लिबरलों में समाज और देश की ओर से शर्मिंदा होने की होड़ लग गई है। कोई मानवता की ओर से अपना सिर शर्म से झुका ले रहा है तो कोई समाज की ओर से। कोई ऐज अ नेशन शर्मिंदा हो ले रहा है तो कोई ऐज अ ह्यूमन बीइंग। कोई यह कहते हुए शर्मिंदा हो रहा है कि; हाय, हम सब जिम्मेदार हैं तो कोई यह कहते हुए शर्मिंदा हो रहा है कि; इतिहास हमें माफ़ नहीं करेगा। पिछले सात-आठ वर्षों में लोग किसी न किसी बहाने शर्मिंदा होते रहे हैं। शर्मिंदा होने के लिए विशिष्ट घटनाएँ न मिलें तो साधारण घटनाओं को विशिष्ट बना लेते हैं ताकि शर्मिंदा हुआ जा सके।
कई बार लगता है कि दो लिबरल मिलते होंगे तो उनके बीच की बातचीत कुछ यूँ होती होगी;
यार बड़ा झमेला है लाइफ में। सबकुछ सही चल रहा है। एक तो ये सरकार इतनी बोरिंग है कि काम के अलावा कुछ करती ही नहीं। दर्जनों लोग रोज गरियाते हैं पर एक ठो एफआईआर भी नहीं करती। मैं तो कहता हूँ कि 66A में ही किसी को अरेस्ट कर लो ताकि हम समय-समय पर शर्मिंदा हो लिया करें पर इससे वह भी नहीं होता। साढ़े सात महीने बाद परसों स्वामी की डेथ पर शर्मिंदा होने का मौका मिला। मिला तो क्या, साला खुद ही बनाना पड़ा। नेचुरल डेथ को मर्डर न कहते तो इस बार भी शर्मिंदा नहीं हो पाते। माने खुद ही सोचो, पिछली बार शर्मिंदा तब हुए थे जब श्वेताभ जी की बेल एप्लीकेशन रिजेक्ट हुई थी। साढ़े सात महीने पहले।
अरे पूछो मत, लगता है जैसे कोरोना ने जीवन का लक्ष्य ही छीन लिया है। पहले एक्टिविटी रहती थी तो बीच-बीच में शर्मिंदा होने का मौका मिलता रहता था और शर्मिंदा होकर लगता था कि लाइफ में एक परपज है। कोरोना आने के बाद तो वह भी नहीं रहा। मैं भी पिछली बार प्रोफ़ेसर श्वेताभ के बेल एप्लीकेशन रिजेक्ट होने पर शर्मिंदा हुआ था। अरे मैं क्या हुआ था, हम दोनों साथ ही तो हुए थे। याद है वो दिल्ली हाट में चाय पीते हुए दोनों एक ही साथ ट्वीट करके शर्मिंदा हुए थे। फिर तुमने मुझे आर टी किया था और मैंने तुम्हें। बस, उसके बाद यही परसों हुए।
अरे, बाल-बाल बचे। हम तो ये गाज़ियाबाद वाली घटना पर पूरे हिन्दू समाज के बिहाफ पर शार्मिंदा होने का ट्वीट भी ड्राफ्ट कर चुके थे। फिर पता चला कि ई फैक्ट चेकरवा उस घटना का फैक्ट चेक किया है। हम समझ गए कि इस पर शर्मिंदा हुए त खतरे है।
का मरदे आप भी। जब ट्वीट ड्राफ्ट कर दिए थे त ठेल देना चाहिए था। इतना सोचेंगे तो कैसे चलेगा? एक तो सरकार और कोरोना वैसे ही कम चांस दे रहे हैं और इधर आप डर रहे हैं।
अरे भाई, बात समझो। बबवा का इस्टेट है। बबवा और दाढ़ी में बड़ी अंतर है। और ये मत भूलो कि कहाँ रहते हो।
