Friday, November 15, 2024
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व्यंग्य: पिज़्ज़ा, डीजे, मसाजर, काम क्या-क्या है, अन्नदाता आ गया है, इंतजाम क्या-क्या है

जैसे 'इश्क में शहर होना' होता है, वैसे ही दिल्ली 'आंदोलन में शहर होना' जैसी बात है। अन्नदाता आंदोलन शहर एक टाउनशिप टाइप की आत्मनिर्भर व्यवस्था है। इसमें निकम्मे और नकारे लोगों की एक भीड़ को सड़क पर होने का एक जस्टिफिकेशन दिया जाता है।

अन्नदाता आंदोलन कई मायनों में एक अभिनव प्रयोग है। भारतभूमि तो अनादिकाल से अनूठे प्रयोगों को लिए विश्वगुरु की उपाधि प्राप्त कर चुका है, तो ऐसे में शाहीन बाग के पुष्पों के प्रस्फुटित होने के बाद, माओनंदनों की नई योजना किसान आंदोलन के रूप में आया ही चाहती थी। छात्र तो मैं अंग्रेजी साहित्य और पत्रकारिता का ही रहा हूँ, लेकिन इफैक्ट डालने के लिए यह कह देता हूँ कि ‘आंदोलन शास्त्र’ का एक गंभीर विद्यार्थी होने के नाते, मेरे लिए अन्नदाता आंदोलन वैश्विक पटल पर अपनी गहरी छाप छोड़ने वाला है।

भारत में किसानों ने कई रूप धरे हैं। खास कर मोदी सरकार के आने के बाद तथाकथित किसानों की प्रतिभा में अनायास ही वृद्धि होती रही है। उन्होंने देश को दिखाया है कि किसान चाहे तो कुछ भी हो सकता है। तमिलनाडु से आए किसानों को याद करें तो पता चलेगा कि कालांतर में समुद्रतट पर यो-यो करने वाला व्यक्ति, जंतर-मंतर पर खोपड़ी ले कर मरे चूहे भी खा सकता है, अगर उसे बारह वर्गमीटर की परिमिति में लाल माइक लिए हुए पत्रकारिता के मसीहा कहीं दिख गए।

मसीहा जी का तो ऐसा है कि किसान आंदोलन हो या फिर शाहीन बाग, टेंट-शामियाना में बैठे कुर्ता-सलवार वाले स्वयं को भीष्म और इस पौंड्रक को वासुदेव समझते हैं। फिर गीता न सही, ‘शामियाना के चोंप देबौ ढोढ़िए में घोंप’ नामक गीत पर नाच होता रहता है।

ये किसान आंदोलन भी हमारे किसानों के नए रूप सामने ले कर आ रहा है, जिसके लिए समस्त भारत इनका आभार प्रकट करता है। हमने इस आंदोलन में भी पाया कि किसान विद्युत अभियंता भी हो सकता है जो टावरों की बिजली काटता रहता है। एक और आयाम हमें यह भी दिखा कि किसान जेनरेटर चोर भी हो सकता है। लेकिन यह चोर और चोरों की तरह नहीं है, बल्कि चोरी का माल यह किसान गुरुद्वारे में दान कर देता है।

मैंने जानने की कोशिश की तो सॉल्ट न्यूज के संस्थापक, एवम् नासा से ताम्रपत्र पाए प्रतीक ने बताया, “जिसे दुनिया टावर का तार काटने वाला बता रही है, वो वस्तुतः भारत का टावर है ही नहीं। वो तो आइफिल टावर है जो आपको अलग एंगल से देखने पर पूरा दिखेगा। जो लोग तार काट रहे हैं वो भारतीय नहीं हैं। उन लोगों की आँखों पर ज़ूम करने से सच्चाई दिखती है कि वो कुछ संघी भजपैइए हैं जिसे मोदी ने ट्रक में बिठा कर पेरिस भेज दिया था।”

आगे उन्हीं के मित्र और पंचर विज्ञान के अग्रणी जुब्बू रंगरसिया ने कहा, “साथ ही, वीडियो को आप देखेंगे तो पाएँगे कि यह वीडियो जान-बूझ कर क्लोजअप में शूट की गई है ताकि यह पता न चले कि जगह कौन सी है। सर पर पगड़ी रखवा कर, भाजपा के लोगों ने पेरिस में आइफिल टावर के नीचे कटे हुए तार पकड़ा दिए हैं और वो वायरल करा दिया गया। वो जानते थे कि प्रतीक भाई उनकी करतूत भारत में होने से पहले ही पकड़ लेंगे, अतः उन्होंने राफेल देने वाले राष्ट्र को चुना।”

