सुबह हैदराबाद एनकाउंटर के बाद दोपहर में NDTV के पत्रकार रवीश कुमार के शाम वाले प्राइम टाइम की स्क्रिप्ट लीक हो गई, जिसकी एक कॉपी हमारे एक सुप्त सूत्र के हाथ लगी। हालाँकि, ऑपइंडिया इसकी सच्चाई की कोई जिम्मेदारी नहीं लेता। हम उस स्क्रिप्ट को ज्यों का त्यों आपके लिए रख रहे हैं।
नमस्कार, मैं रवीश कुमार!
याद आ रहे हैं वेद प्रकाश शर्मा जिन्होंने 1992 में ‘वर्दी वाला गुंडा’ नामक कालजयी उपन्यास लिखा था जिसकी 15 लाख प्रतियाँ पहले ही दिन बिक गई थी, और कुल 8 करोड़ प्रतियाँ आज तक बिकी हैं। मेरी किताब ‘इश्क में शहर होना’ की 8 हजार बिकी हैं। ख़ैर, अपने बारे में मैग्सेसे अवार्ड के बाद ज्यादा बोलना उचित नहीं समझता।
आज सुबह की खबर सुनी कि हैदराबाद में पशु चिकित्सक के बलात्कार और हत्या के मामले के चार आरोपितों को पुलिस ने आत्मरक्षा में मार गिराया। पुलिस इसे मुठभेड़ कह रही है। पुलिस का क्या है, वो चाहे तो इसे फिल्म की शूटिंग भी कह सकती है और इन चार लालों की माँओं को कह सकती है कि उनका बेटा जिंदा है और जेल में बंद है, बस मिलने नहीं दे सकते।
आप सोचिए उस माँ की हालत जिसके घर का एकमात्र कमाने वाला चला गया। आप सोचिए उस माँ की हालत जो पहले ही अपने बेटे पर लगे आरोपों के कारण परेशान थी कि उन्हें भारत की इस लम्बी न्यायिक प्रक्रिया से लड़ना है, अब वो किसके लिए वकील लाएगी? आप सोचिए क्विंट के उस रिपोर्टर की मानसिक स्थिति जिसे फिर से उसी माँ से पूछना पड़ेगा कि अपने घर के एकमात्र कमाने वाले हाथ का पुलिस के मुठभेड़ में, इस एक्स्ट्रा ज्यूडिशियल हत्या का किरदार बनने पर कैसा लग रहा है!
मैंने तो सोचा था कि आज मैं दर्शकों को महाराष्ट्र सरकार की एंटी करप्शन ब्यूरो द्वारा अजित पवार को बाइज़्ज़त क्लीन चिट देने के ऊपर बताऊँगा कि उन्हें किस तरह से फड़णवीस सरकार ने न सिर्फ फँसाया था बल्कि पाँच साल का नकली शासन भी किया, लेकिन सत्य परेशान हो सकता है, पराजित नहीं। उसी ब्यूरो ने उद्धव ठाकरे की सरकार आते ही क्लीन चिट दे दी, जो बताता है कि भाजपा अपने विरोधियों को हर हाल में जेल में डाल कर ही राज करना चाहती है।
लेकिन भाजपा वालों से यह देखा नहीं गया, और हैदराबाद की पुलिस ने मोदी और शाह के दवाब में आ कर किसी फिल्मी कहानी की तरह इन चार मासूमों को बिना किसी न्यायिक प्रक्रिया के मुँहअँधेरे में घेर कर गोली मार दी। अब आप कहेंगे कि रवीश जी, आप ये किस आधार पर कह रहे हैं कि मुठभेड़ झूठा है? आप यह भी पूछेंगे कि जिस तर्क से मैं बलात्कारियों को पूरी न्यायिक प्रक्रिया से गुजरने की बात कह रहा हूँ, वैसे ही पुलिस को भी जाँच करने का पूरा हक है, फिर उन्हें एक लाइन में झूठा क्यों कहा जा रहा है।
मेरा जवाब है कि मैं संघियों से बात नहीं करता। मैं उनके मुँह ही नहीं लगता। तुम सब आईटी सेल वाले हो जिसे मोदी ने मुझे घेरने के लिए भेजा है। मुझे ऐसे ही मैग्सेसे और लंकेश अवार्ड नहीं मिला है। मैंने बार-बार, अपनी सहूलियत के हिसाब से सवाल पूछे हैं, जिसमें मैंने जय शाह से ले कर शौर्य डोभाल और जस्टिस लोया की बातें की हैं। सवाल का जवाब जरूरी नहीं है, सवाल जरूरी है क्योंकि सवालों से ही लोकतंत्र चलता है। सुप्रीम कोर्ट की बात भी तभी तक मानी जाए, जब तक वो मेरे मतलब की है क्योंकि हर व्यक्ति के पास सोचने की क्षमता होती है, उसे किसी सुप्रीम कोर्ट या पुलिस के तर्कों की ज़रूरत नहीं होती।