हाल यह है कि किसी लिबरल को कॉल करो तो यह डर लगा रहता है कि उधर से सूचना मिलेगी कि; भैया, अभी ह्वाट्सएप्प ग्रुप में बिजी हैं। बाद में फ़ोन कीजिये बा एक काम कीजिये, कल फ़ोन कर लीजिये। आज उनका सामूहिक रूप से शर्मिंदा होने का प्लान है तो सारा दिन चल सकता है। दिन भर ट्रेंडिंग करवाने का भी प्लान है। इसलिए यही ठीक होगा कि कल ही फ़ोन करें।
शर्मिंदा प्रसाद जी का ट्विटर टी एल देख रहा था। उन्होंने ट्वीट में लिखा था; 84 साल के स्वामी के साथ जो हुआ वह हमारे डेमोक्रेसी, जस्टिस सिस्टम और समाज की मानवीयता इन सभी पर एक सवाल है, दाग है। शर्म है।
बताइये, शर्मिंदा प्रसाद जी ने अपराध और कानून की बात दरकिनार करके लोकतंत्र, न्याय व्यवस्था और समाज पर सवाल, दाग और शर्म, तीनों चेंप दिए। पढ़कर लगा जैसे 83 साल की उम्र के बाद देश का कानून अपराध करने की छूट देते हुए कहता है कि; भैया, 83 पार कर चुके हो, अब तुम कोई भी अपराध करने के लिए स्वतंत्र हो। कोई अड़चन आई तो देश भर के लिबरल मिलकर समाज और देश को शर्मिंदा करके छोड़ेंगे। मानवाधिकार के हनन पर अमेरिकी अखबार और न्यूज़ साइट पर कॉलम लिखेंगे और आपके अपराध की चर्चा न करके समाज, देश और मानवता, तीनों से अपराध बोध की नदी में डुबकी लगवाएंगे। निश्चिन्त रहें, आपके अपराध की चर्चा किसी ने की तो उसे लिबरल समाज से निकाल बाहर किया जायेगा और कोई उसके साथ सिगरेट नहीं पीयेगा।
कई बार लगता है जैसे इनके व्हाट्सएप्प ग्रुप की शर्तें कुछ ऐसी होती होंगी; केवल उन्हीं को ग्रुप में रखा जाएगा जिनके पास शर्मिंदा होने का कम से काम पाँच वर्षों का अनुभव हो। या फिर; ऐसे लिबरलों को वरीयता प्राप्त होगी जो पंद्रह मिनट के शॉर्ट नोटिस पर शर्मिंदा हो लेते हैं। या फिर; समाज के बिहाफ पर शर्मिंदा होने वाले इस ग्रुप के एडमिन भी बनाए जाएँगे और जो देश के बिहाफ पर शर्मिंदा होने की क्षमता रखते हैं उनका प्रमोशन करके उन्हें सुपर थर्टी शर्मिंदा लोगों के ग्रुप में एंट्री मिलेगी।
अपराध की बात न करने से शर्मिंदा होने में सुभीता होता है। इनके ट्रेनिंग सेशन के दौरान श्रेष्ठ लिबरल का स्ट्रिक्ट निर्देश होता होगा; खबरदार अपराध की बात की तो। उस तरफ देखो भी मत। तुम्हारा काम है खुद शर्मिंदा होने के बहाने समाज को शर्मिंदा होने के लिए ललकारना। अपराध की बात करते हुए नक्सली को डिफेंड करोगे तो समाज तुम्हारे ऊपर चढ़ जाएगा और तुम्हें सच में शर्मिंदा करके छोड़ेगा। ये बुर्जुआ लोग बड़े घाघ होते हैं। ऐसे में कभी अपराध का अ भी मत बोलना। और हाँ, अकेले शर्मिंदा होने में खतरा है। हमेशा सामूहिक तौर पर शर्मिंदा होना है। सफल शर्मिंदगी का यही मंत्र है।
ये शर्मिंदा हुए जा रहे हैं। जहाँ मौका नहीं है तो मौके का निर्माण कर लेंगे पर शर्मिंदा होना जरूरी है।