अन्नदाता आंदोलन ‘आत्मनिर्भर भारत’ का एक उदाहरण है

हमने यह भी देखा कि इस अनुपम प्रयोग में सिर्फ टेंट-शामियाना ही नहीं देखा। इसमें गरीब दिखने वाले लोग थे, इसमें परेशान दिखने वाले लोग थे, इसमें खून की प्यासी चाचियाँ थीं, ठोक देने वाले खालिस्तानी अंकल थे, मर्सीडीज वाले भैया थे, सिनेमा का प्रोजेक्टर था, थिन क्रस्ट पिज़्ज़ा था, गाने-बजाने वाले लोग थे, अख़बार था, समाचार था, गैस से चलने वाले गीजर थे… मतलब, आप सोचिए कि वहाँ क्या था, और वो वहाँ था।

आप सोचिए कि पाँच हजार लोग अपना घर-बार छोड़ कर कहीं से चलते हैं, ‘मुसाफिर हूँ यारों, न घर है, न ठिकाना’ गाते हुए पहुँचते हैं और अगली लाइन सुनने से पहले दिल्ली पुलिस उन्हें रोक देती है। दिल्ली पुलिस ने ही सबसे ज्यादा समस्या पैदा की है। किसान भाई तो बंगाल की खाड़ी की तरफ जा रहे थे क्योंकि अगली लाइन के हिसाब से ‘मुझे चलते जाना है, बस चलते जाना’।

आप ही सोचिए कि जो किसान पंजाब से चार महीने का राशन ले कर चला होगा, वो क्या सोच कर चला होगा? आपको लगता है कि घर छोड़ कर कोई किसी यात्रा पर निकलता है तो सड़क पर बैठ कर चाय बनाने के लिए निकलता है? या फिर राशन इस हिसाब से लेता है कि सफर भर राशन चलता रहे।

मुझ पर विश्वास नहीं है तो ध्रुव टट्टी के गणित और ग्राफ पर विश्वास करेंगे या नहीं? गूगल मैप कहता है कि आदमी लगातार पैदल चलता रहे तो वो चौदह दिन और छः घंटे में पहुँच जाएगा। इस हिसाब से लोग लगातार चलते ही रहेंगे। लेकिन श्री ध्रुव राठी जी के गणित से चलें और दिन के छः घंटे ही चलें, तो लगभग 56 दिन लगेंगे। मतलब, दो महीने। बंगाल की खाड़ी जाने और वापस आने का मिला लें तो लगभग चार महीने हो ही जाते हैं।

अब दिल्ली पुलिस ने स्वयं ही आसमानी डर के चलते बैरिकेड लगा दिए और रोक दिया उन्हें। इसी में दिलजीत भाई गाने की अगली लाइन गा रहे थे तो उन्हें कंगना ने रंग-बिरंगी बातें कह कर चुप करा दिया। फिर किसान आखिर करते क्या? किसानों ने सोचा कि मोदी जी का इतना साथ दिया है, तो ‘आत्मनिर्भर भारत’ योजना में भी साथ दे दूँ।

इसी कारण कहीं से टेंट आया, कहीं से कालीनें आईं और तैयारी शुरु हो गई। मुझे, आंदोलनों का एक छात्र होने के बाद भी, नहीं लगा कि यहाँ कुछ प्रदर्शन टाइप का होगा। मुझे लगा कि टेंट लग गया है शरजील इमाम टाइप कोई प्रवचन देने वाला पीएचडी आएगा और कहेगा कि भैया, असम को काट नहीं सकते क्या? ऐसे में वामपंथियों ने यहाँ पर घुसपैठ कर ली और लोगों को बताने लगे कि अब बैठ ही गए हो तो पाँच महीने पुराने बिल पर आंदोलन ही कर लो।

