सिनेमा का सफर शुरुआती दौर से लेकर अब तक अविस्मरणीय रहा है। एक ऐसा माध्यम जिसने चलचित्रों के माध्यम से अनेकों कहानियाँ हम तक पहुँचाई और हमारी उसमें रुचि पैदा की। इस माध्यम का प्रभाव इतना ज्यादा रहा कि शुरुआती समय में तो दर्शक यही भूल गया कि उसे क्या ग्रहण करना है और क्या दरकिनार। बस, जो भी पर्दे पर आया वहीं अंतिम सत्य…। दर्शकों की इसी प्रतिबद्धता का फायदा उठाकर इस पर खूब राजनीति हुई। अपनी विचारधारा के ओट में दर्शकों की मानसिकता तय की जाने लगी। एक समय ये भी आया जब हिन्दी सिनेमा ने हिंदू सम्राटों के इतिहास को हाशिए पर रख दिया और भारतीय संस्कृति को एकमात्र गंगा-जमुनी तहजीब की धरातल पर परोसने लगे।
इस दौरान मुगल शासकों पर अलग-अलग तरीकों से फिल्में बनीं, अलग-अलग कहानियों के साथ। इनमें जहाँगीर को चाहते-न चाहते हुए भी कुरीतियों पर लगाम लगाने वाला बताया गया। हिंदुओं की बहन-बेटियों का अपहरण कर उन्हें दरबार में प्रदर्शनी बनाने वाले अकबर की कहानी कुछ ऐसे पेश की गई कि उसे हिंदू तक अपना नायक मानने लगे। इस काल में महान मराठा सम्राट शिवाजी की वीरगाथा मौन रही, दिल्ली सम्राट पृथ्वीराज चौहान को छोटे पर्दे कर सीमित कर दिया गया और बाकी हिंदू शासकों को बिना शोध के जान पाना असंभव हो गया।
लंबे समय बाद कुछ सालों पहले ये स्थिति बदली और कुछ समय से मुगल शासकों के अलावा विस्मृत हिंदू सम्राटों पर भी फिल्में बननी लगीं। हालाँकि इन फिल्मों की सिनेमेटोग्राफी, डॉयलॉग डिलीवरी, कलाकारों की एक्टिंग आदि यहाँ चर्चा का विषय नहीं हैं। यहाँ विषय है इतिहास के उन नायकों का, जो एक समय तक दबे रहे और अब उन्हें सिनेमाई पर्दे पर जगह दी जा रही है। अब दर्शकों को इतिहास के उन नामों से परिचित कराया जा रहा है, जिनकी गाथा शोधार्थियों के शोध में है, लेकिन इतिहास की किताबों में वे एक पंक्ति या पैराग्राफ में समेट दिए गए।
समय बदला, नदरिया बदला, कुछ डायरेक्टर-प्रॉड्यूसर आए, कुछ नए लेखकों ने अलग कहानियाँ लिखीं। तब जाकर बड़े पर्दे पर हिंदुस्तान का इतिहास भी दिखने लगा। बॉलिवुड प्रेमियों को पिछले कुछ वर्षों से यह लगने लगा कि हिंदू नायकों को भी उतनी ही महत्ता दी जा रही है, जितनी की कभी किसी मुगल शासक को दी जाती थी। लेकिन प्रोपेगेंडा फैलाने में माहिर मीडिया हाउस द क्विंट जैसे संस्थान को यह भला रास क्यों आता। दर्शक को ‘आधा पहलू या अलग पहलू’ दिखाने का चलन आदि उन्हीं जैसे लोगों ने तो बनाया है। ऐसे में अगर दूसरा पक्ष भी सिनेमा पर उतरने लगा तो उनके विचारों का क्या होगा? उन्हें तो डर है कि लोग जानने-समझने के इच्छुक हो जाएँगे और उनके बताए ‘सच’ को कोई नहीं सुनेगा। इसलिए जैसे ही तानाजी का ट्रेलर रिलीज हुआ, और उससे पहले पानीपत का ट्रेलर को भी लोग देख चुके है… तो क्विंट ने इस पर एक लेख लिख मारा। माफ कीजिए, लेख नहीं – जहर लिखा है, जहर!
4th Feb 1670: The surgical strike that shook the Mughal Empire!