ये मानवाधिकारों का हनन है जहाँ पुलिस ने इन मासूम बच्चों को एक झूठी कहानी सुना कर, फुसला कर घुप्प अँधेरे में ले जाती है, और वहाँ कहती है कि वो भागने की कोशिश कर रहे थे! आप बताइए कि अंधेरे में वो कैसे भागते भला? दोपहर में तो उन्हें रास्ता भी दिखता लेकिन मानसिक यातनाओं से परेशान ये बच्चे उस जगह पर से कैसे भागते, किस दिशा में भागते? क्या उनके पास कोई जीपीएस था जो उन्हें राह बताता? ये सब सवाल हैं जो एक लोकतंत्र में पूछा जाना चाहिए। और ये सवाल मोदी और शाह से पूछा जाना चाहिए।
आप कहेंगे कि पुलिस तो स्टेट सब्जेक्ट है! जी, है स्टेट सब्जेक्ट लेकिन ये मानसिकता कहाँ से आई है? पुलिस तो डभोलकर, पनसरे, कलबुर्गी, गौरी लंकेश और अखलाख मामले में भी गैरभाजपा की थी, लेकिन हमने फिर भी तय किया कि जहाँ सीधे तौर पर भाजपा या मोदी पर आरोप लगाना संभव न हो, हम ये तो कह ही सकते हैं कि अपराधी भाजपा की नीतियों से प्रेरित था! हम ये तो कह ही सकते हैं कि अखलाख को मारने वाले लोग वो थे जिन्होंने विधानसभा चुनावों में सपा को वोट दिया था, और लोकसभा में मोदी को… आखिर पत्रकार थोड़ी कल्पनाशीलता न दिखाए तो उसे मैग्सेसे तो छोड़िए शैम्पू का सेशै भी नहीं मिलेगा! बात करते हैं!
कोई मुझे ये बता दे कि विवाह की पार्टियों में व्यस्त तेलंगाना मुख्यमंत्री केसीआर जी के पास क्या इतना समय रहा होगा कि वो उस ‘डीजे… डीजे… प्रतापगढ़… छलकत हमरो जबनिया ऐ राजा’ इस वाले शोर में साइबराबाद पुलिस से बात भी कर पाए होंगे? फिर पुलिस का मुखिया किसको फोन करेगा? जी, केन्द्र के गृह मंत्रालय को। फिर बात क्या हुई होगी?
‘ऊपर’ आवाज आई होगी कि निपटा दो। और निपटाने की बात क्यों कही गई होगी? क्योंकि उसमें एक अल्पसंख्यक है जो कि हजार कारणों से उस दिन वहाँ हो सकता था! हमने विदेशी मामलों में कई बार देखा है कि आरोपित कभी-कभी मानसिक दवाब में, शारीरिक जरूरत के प्रभाव में, एक सेक्सुअली कुंठित समाज में अपनी इच्छा को पूर्ण होते न देख कर ऐसी गलतियाँ कर बैठता है।
मोहम्मद आरिफ और बाकी के तीन लोगों ने हो सकता है यही किया हो। जर्मनी में एक ऐसा मामला सामने आया था जहाँ एक बच्चे का बलात्कारी एक इराकी शरणार्थी था जिसे ‘सेक्सुअल इमरजेंसी’ लगी थी तो उसने बच्चे का रेप कर दिया। उसे डिपोर्ट भी नहीं किया गया क्योंकि वो डिप्रेशन में था। उसे मामूली सजा दी गई थी। जर्मनी गोरे लोगों का देश है, सभ्य लोगों का देश है, वहाँ बलात्कारी के हर मनोभाव की पूरी जाँच होती है, तब जा कर सजा दी जाती है। हम लोग कौन हैं? हम लोग वो हैं जहाँ के न्यायालय का न्यायाधीश संदिग्ध परिस्थितियों में मारा जाता है, और न्यायालय कहता है सब ठीक है।
हम यह नहीं देख पा रहे कि कोई अल्पसंख्यक समुदाय का बच्चा आखिर क्या सोच रहा होगा जब उसने ऐसा किया होगा। आप देखिए कि कथित तौर पर उसने पूरी योजना बनाई कि वो कब आती है, कब जाती है, किस वाहन का उपयोग करती है। इसका मतलब है कि उसे अगर सही विद्यालय में रखा जाता, उसे तर्कशास्त्र पढ़ाया जाता, उसे योजना बनाने वाली बातें पढ़ाई जातीं तो वो बेहतरीन छात्र हो सकता था।
लेकिन आरिफ, नवीन, केशव, शिवा सब गरीब थे। और आप गरीब हैं तो आपको शिक्षा कहाँ मिलेगी! आपके लिए जो एक जगह थी, जेएनयू, वहाँ भी महीने के तीन सौ रुपए लिए जाएँगे! यही है सत्य इस सभ्य समाज का, इस देश का जहाँ विक्रम लैंडर ठीक से लैंड नहीं करा पाते इसरो वाले और उन पर करोड़ों ऐसे फूंका जाता है जैसे फ्री का पैसा हो। क्या वो पैसा जेएनयू जैसे संस्थानों को दे कर ऐसे योजनाकारों को प्रोत्साहित करने के लिए नहीं दिया जा सकता था?
