूछना और उन्हें आदर्श से कम की स्थिति में नहीं स्वीकार पाना, रवीश जी की कई अदाओं में से एक है। सत्तर साल से जिस अस्थाई बात को ढोया जा रहा था, रवीश जी इतने छिछले तरीके से उसे डिफेंड करेंगे, ये नहीं सोचा था। वो ये बात भूल गए कि कश्मीर की डेमोग्रफी कैसे एक तय तरीके से बदली गई। वो यह भूल गए कि 1957 में पंजाब के गुरदासपुर और अमृतसर से कश्मीर में वाल्मीकि समुदाय का एक समूह कश्मीर सरकार की माँग पर उनका कचरा साफ करने आया था, और आज तक उसे वहाँ का नागरिक होने का हक भी नहीं दिया गया है। इसलिए रवीश जी यह ज्ञान तो न दें कि केन्द्रशासित बनाने से क्या हो जाएगा।

रवीश बहुत आराम से भूल गए कि किस अनुच्छेद की आड़ में आजादी की बात होती है। रवीश यह भूल गए कि आईसिस के झंडे गुजरात सा राजस्थान के गाँवों में नहीं दिखते, बल्कि कश्मीर घाटी में वो एक आम दृश्य है। रवीश जी ने कश्मीरी पंडितों की पीड़ा की वो किताबें नहीं पढ़ीं जो वो पीढ़ी लिख रही है जिसका बचपन उनसे छीन लिया गया था और जवानी अपने ही देश में भटकते हुए बीत रही है। रवीश जी ने उस बच्चे के बारे में नहीं सुना जो सेना के जवानों द्वारा दागी गई गोलियों के खोले चुनता है, उसे स्क्रैप मार्केट में बेचता है ताकि वो कुछ खा सके।

किताबें तो मैंने भी बहुत पढ़ी हैं, और पेज नंबर मुझे भी याद हैं, लेकिन मैं अभी तक इतना धूर्त नहीं बन पाया कि उस ज्ञान का इस्तेमाल अपनी फर्जी विचारधारा और मालिकों के प्रोपेगेंडा की रोटी सेंकने में कर सकूँ। वो तरीके रवीश को ही मुबारक हों।

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अजीत भारती
अजीत भारती
पूर्व सम्पादक (फ़रवरी 2021 तक), ऑपइंडिया हिन्दी

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