— Ajay Devgn (@ajaydevgn) November 19, 2019
Witness history like never before. Presenting the official #TanhajiTrailer: https://t.co/NOykEyWrUh@itsKajolD #SaifAliKhan @omraut @itsBhushanKumar @SharadK @ADFFilms @TSeries @TanhajiFilm
हालाँकि ये पूरा लेख किसी तथाकथित सेकुलर के लिए एक आदर्श लेख हो सकता है। लेकिन एक आम नागरिक और सेकुलरिज्म की उचित परिभाषा समझने वाले के लिए ये लेख केवल हिंदुओं के इतिहास और उसके पर्दे पर दिखाए जाने को लेकर पैदा हुई कुंठा का प्रतिबिंब ही है।
तानाजी फिल्म पर लेख में लिखे मुख्य बिंदु
लेख की शुरुआत में ही ये साफ कर दिया जाता है कि किसी भी प्रकार का सिनेमा अपने समय की राजनीति को दर्शाता है। इसलिए नेहरू के समय ‘जिस देश में गंगा बहती है’ और ‘2 बीघा जमीन’ जैसी फिल्मों का निर्माण होता है। जबकि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में ‘बेबी’ और ‘उरी-द सर्जिकल स्ट्राइक’ जैसी फिल्मों की झड़ी लग जाती है।
इसके अलावा इस लेख में ये भी बताया जाता है कि मोदी सरकार के नेतृत्व में सिनेमा सिर्फ़ हिंदू राष्ट्रवाद के नैरेटिव को बढ़ावा दे रहा है। जिसके सबूत संजय लीला बंसाली की फिल्म ‘पदमावत’,’बाजीराव मस्तानी’ जैसे फिल्में हैं और अब ‘पानीपत-द ग्रेट बिट्रेयल’ और ‘तानाजी’ भी इसके ही उदाहरण हैं। लेकिन उस समय का क्या जब नेहरू काल में ‘अनारकली’ और ‘ताजमहल’ जैसी फिल्में बन रहीं थी और उससे पहले हुमायूँ जैसी फिल्में तैयार हो चुकीं थीं… क्या उस समय वो फिल्में राजनेताओं के चरित्र का उल्लेख नहीं करती थीं? अगर इस समय हिंदू राष्ट्रवाद को बढ़ावा दिया जा रहा है तो कॉन्ग्रेस काल में बनी अकबर जैसी फिल्में दर्शकों को इतिहास का कौन सा चेहरा दिखाना चाहती थी?
मोदी सरकार को घेरने की आड़ में लेख लिखने वाले पत्रकार हिंदु राष्ट्रवाद को किस नीचता से समझाते हैं, ये लेख को आगे पढ़ने पर समझा जा सकता है। ‘तानाजी’ फिल्म कुल मिलाकर छत्रपति शिवाजी द्वारा मुगल शासक पर कूच की एक कहानी है। जिसमें तानाजी मालूसोर (छत्रपति शिवाजी की ओर से उनके कोली जनरल होते हैं, और राजपूत उदयभान सिंह राठौड़ मुगलों की ओर से कमांडर। अब चूँकि इस फिल्म में तानाजी का किरदार अजय देवगन द्वारा निभाया गया है और उदयभान सिंह का सैफ अली खान द्वारा तो द क्विंट इसमें हिंदू-मुस्लिम ढूँढने से गुरेज नहीं करता और बताता है कि आखिर कैसे एक मराठा और राजपूत के बीच की लड़ाई साम्प्रादायिक बनी।
लेख में जोर देकर बताया जाता है कि फिल्म के तानाजी और उदयभान सिंह दोनों हिंदू थे, लेकिन ट्रेलर में अजय देवगन के माथे पर तिलक है, जबकि सैफ अली खान के माथे पर नहीं। अब ये बात इतिहास को थोड़ा-बहुत भी जानने वाला हर शख्स जानता है कि जिस समय मुगलों ने राज किया उस दौरान आम जनता समेत हिंदू राजाओं को उनके अधीन होना पड़ा था, और उनके तौर-तरीकों से हिंदुओं के जीवन-बसर पर भी असर पड़ा था। कई हिंदू मुगलों की ओर से लड़ते थे, क्योंकि उनके पास और कोई विकल्प नहीं था। अब अगर 5000 मुगल सैनिकों का प्रतिनिधि करने वाले ‘उदयभान राठौड़’ तिलक लगाकर मैदान में आते तो क्या मुगल उनके ऊपर यकीन कर पाते या फिर वो 5,000 सैनिक…
तथ्यों को अपनी कल्पना की जमीन पर परोसने वाले लोगों को अगर तानाजी का रोल कर रहे अजय देवगन के माथे पर लगे तिलक में ‘अच्छा-बुरा’, ‘हिंदू-मुस्लिम’ एंगल दिखता है, तो इसमें दर्शकों या पाठकों की क्या गलती है, उन्हें क्यों बरगलाया जा रहा है? पूरी कहानी मराठाओं औऱ मुगलों के बीच लड़ी गई, लड़ाई का प्रतिनिधित्व मराठाओं की ओर से तानाजी ने किया, इसलिए उनकी वीरगाथा पर आज फिल्म बनी है। अगर उनकी जगह उदयभान सिंह होता और उस वीरता से वो लड़ता तो शायद उस पर भी फिल्म बनती। हम चाहे कितने भी तर्क-कुतर्क कर लें, लेकिन इस बात को नहीं झुठलाया जा सकता है कि मुगलों ने भारत पर कब्जा किया था और मराठा इस देश की धरती को माँ की तरह पूजते थे। ऐसे में तानाजी के पक्ष को न दिखाकर उदयभान (जो मुगलों की ओर था, कारण चाहे जो भी हो) का पक्ष दिखाना कौन सा सेकुलरिज्म कायम करता है?