आप ये तो देखिए कि आरिफ ने बलात्कार कर के छोड़ा ही नहीं, उसे जलाया भी ताकि सबूत नष्ट हो जाए। इसका मतलब समझते हैं आप? इसका मतलब है कि उसका दिमाग सही तरीके से काम कर रहा था, वो सोच-समझ पा रहा था, उसमें काबिलियत थी कि उसे सही दिशा दी जाती, उसे जेएनयू जैसी जगहों पर रखा जाता तो मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि वो बहुत आगे जाता।
लेकिन मोदी, शाह और भाजपा ने जिस तरह की विषाक्त विचारधारा को लगातार हवा दी है, ऐसे भटके हुए नौजवान अंधेरे में मार दिए जाते हैं ताकि भविष्य में पुलिस के मुखिया को मोटा पद मिले। लेकिन, बात इतनी ही नहीं है, आप इन मानसिक रूप से विक्षिप्त प्रदेशवासियों को देखिए जो पुलिस की इस गुंडई पर उन्हें राखी बाँध रही हैं, फूल बरसा रही हैं, जिंदाबाद के नारे लगा रही हैं!
ये कैसा समाज है जो बलात्कार और हत्या के मासूम आरोपितों को मारने वाली गुंडा पुलिस पर पुष्पवर्षा कर रही है? हमारे मित्र शेखर गुप्ता, जो वरिष्ठ पत्रकार हैं, उन्होंने भी इसे माफिया-स्टाइल की हत्या कहा है। उन्होंने कहा है कि क्या आरोपितों को न्यायिक प्रक्रिया का लाभ मिला? उन्होंने पुलिस को आईसिस के बराबर रख कर पूछा है कि उनके कत्लेआम और इस हत्याकांड में क्या अंतर है?
अब कुछ आईटी सेल वाले, संघी ट्रोल, शेखर गुप्ता जैसे कद्दावर पत्रकार से यह सवाल पूछ रहे हैं कि उन्हें कैसे पता कि पुलिस मुठभेड़ सही नहीं है? कुछ लोग कह रहे हैं कि एक लोकतांत्रिक सरकार की अनुशासित पुलिस और आइसिस को बराबर मानना घटिया मानसिकता का परिचायक है। वो शेखर गुप्ता से पूछ रहे हैं कि उन्होंने जिस न्यायिक प्रक्रिया और जाँच का फायदा बलात्कारियों, मेरा मतलब है बलात्कार आरोपितों, को दिया है, वही ‘ड्यू प्रोसेस’ की बात पुलिस के लिए क्यों नहीं? वो कैसे जानते हैं कि पुलिस ने फ़र्ज़ी एनकाउंटर किया है?
ये सारे लोग संघी हैं। ये इसी तरह बड़े पत्रकारों को घेरते हैं, गाली-गलौज करते हैं सोशल मीडिया पर। इनके सवालों में कोई दम नहीं। शेखर गुप्ता ने इस देश को मिलिट्री तख्तापलट से बचाया है जब उन्होंने सेना द्वारा दिल्ली पर रातोंरात चढ़ाई की खबर को इंडियन एक्सप्रेस के मुखपृष्ठ पर छाप कर पूरा प्लान चौपट कर दिया था। शेखर गुप्ता हमारे पूजनीय होने चाहिए, मेरा वश चले तो अपने मैग्सेसे अवार्ड का थ्री-डी प्रिंट करवा कर उन्हें भेज दूँ, लेकिन आपको पता ही हिन्दी पत्रकार की इतनी औकात कहाँ कि वो अपने पैसे से फ़ोटोकॉपी भी करवा सके!