वामपंथियों ने उकसाया और कहा: अब आ गए हो तो आंदोलन ही कर लो

फिर तय हुआ कि आंदोलन कृषि बिलों के ऊपर होगा। लोगों ने कहा कि उन्होंने तो बिल पढ़ा ही नहीं है। वामपंथियों ने समझाया कि पढ़ा तो उन्होंने भी नहीं है लेकिन आंदोलन का पढ़ाई-लिखाई से क्या लेना-देना। पौंड्रक भी वहीं पर था, उसने कहा, “देखिए, एक लोकतंत्र में आंदोलन होते रहने चाहिए, इससे लोकतंत्र मजबूत होता है।”

अपने सफर के बीच में रोक लिए गए यात्रियों ने सवाल उठाया कि कृषि बिलों में तो ऐसा कुछ है ही नहीं जो विरोध किया जाए। पौंड्रक कुमार ने कहा, “था तो नागरिकता वाले में भी नहीं, लेकिन हमने सौ दिन चलाया कि नहीं उसे? वो किसके लिए था? आपको लगता है कि मेरी पत्रकारिता चमक गई उससे? जहाँ जाता हूँ गाली सुनता हूँ। फिर भी राष्ट्रहित में मैंने उस आंदोलन को हवा दी। मैं जानता हूँ कि वहाँ शरजील, सफूरा, खालिद, ताहिर सब क्या कर रहे थे, लेकिन भीतर से घनघोर राष्ट्रवादी होने के कारण, मैंने लोकतंत्र में विरोध के स्वर को जीवित रखा।”

“लोकतंत्र में और है क्या? विरोध से ही लोकतंत्र चलता है, यहाँ विरोध है ही नहीं। ये आदमी हर काम सही करता जा रहा है, सारी योजनाएँ गरीबों के लिए बना रहा है, अल्पसंख्यकों के जीवन में आमूलचूल परिवर्तन ला रहा है, और चुनाव भी जीत रहा है। अतः, विरोध की सारी संभावनाएँ खत्म हो रही थीं। फिर मेरे सपने में एक दिन निर्भय दूबे और गुलाम मुस्तफा आए। उन्होंने कहा कि मेरे ही हाथों में भारत का भविष्य है। तब मैंने तय किया कि लोग मुझे गालियाँ दें, वो ठीक है लेकिन अपने कुकर्मों से मैं मोदी को जिताता रहूँगा क्योंकि लोग मुझे सारे वामपंथियों का प्रणेता मान कर गुस्से में वोट करेंगे।”

तब जा कर यात्री लोग माने। एक ने कहा कि कम से कम कानून में जो है वो तो बता दिया जाए। लेकिन किसी ने सुना ही नहीं। वामपंथियों की पूरी टीम फिर आंदोलन को आंदोलन जैसा बनाने में लग गई। उनके साथ समस्या यह है कि उनके अपने काडर अब बचे नहीं, संघी लोग अपना काडर कई बार मोदी को भी नहीं देते प्रचार के लिए, तो वहाँ से मिलने की संभावना है नहीं, इसलिए वो थ्योरी तो बहुत जानते हैं, लेकिन प्रैक्टिकल की कूट वाली कॉपी के लिए पैसा नहीं है।

ऐसे में वो भीड़ ढूँढते हैं, और उसमें आंदोलन कराते हैं। आप देखिए कि शाहीन बाग तो गैर-भारतीय मुस्लिमों के लिए भारतीय मुस्लिमों का आंदोलन था, उसमें हिन्दू क्या करने गए थे? वहाँ बिंद्रा बिरयानी और लंगर क्यों चला रहा था? वहाँ पोस्टर बनाने वाले कहाँ से आ गए? ये तो आंदोलनों के नव-अवयव हैं। समय बदलने के साथ-साथ आंदोलनों की प्रकृति भी बदली है।

ऐसे में वामपंथी तो बदल गए हैं लेकिन आंदोलन के लिए डफली पीट कर भीड़ जुटाने वाले झोलाछाप वामपंथी-वामपंथनों को लोग पैसा तो दे देते हैं, ध्यान नहीं देते। जियो के दौर में लोग सेक्स और रोमांच से भरपूर वैसे वेब सीरीज देख रहे हैं जो यूपी के बाहर का कोई व्यक्ति देख ले तो उस राज्य में बेटी न ब्याहे क्योंकि हर सीरीज में घर की बहू ससुर के साथ आलिंगन में पाई जाती है, और आदमी दिन भर गाली बकता है, गोली चलाता है।