लेख में इस बात को भी बताया जाता है कि ट्रेलर में तानाजी कि माँ कहती हैं कि -“जब तक कोनढ़ाना में फिर से भगवा नहीं लहरेगा, हम जूते नहीं पहनेंगे।” और तानाजी कहते हैं “हर मराठा पागल है स्वराज का, शिवाजी राजे का, भगवे का।”
लेख लिखने वाले पत्रकार और उनकी मानसिकता वाले अन्य लोगों को समझने की जरूरत है कि जिन बिंदुओं को गलत-सही ठहराकर वो हिंदू राष्ट्रवाद को और इतिहास के नायकों की छवि धूमिल करने की कोशिश कर रहे हैं- वो किसी धर्म का प्रतीक है और ‘भगवा’ उसी भाव का एक रूप। क्या कभी किसी मुस्लिम शासक को आपने सुना है जंग के लिए संस्कृत में दहाड़ते हुए या फिर ‘जय श्री राम’ बोलते हुए जंग का आगाज करते – नहीं। वो वही बोलते हैं, जो उनके मजहब ने उन्हें सिखाया होता है। इसी तरह भगवा प्रतीक है भारतीय पृष्ठभूमि के एक पूरे काल का। अगर मराठाओं ने भगवा रंग पर अपने भाव जाहिर किए, तो इसमें साम्प्रादायिकता कहाँ से आ गई। क्या सिर्फ़ इसलिए की उदयभान राजपूत होने के बाद ऐसा नहीं कर पाया और तानाजी ने अपने धर्म का मान रखा! मतलब हद नहीं है मानसिक दिवालिएपन की!
इसके बाद हिंदू बनाम मुस्लिम करते हुए जब पत्रकार महोदय थक गए तो उन्होंने इसे केवल हिंदुओं का मसला नहीं बताया। बल्कि उन्हें तो इस फिल्म में ऊँची जाति वालों का वर्चस्व भी दिखने लगा। उन्होंने काजोल के एक डॉयलॉग पर अपना जहर उगलना शुरु किया। जहाँ काजोल ट्रेलर में कहती सुनी जा सकती हैं कि जब शिवाजी राजे की तलवार चलती है तब औरतों का घूँघट और ब्राहम्णों के जनेऊ सलामत रहते हैं।
हालाँकि, बौद्धिक स्तर पर पत्रकार महोदय का कितना विकास हुआ है ये कुछ ज्यादा पता नहीं, लेकिन ये साफ है कि ये डायलॉग उस समय ऊँची जाति वालों के वर्चस्व वाली स्थिति को दिखाने के लिए नहीं बोला गया। भारतीय संस्कृति में औरतों के घूँघट को इज्जत से जोड़ के देखा जाता है और ब्राह्मणों के जनेऊ को धर्म से। इसलिए जाहिर है यहाँ बात औरतों की इज्जत और सनातन धर्म की रक्षा के लिए हुई थी न कि ब्राहम्णों और पितृसत्ता के वर्चस्व के लिए। इसलिए हे पत्रकार महोदय! कृपया आँखें खोल कर सिनेमा देखें। और हाँ, प्रोपेगेंडा वाला चश्मा तो बिल्कुल ही उतार दें सिनेमा घर में।