ये सारे लोग जो खुश हो रहे हैं, जो पुलिस पर वाहवाही की बौछार कर रहे हैं, एक बीमार मानसिकता के लोग हैं। मुझे तो आश्चर्य हो रहा है कि मेरी ही टीम के लगभग सारे लोग खुश हैं कि सही हुआ। लगता है मोदी और शाह ने कुँए में भाँग मिला दी है और सब नशे में झूम रहे हैं। मेरे सहयोगियों से मैंने पूछा कि वो क्यों खुश हैं तो वो कहने लगे कि अजित पवार को क्लीन चिट दे दी गई और वो खबर दब गई, इस बात पर खुश हैं। फिर मुझे विश्वास हुआ कि रवीश की टीम ने रवीश से दगाबाजी नहीं की है, वो अभी भी मेरे हैं, मेरे अपने…
आप देखिए कि कश्मीर से तेलंगाना तक मानवाधिकारों का हनन कैसे हो रहा है। पहले मुख्यमंत्री को विवाह का कार्ड दिया जाता है, फिर वहाँ भोजपुरी संगीत वाला डीजे बजाया जाता है, शोर मचाया जाता है, फिर पुलिस को ‘ऊपर’ से आदेश आता है कि हैदराबाद वाले कांड की त्वरित रिपोर्ट सौंपी जाए। पुलिस फोन मिलाती है, मुख्यमंत्री संगीत के शोर में फोन की घंटी सुन नहीं पाते। ‘ऊपर’ से दवाब बनता है, पुलिस आरोपितों को ले कर निकलती है, और बाकी क्या होता है, आपको पता ही है… इसलिए केसीआर पर बात करने की जरूरत ही नहीं है क्योंकि कोई भी विवेकशील व्यक्ति ये जानता है कि ऐसे कार्रवाई सिर्फ भाजपा वाले ही करा सकते हैं।
केसीआर को आपने देखा है? उन्हें देख कर लगता ही नहीं कि उन्होंने कभी फोन रखा होगा, फोन कौन रखते हैं ये आप भी जानते हैं…
माहौल बनाया जा रहा है कि पब्लिक खुश है। पब्लिक तो लगातार भाजपा को वोट भी दे रही है, मेरे लाख बार समझाने के बाद भी, पत्रकारिता के दायरे से बाहर जा कर पाँच साल तक की स्टूडियो से कैम्पेनिंग के बाद भी मोदी को पहले से ज्यादा मतों से सत्ता दे दी… पब्लिक तो ऐसी है भारत की, ये किस बात पर खुश होते हैं, किस पर नहीं, अगर इसी को आधार बना दिया जाता तो मैं इतने सालों से प्रोपेगेंडा, सॉरी प्राइम टाइम और फेसबुक पर तीन-तीन किलोमीटर लम्बे पोस्ट लिखता रहता क्या? मुझे तो ये लोग टीवी समेत फेंक देते, लेकिन मेरी बात मानते कहाँ हैं!
एक समाज के तौर पर हम कहाँ जा रहे हैं? क्या पुलवामा में सीआरपीएफ के दस्ते को आरडीएक्स से उड़ा देना गुनाह है! क्या बुरहान वनी के के जनाजे में जाना कोई गुनाह है? या गुनाह यह है कि अहमद डार का बचपन में किसी अफसर ने कान उमेठा? या गुनाह यह है कि किसी हेडमास्टर के बेटे को आतंकवादी बनने को मजबूर होना पड़ा? क्या गुनाह यह है कि हैदराबाद की पशु चिकित्सक का बलात्कार करने के बाद, उसकी लाश से भी बलात्कार किया जाता है, फिर उसे जला दिया जाता है, या फिर गुनाह यह है कि वो चारों मासूम बच्चे पैसों की कमी की वजह से जेएनयू तक पहुँच नहीं पाए और किसी के स्कूटी के टायर की हवा निकाल दी…
अल्पसंख्यक वर्ग में शिक्षा का प्रतिशत पता कीजिए, पता चलेगा कि हम एक समाज के तौर पर कितने बेकार हो चुके हैं। आपने कैसा समाज दिया है जहाँ ये चार मासूम आज अपने मानवाधिकार की लड़ाई लड़ने के लिए जिंदा नहीं बचे। आप याद कीजिएगा उन बड़ी ताकतों को जो पुलिस से ऐसे काम करवाती है। आप याद रखिएगा ऐसे समाज को जो इन हत्याओं का जश्न मना रही है। आप कहेंगे कि मैंने पीड़िता पर तो कुछ बोला ही नहीं। मेरा जवाब है कि वो तो काफी पहले चली गई, आज तो एक की जगह चार को मार दिया गया है। लोकतंत्र है, चार हत्याओं पर ज्यादा बात होनी चाहिए।
याद आ रहे हैं वेद प्रकाश शर्मा और याद आ रहा है निरहुआ दिनेश यादव जिसने ‘वर्दी वाला गुंडा’ लिखा, जिसने ‘वर्दी वाला गुंडा’ फिल्म बनाई। यही आज का सत्य है। मैं व्यथित हूँ।