ऐसे में डेढ़-दो सौ सालों के अनुभव और समय के साथ बदलने की प्रवृत्ति के कारण वामपंथी थिंकटैंक तो इवॉल्व होता गया, लेकिन उसे क्रियान्वित करने वाले कम होते चले गए। बाद बाकी कसर मोदी ने सैकड़ों NGO को बेद करवा कर पूरी कर दी। यही कारण है कि अब आंदोलन व्यवस्थित तरीके से होने लगे हैं। पहले आंदोलनों की तस्वीर में आपको लोगों की विवशता और सरकार के लिए गुस्सा दिखता था, ये चार दिन चलता था।

अब के आंदोलनों में आपको लोगों की बेहतर जीवनशैली दिखेगी, सरकार के लिए गुस्सा दिखाने का काम पौंड्रक कुमार जैसे लोग करने लगे। अब यहाँ आपको फुट मसाजर दिखेगा, सिनेमा देखने के लिए प्रोजक्टर दिखेगा, पिज़्ज़ा दिखेगा, वाई-फाई की व्यवस्था दिखेगी, गर्म पानी के लिए गीज़र दिखेगा और अपने प्रोपेगेंडा के लिए अपना अखबार और यूट्यूब चैनल दिखेगा।

भीड़ बनी किसानों की भीड़, आंदोलन होने लगा तैयार

आंदोलन पहले स्वतःस्फूर्त हुआ करते थे। यानी लोगों को कुछ सही नहीं लगा, इकट्ठा हुए और नारेबाजी हो गई, ज्ञापन दे दिया, मीडिया में कवरेज हो गई चले आए। अब आंदोलन योजना के साथ होते हैं, और वही होना भी चाहिए। एमबीए के दौर में इवेंट मैनेजमेंट एक विषय बन चुका है, और आंदोलन में ग्लैमर की कमी हमेशा रही। अगर आंदोलन आदि व्यवस्थित तरीके से नहीं होंगे, तो इस विषय को शादी की प्रीवेडिंग फोटोशूट और ‘राते दीया बुता के पीया क्या-क्या किया’ वाले नाच तक में ही समेट दिया जाएगा।

पब्लिसिटी के लिए तो पीआर वालों का मूलमंत्र है ही कि ‘एनी पब्लिसिटी इज़ गुड पब्लिसिटी’, तो भले ही वहाँ सिंघु बॉर्डर पर हर दिन पिज़्ज़ा न मिल रहा हो, लेकिन ये तस्वीर लीक की जाती है कि देखो क्या चल रहा है। इसी कारण तो ‘हाय-हाय मोदी मर जा तू’ वाले गीत गवाए गए। और, पूरे आंदोलन को एक विस्फोटक कवरेज मिले, इसके लिए ‘इंदिरा को ठोका था, मोदी को भी ठोक देंगे’ वाली बात कही गई। नहीं तो आपको लगता है कि अपने कौमार्य वाले दौर के नाम को लिए जाने पर जो महिला एक एंकर को उठवा सकती है, वो इंदिरा को ठोकने की बात पर अपने गुंडे नहीं भेजेगी?

आंदोलन होना है तो बड़बोले लोग चाहिए जो माइक देखते ही फुल नेटवर्क में आ जाएँ और ऐसा टॉकटाइम करें कि सारा रिचार्ज खत्म हो जाए। इसके लिए वामपंथियों को खालिस्तानियों से बेहतर कौन मिलता। उधर खालिस्तानियों को पब्लिसिटी की दरकार थी, इधर वामपंथियों की हथेली में खुजली हो रही थी, काम बन गया। सूक्तियों में भी उद्धृत है कि ‘अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम्, परोपकारः पुण्याय पापाय परपीड़णम्’।

आंदोलन को खड़ा करने के लिए पूरा फ्लो-चार्ट और सिचुएशन-रिएक्शन अनालिसिस होती है। जरूरतों को खड़ा किया गया, फिर उसे पूरा किया गया। फिर जब लोगों ने गरियाना शुरु किया तो ये कहा जाने लगा कि आंदोलन का मतलब ये नहीं होता कि आदमी परेशान हो कर रहे। सही बात है कि जब भारत डिजिटल इंडिया हो गया, तो आंदोलन थोड़ा आधुनिक हो जाए तो क्या समस्या है!

