फिलहाल जो कॉन्ग्रेस सहित तमाम तथाकथित सेकुलर जमात की आँखों का तारा बना हुआ है, वह कन्हैया उस वक्त 8-10 वर्षों का होगा, जब मैं जेएनयू पहुँचा था। सन 1997 का वह मॉनसून आँसुओं से भरा हुआ था। कॉमरेड चंद्रशेखर की हत्या को भले ही चार माह बीत चुके थे, पर जेएनयू की फिजाओं में उनकी ही चर्चा और आंदोलन की बातें तारी थीं। मैं आखिरी दिन एडमिशन लेनेवाला छात्र था, क्योंकि बिहार में लालू प्रसाद के जंगलराज में मेरे प्रोफेसर पिता को तनख्वाह मिलनी बंद हो चुकी थी। हम बाढ़ को चीरते हुए जेएनयू पहुंचे थे।
जेएनयू में पहला ही दिन सांस्कृतिक आलोड़न और चौंकानेवाला था, जब रैगिंग की जगह सीनियर्स ने पूरा सहयोग दिया, पहली क्लास में टीचर ने सिगरेट पेश की, तो सोचिए दरभंगा से सीधा दिल्ली के मिंटो रोड से होते हुए जेएनयू पहुंचने वाले मुझ बंदे की क्या हालत हुई होगी? बहरहाल, विषय यहाँ वह नहीं है। अगस्त में भी चंद्रशेखर की हत्या और आंदोलन पर कैंपस उबल रहा था। और, मजे़ की बात देखिए। उस वक्त तथाकथित सेकुलरों और प्रगतिशीलों की सरकार थी।
चंद्रशेखर की शहादत के बाद जब जेएनयू के विद्यार्थी आइटीओ से लेकर बिहार भवन और रेसकोर्स रोड तक जाम कर रहे थे, तो सबसे अधिक पिटाई विद्यार्थी परिषद वालों की हुई थी। पूरे आंदोलन को अचानक SFI ने विथड्रॉ किया था क्योंकि केंद्र में संयुक्त मोर्चा की लंगड़ी सरकार थी, जिसमें वामपंथी भी शामिल थे। एक फोन हुआ येचुरी का और जेएनयू में एसएफआइ ने आंदोलन से खुद को अलग कर लिया था।
बिहार भवन पर लालू के साले साधु यादव का सामना करना हो, या आइटीओ पर सड़क जाम करना, विद्यार्थी परिषद के लोग पूरी ताकत से जमे रहे, सबसे अधिक घायल भी हुए। वामपंथियों की धोखेबाज़ी, द्रोह और मक्कारी कोई नई बात नहीं है। मैं इनको वैसे ही ‘व्यभिचारी-वामपंथी’ नहीं कहता। खुद चंदू को जब इन्होंने बेच दिया, उनकी माँ को धोखा दिया, तो मेरे जैसों के लिए नजीब हों या रोहित, इनके नाटक और नौटंकी से कोई अपरिचित नहीं। दुनिया में शायद किसी का भी यकीन कर लिया जाए, लेकिन किसी कम्युनिस्ट पर कभी नहीं।
कन्हैया कुमार भी इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए झूठे ही हैं। उन्होंने तो खैर, अपने पिता की ही कद्र नहीं की, तो लालू प्रसाद के पैरों में झुकने पर कोई आश्चर्य भी नहीं होना चाहिए। फिलहाल देश के तमाम छद्म प्रगतिशीलों, सेकुलरों, बुद्धिजीवियों आदि-इत्यादि के अनुसार कन्हैया कुमार के दो सबसे बड़े कारनामे हैं:
1. उसने देशद्रोह का काम नहीं किया है, नारे नहीं लगाए हैं।
2. उसने सीधे देश की सत्ता को (इसे मोदी पढ़ें) चुनौती दी है।
ये दोनों ही बातें सिरे से गलत और अहमकाना है, जिसे मैं साबित करूँगा, लेकिन पहले कुछ और बातें जाने लीजिए। मैं जेएनयू की खदान का ही उत्पाद हूँ, इसलिए मुझे न बताया जाए कि वहाँ के कम्युनिस्ट किस हद तक देशद्रोही, उत्पाती और ख़तरनाक हैं? कन्हैया तो कुछ भी नहीं, लेकिन इसके बौद्धिक पितृ-पुरुषों और माताओं से मैं उलझा हूँ, उनकी सोच किस हद तक भारत और हिंदू-विरोधी है, यह मुझे बेहतर पता है।
यह वही कैंपस है, जहां महिषासुर की जयंती मनाई जाने की कोशिश होती है, जहाँ का छात्रसंघ किसी जमाने में बाकायदा प्रस्ताव (रेजोल्यूशन) पारित करता था कि पूरा ‘उत्तर-पूर्व’ भारत के जुल्मो-सितम का शिकार है और उसे अलग होना चाहिए। यह वही जेएनयू है, जहां सीपीआई (माओवादी) की छात्र-शाखा कार्यरत है, यह वही जेएनयू है, जहाँ अफजल गुरु से लेकर गिलानी तक के लिए आँसूपछाड़ कार्यक्रम होते हैं, जहां सीआरपीएफ के जवानों के बलिदान पर हँसी-ठट्ठा होता है, जहां भारत-पाक मुशायरे में भारतीय सेना के उन जवानों के साथ मारपीट होती है, जो तुरंत कारगिल से लौटे होते हैं। ये है वहाँ के कम्युनिस्टों की करतूतें। यह सूची अंतहीन है।
अब, कन्हैया कुमार के बारे में प्रगतिशीलों के भ्रामक प्रचार नंबर एक पर कुछ तथ्य जानिए। उस दिन करीबन 20 कश्मीरी जिहादियों के साथ ही एएमयू और जामिया के लड़कों को भी जमा किया गया था। उन लोगों ने ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ के नारे भी लगाए। जब परिषद के लोगों ने विरोध किया, तो झूमाझटकी हुई, कन्हैया कुमार वहाँ पहुँचा और छात्रसंघ अध्यक्ष होने के बावजूद उसने इसे रोकना तो दूर, उनके साथ मिलकर नारे भी लगाए। यह एक तथ्य है और यह किसी शबाना, अख्तर या भास्कर के चिल्लाने से बदल नहीं जाएगा।
भ्रामक प्रचार नंबर दो पर ज़रा बात कीजिए। उस वक्त को याद कीजिए। कन्हैया कुमार को जिस तरह प्रोजेक्ट किया गया, उसे याद करने की कोशिश कीजिए। कांड के तुरंत बाद डी राजा, केजरीवाल से लेकर राहुल गांधी तक के जेएनयू-भ्रमण और भड़काऊ नारे को याद कीजिए। उस वक्त कांग्रेस के एक बड़े नेता ने लगातार कन्हैया को ग्रूम किया, इतना ही नहीं एक नेताजी ने तो उसके अकाउंट में पैसे भी भेजे। लक्ष्य एक ही था, मोदी के खिलाफ जो भी, जहाँ से भी मिले, उसे ले लो। कांग्रेस और कम्युनिस्ट तो वैसे भी एक सिक्के के दो पहलू हैं ही।
— व्यालोक पाठक
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