दुनिया बदल रही है, मौसम बदल रहा है तो ऐसे में वामपंथियों के आंदोलन कैसे पुराने रहेंगे? ये लोग अब अमेरिका के चुनाव तक को पलट दे रहे हैं, और आपको लगता है कि वहीं ‘हँसिया-बाली’ वाले गीत गाते रहें और झंडा ले कर मार्च करें? नहीं, एक आंदोलन शहर बसाया जाएगा।

आंदोलन शहर क्या है?

जैसे ‘इश्क में शहर होना’ होता है, वैसे ही दिल्ली ‘आंदोलन में शहर होना’ जैसी बात है। आंदोलन शहर एक टाउनशिप टाइप की आत्मनिर्भर व्यवस्था है। इसमें निकम्मे और नकारे लोगों की एक भीड़ को सड़क पर होने का एक जस्टिफिकेशन दिया जाता है। उनसे ऐसी बातें रखने को कही जाती हैं, जो वो भी जानते हैं कि नहीं मानी जाएगी। यही सही तरीका भी है कि अगर बात मान ही ली जाएगी तो फिर ये चार महीने के राशन का क्या करेंगे? वापस जाने पर बेइज्जती होगी कि नहीं?

जिन लोगों ने बिल पढ़ा ही नहीं है वो पहली डिमांड तो यही रखेंगे ही कि कानून वापस ले लो। पढ़ लेते तो कहते कि ये वाली बात सही नहीं है, नहीं पढ़े हैं तो कह रहे हैं सारे कानून ही वापस ले लो। वामपंथियों का भी दुख आपको समझना पड़ेगा कि आनन-फानन में क्रैश कोर्स भी तो नहीं दे पाते हैं। इन्होंने दो प्रयोजित आंदोलन ऐसे ही निकाल दिए जिसमें लोगों का कानून ही नहीं पता था।

एक भजन है ‘मेरा आपकी कृपा से सब काम हो रहा है’, आंदोलनकारियों के लिए भी यही गाना सूट करता है कि ‘मेरा आपकी कृपा से सब काम हो रहा है, पीछे हैं वामपंथी, मेरा नाम हो रहा है’। अब इन किसानों का भी सोचिए कि रोक लिए गए, वरना पैदल चलते रहते बंगाल की खाड़ी पहुँचने तक पैर में कितना दर्द कर जाता। अब है कि सड़क पर चलना भी नहीं है, और फुट मसाज भी मिल जा रहा है। इसी को पहले ज़ी सिनेमा पर ‘डबल मज़ा’ कह के भुनाया जाता था।

आंदोलन शहर के निवासी

आंदोलन शहर है, तो निवासी भी उसी तरीके के होने चाहिए। आंटियों की तो बात मैंने कह ही दी जो पार्कों में ‘अरे बेटा शादी कब करोगे’ से शुरु करती हैं, और ‘तीसरा बच्चा भी कर ही लो… खेलने में बाकी दोनों का मन लगा रहेगा’ पर समापन करती है। और अगर आपने ये सारे महत्वपूर्ण समाजोपयोगी उत्पादक कार्य कर लिए हैं, तो आप चुगली हेतु या ‘काली कमली वाला मेरा यार है, मेरे मन का मोहन तो दिलदार है’ टाइप के स्वरचित गीत पर ढोलक और चम्मच बजाती हुई किसी ‘पारक’ में मिल ही जाएँगी। यहाँ भी, भजन की जगह ढोलक पर ‘हाय-हाय मोदी मर जा तू’ का रैप बजा ही दिया गया। इसमें आँटियों का क्या दोष, आंटित्व के गुणों को लिखते हुए शुकदेव जी महाराज ने यही सारी बातें तो शास्त्रों में लिखी थीं। ये बात और है कि गरुड़ पुराण में चुगलखोर लोगों के लिए सजा का भी प्रावधान किया गया है।

दूसरे टाइप के निवासी वो हैं जिन्हें मैथिली में ‘बनचुहार’ कहा गया है। ‘बनचुहार’ शब्द ‘वन’ और ‘चुहार’ के संगम से बना है। ‘चुहार’ शब्द मैथिली में ‘चोर’ का सहचर है जैसे कि ‘ऊ सब त चोर-चुहार छै’। इसी टाइप के लोग अडानी-अम्बानी को गरियाते हुए जेनरेटर चुरा रहे थे, और मुर्खतावश ‘जियो’ के टावरों का तार काट रहे थे, जो कि अम्बानी ने कुछ समय पहले किसी और कनेडियन कम्पनी ब्रूकफील्ड को बेच दिया था। यहाँ पर यह भी कहा जा सकता है कि अम्बानी को पहले से पता था कि आंदोलन होगा और उसने पैसे बचा लिए क्योंकि मोदी आधा अम्बानी की जेब में, आधा अडानी की जेब में रहता है! है कि नहीं!

तीसरे टाइप के वो लोग हैं जो ‘आपदा में अवसर’ खोजने वाले हैं। ‘अन्नदाता’ जैसे शब्दों के बेजोड़ प्रयोग से जनता को गिल्ट ट्रिप पर ले जाने वाले नवयुवकों ने, कॉलेज में फर्जी डीएसएलआर लटकाने वालों को काम दिया और उभरते स्कोडा-लहसुन फोटोग्राफी फेसबुक पेज वालों को कहा कि फिल्ममेकर बनने की इंटर्नशिप दी जाएगी। काम था कि किसानों पर वीडियो बनाओ, यूट्यूब का चैनल खुलेगा। चार-पाँच दिन में यूट्यूब चैनल के दस लाख सब्सक्राइबर हो गए, बिजनेस झमाझम चल रहा है।

चौथे टाइप के वो लोग हैं जो गरीब जैसे दिखते हैं, जिनके चेहरे पर हमेशा परेशानी की आड़ी-तिरछी रेखाएँ होती हैं। ऐसे लोगों को वामपंथी डीप फोकस मोड, दुपहरी में भी अपर्चर साइज कम कर के, अँधेरे, गमगीन माहौल में रोने-गाने और उदासी भरे बयान देने के लिए तैयार रखते हैं। ये लोग आपको किसी भी टाइम ‘अरे यार, अन्नदाता का यह हाल है, शर्म आनी चाहिए हमें अपने आप पर’ वाले मोड में भेज देंगे।

पाँचवें टाइप के लोग वो हैं जिन्होंने नाम में क्रांतिकारी लगवा लिया है और खाँसते-छींकते स्वयं को भगत सिंह बताते फिरते हैं। ये लोग भावुक लोग हैं जिन्होंने भगत सिंह को पढ़ने का दावा वैसे ही किया होता है जैसे वामपंथी करते हैं। ये लोग भगत सिंह को उन टुटपुँजिया नक्सलियों के समकक्ष रख देते हैं जो अपने ही देश के गरीब सिपाहियों का नरसंहार करते हैं। ये वैसे ही करते हैं जैसे भगत सिंह को सारा ज्ञान इन्होंने ही दिया था, और आज की तारीख में वो उन्हें भारत के नीच वामपंथियों की तरह अपना बताते फिरते हैं।

छठे टाइप के लोग वे हैं जिन्होंने लोगों से ज्यादा संगठन बना रखे हैं। ये लोग मेन लोग हैं। इनका काम है कि पगड़ी का रंग फीका न पड़े और माइक देखते हैं, ‘आप कैसे हैं’ पूछने पर अपनी पत्नी को भी कह दें कि ‘तीनों बिल वापस लेने ही होंगे, उससे पहले बात नहीं होगी’। ये लोग हमेशा ‘काला कानून वापस लो’ मोड में रहते हैं। हर बातचीत में ये जाते हैं और काले कानून को वापस ले कर आ जाते हैं टेंट में। इनसे भी पूछेंगे कि काला कानून क्या है, तो वो बोलेंगे ‘काला है जी, वापस होना चाहिए।’ (पगड़ी से तात्पर्य किसी भी तरह के ‘सर के पहनावे’ से है, सिख समुदाय को अपमानित करना हमारा उद्देश्य नहीं है।)

सातवें टाइप के लोग वो हैं जो वामपंथियों द्वारा भी नकार दिए गए हैं, और अपनी मार्केटिंग करने किसी भी आंदोलन में पहुँच जाते हैं। ये बहुवचन तो छोड़िए, द्विवचन में भी नहीं आते लेकिन स्वयं को अमीता बच्चन से कम नहीं मानते। इसका नाम है योगेन्द्र यादव। ये व्यक्ति इच्छाधारी आंदोलनकारी है। ये संविधान के भी ज्ञाता हैं, किसान तो देखने से ही लगते हैं, शिक्षा तो इनके बायें हाथ की कानी उँगली का खेल है, पेट्रोल का दाम ओपेक इनसे फोन कर के ही घटाता या बढ़ाता है, रिसेशन तो लीमैन बंधुओं द्वारा अर्थशास्त्री यादव जी की बात न मानने के कारण विश्व को झेलना पड़ा। ‘अतिविनम्रता धूर्ताः लक्षणम्’ की तर्ज पर इच्छाधारी आंदोलनकर्मी योगेन्द्र भाई एम्पिलिफायर वालों के कई स्पीकर फुड़वा चुके हैं। क्योंकि इनके बाद जो भी बोलता है, आवाज इतनी ज्यादा रहती है कि स्पीकर फट ही जाता है।

आठवें टाइप के लोग हैं जो क्राउड को मैनेज कर रहे हैं। वो बताते हैं कि किस जिले से कितने ट्रैक्टर चले हैं और फिर मीडिया बताती है कि अब मोदी सरकार की चूलें हिल जाने वाली है। हिलती तो खैर कुछ भी नहीं है। ये लोग डिजिटल मीडिया पर छोटे वीडियो और गीत-संगीत शेयर कर के आंदोलन को बाइनरी जीवन दिए रहते हैं। ये लोग मूलतः खलिहर लौंडे हैं जो ‘अरे चल ना यार, अडवेंचर हो जाएगा’ के चक्कर में पड़ रहते हैं।

इसी आठवें का एक वैरिएशन उन लोगों का है जो मुफ्त का भोजन करने आए हैं। इन्हीं में से किसी के बारे में आप कुछ दिन बाद यह हेडलाइन पढ़ेंगे: “किसान आंदोलन के बीच खिला प्रेम पुष्प, कुलदीप ने किया धैर्यकांत से विवाह!” फिर कोई फॉलोअप के लिए ‘यूनीक आइडिया’ ढूँढता पत्रकार नौ महीने बाद एक नई हेडलाइन देगा: नौ महीने बाद भी केडी-डीके को नहीं मिला संतान सुख, कोशिश जारी है’।

दसवें तरह के लोग वो हैं जिनको लगने लगा है कि ये जीवनशैली सबसे सही है। खाना मिल रहा है, टीवी पर चर्चा हो रही है और काम कुछ नहीं करना है। ये लोग कैमरे में भीड़ की शक्ल में खड़े रहते हैं। यही वो होते हैं जो गंभीर मुद्दे पर ‘चौथे टाइप’ के गरीब लोगों के बयान देते वक्त आपस में मीम शेयर करते हुए दाँत निपोड़े पाए जाते हैं। ही वो लोग हैं जिन्हें टीवी पर आने का शौक तो होता है लेकिन पता नहीं होता कि माहौल क्या है। उनसे सवाल पूछोगे तो कह देंगे कि ‘इतने लोग आए हैं, कुछ तो बात होगी, हम इनके साथ खड़े हैं।’ यही लोग गैर-वामपंथी पोर्टलों और यूट्यूबर्स के बीच अतिलोकप्रिय होते हैं।

लोग तो खैर और भी तरह के होते हैं, लेकिन इतनी विविधता के बाद बताने की आवश्यकता नहीं है।

न्यू ईयर में क्या होगा?

अभी ही भूतपूर्व जानेमन ने लेख के बीच फोन कर के पूछ दिया कि मेरा नए साल का प्लान क्या है। मुझे लगा कि अपने प्लान में शामिल करेगी, लेकिन उसके जवाब पर अब क्या बात करना! मैं ठहरा घोर राष्ट्रवादी व्यक्ति, मैंने फोन काटा और कहा कि मैंने अपना जीवन राष्ट्रवाद को दे दिया है, पार्टी नहीं करता। बोलने में दर्द तो हुआ लेकिन क्या है, सह लेंगे थोड़ा।

मैंने सोचा कि किसान आंदोलन में जब सिनेमा चल ही रहा है, पिज़्ज़ा आ ही रहा है, छुहारे बँट ही रहे हैं, मसाज चल ही रहा है, डीजे बज ही रहा है, तो फिर पार्टी तो ‘यूँ ही चालेगी’ वाली बात होनी चाहिए। जब आंदोलन टिपिकल आंदोलन टाइप रहा नहीं, वामपंथी मीडिया ने भी बताया कि आंदोलनकर्मी थकेंगे तो फुट मसाज को ऐसे क्यों बताया जा रहा है जैसे वो कोई पाप हो, तो फिर माहौल घरेलू होना चाहिए।

ऐसे में ओपन टेरेस पार्टी न सही, ओपन रोड पार्टी तो बनती है यार। एक एंकर का भाई कई कारणों से चर्चा में रहता ही है तो उसका कॉन्टैक्ट यूज कर के कुछ नाचने वालों को भी तो बुलाया जा सकता है। माहौल तो होना चाहिए न, आंदोलन तो हो ही रहा है। आंदोलन के बारे में लिखा जा रहा है, कनाडा के पीएम तक ने बयान दे दिया है, अमेरिकी मीडिया वालों को भी स्थान विशेष में दर्द उठ ही रहा है, तो इसमें आंदोलनकर्मियों के लिए अब बचा ही क्या है कि वो एन्जॉय न करें!

अब काम तो सिर्फ ‘छठे टाइप’ के लोगों का बचा है, उनका भी पहले का भी रिकॉर्डेड वीडियो चला देंगे तो भी किसी को पता नहीं चलेगा। उन्होंने पूरे टाइम एक ही तो बात बोली है, “काला कानून वापस लो, उसके पहले कोई बातचीत संभव ही नहीं है।” तो वो भी पार्टी, प्री पार्टी और आफ्टर पार्टी में शरीक हो ही सकते हैं। आंदोलन सड़क पर बता हो या नहीं, मीडिया में तो हो ही रहा है। लोग हेडलाइन पढ़ रहे हैं, कोई देखने गया है कि दिन भर राशन खपाने के अलावा और क्या हो रहा है।

वैसे भी आम आदमी पार्टी वालों ने इन्टरनेट का इंतजाम कर ही दिया है। भले ही कुछ साइटें न खुलें लेकिन कॉलेज में डीएसएलआर ले कर घूमने वाले बंदे को ये तो पता है न कि वीपीएन कैसे काम करता है, व्हाट्सएप्प ग्रुप में ये जानकारी तीन मिनट में फैल जाएगी और युवा वर्ग बिना बफर किए हुए इंटरनेट का समुचित आनंद ले पाएगा।

न्यू इयर के बारे में प्राचीन संस्कृत में एक सूक्ति लिखी गई है कि ‘संगीतनृत्यभोजनम्, पेयपदार्थ तथैव च, न्यू इयर पार्टीस्य चतुर्राकर्षणम्’ अर्थात् संगीत, भोजन, नृत्य और पेय पदार्थों (वायव्य और द्रव, दोनों) को नववर्ष की पार्टी का प्रमुख आकर्षण माना गया है।

ऐसे में अब एक ही कार्य बचा है कि ऐसे व्यवस्थित और योजनाबद्ध आंदोलनकारियों को नमन किया जाए और नए साल की तरफ इस उम्मीद से देखा जाए कि फरवरी 2021 में कोई हिन्दू विरोधी दंगा न हो जाए। क्योंकि वामपंथी जब-जब दूसरों के आंदोलनों को हायजैक करते हैं, लोग मरते हैं। ये हमने बाबरी तोड़ने के बाद देखा, इसी साल शाहीन बाग के समय देखा, और उसी रास्ते पर जाते इस तथाकथित आंदोलन को भी देख रहे हैं।

ये बात और है कि कोरोना के कारण देश की पाँच-सात यूनिवर्सिटी के भाड़े के दस-दस लोग, बिना बिल पढ़े, मूर्खों की तरह पोस्टर ले कर वीडियो नहीं बनवा रहे जिसे बकैत कुमार यह कह कर चलाता कि देखिए आईआईटी खड़गपुर भी दे रहा है शाहीन बाग को समर्थन! ऑनलाइन होने से ये वैचारिक उत्पात तो अभी तक नदारद है।

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अजीत भारती
अजीत भारती
पूर्व सम्पादक (फ़रवरी 2021 तक), ऑपइंडिया हिन्दी

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