समय बीतता जाता है और मात्र 99% तबलीगी जमातियों के कारण बचे हुए पूरे एक प्रतिशत का नाम खराब होता जाता है। ताजा खबर, उत्तर प्रदेश के नरेला का है जहाँ नरेन्द्र मोदी के तमाम ‘स्वच्छता अभियान’ के दावे के, कि भारत खुले में शौच से मुक्त हो चुका है, नया मामला सामने आया है, जहाँ तब्लीगी जमात के कोरोना संदिग्ध लोगों ने कमरे के बाहर शौच कर दी।
अब आप सोचिए कि कोई भला क्यों ऐसा करेगा? अल्पसंख्यकों पर इतना ज्यादा अत्याचार हो रहा है कि कई खबरों में उन्हें बाहर से सेक्स आदि का भी प्रशिक्षण नहीं मिल पा रहा, तो वो बताते हैं कि मरकज़ निज़ामुद्दीन में उन्हें साथ खाने से ले कर सेक्स कैसे करना चाहिए, ये भी सिखाया जाता है।
आप दोबारा सोचिए कि आज के दौर में जहाँ भारत जैसी रूढ़िवादी सभ्यता में, कहीं कोई संस्था अपने अनुयायियों को सेक्स एजुकेशन दे रही है, तो उसे आप कोरोना के नाम पर छापे मारी कर रोक देंगे? उन्हें तमाम मीडिया वाले मिल कर बदनाम करेंगे?
कोरोना का क्या है, वो तो मौलाना शाद ने खुद कहा है कि ऊपर वाले ने जब दे दिया, और उसने 70,000 फरिश्ते भी तुम्हारी हिफाजत के लिए दिए हैं, तब भी अगर तुम डॉक्टरों की वाहियात बातों पर विश्वास रखोगे और मस्जिदों को आबाद नहीं करोगे, तो तुम्हें तो वैसे भी बीमारी होनी ही है। इसलिए मस्जिद में जमा होने का, उसे आबाद करने का समय है कि जब तुम आओगे, फरिश्ते उतरेंगे और वो तुम्हें ठीक करेंगे।
लेकिन हुआ क्या? मौलाना शाद की इस तकनीक का परीक्षण तक नहीं होने दिया गया और उनसे कहलवाया गया कि वो लोगों से अपील करें कि डॉक्टरों की बात मानी जाए, सरकार की अपील सुनी जाए। उसके बाद मीडिया ट्रायल शुरू हो गया कि तबलीगी ने कहीं थूक दिया, कहीं पेशाब इकट्ठा कर रहे हैं, कहीं शौच कर दिया…
एक मर्द के तौर पर आप सोचिए कि ये सारी चीजें क्या कुदरती नहीं हैं? यहाँ शाहीन बाग में जब कहा गया कि खाना तो कुदरती तौर पर आ रहा है तब तो सब ने मान लिया। लेकिन किसी को कुदरती तौर पर थूक आ जाए, पेशाब लग जाए, गुदाद्वार पर विष्ठा दस्तक देने लगे, तो क्या वो किसी पर थूक भी नहीं सकता? बोतलों में पेशाब नहीं कर सकता? दरवाजे पर शौच नहीं कर सकता?
अरे, जिनके खानदान के लोगों ने एक हजार साल तक राज किया है यहाँ के हिन्दुओं पर, वो क्या मुँह में थूक आने पर डॉक्टरों पर फेंक नहीं सकते? क्या हो जाएगा? थूक में कोरोना है? बिना जाँचे कैसे पता? और अगर है भी तो डॉक्टर ने तो पीपीई सूट पहना हुआ है न। उसे अगर फिर भी हो गया तो तुम्हारा मोदी ही जिम्मेदार है कि कैसे सूट दे रहा है जो तबलीगियों के मुँह से निकली कुदरती थूक तक नहीं झेल पा रहा?
क्या यही है गंगा-जमुनी तहजीब कि अनंतकाल से खेतों में मल त्यागने जाने वाले समाज में, आज एक तबलीगी गेट पर बैठ कर विष्ठा कर रहा है, तो उसे यहाँ के बहुसंख्यक बर्दाश्त नहीं कर पा रहे! क्या ऐसे होगी विविधता में एकता कि हम तुम्हारे घर के सामने टट्टी तक नहीं कर सकते?
आप बताइए कि पेशाब बोतल में रखने पर रोक है! अरे! आज क्या मजहबी इन्सान इतना पराया हो गया कि अपना ही पेशाब बोतल में नहीं रख सकता? मतलब थूकने पर मनाही है, शौच करने पर मनाही है, तब हमने बोतलों में पेशाब रख लिया, तो भी दिक्कत! अरे भाई बता दो कि थूक, पेशाब और शौच को पास में रखें, या बाहर फेंके। माइंड मेक अप कर लो। ऐसे नहीं चलेगा कि दोनों साइड से तुम ही बजाओ।
इंदौर में कुछ भाइयों ने डॉक्टर और पुलिस पर पत्थरबाजी कर दी। क्या हो गया? आपको नहीं पता कि फेंकने पर अगर हम आ गए तो क्या-क्या फेंक देते हैं। पत्थर तो कुदरती चीज है, पड़ी थी, हथेली में खुजली हुई, फेंक दिया। जब एक बार इलाके में बता दिया कि हमें नहीं हो रहा कोरोना, तो पुलिस क्यों दिमाग लगाने आती है?
कभी नमाज पढ़ने पर रोक लगाने की बात होती है, कभी जाँचने आ जाते हैं। क्या इस देश का संविधान हमें अभिव्यक्ति की आजादी नहीं देता? हिन्दुओं की शादियों में बंदूकें चले तो वो भावनात्मक बात हो जाती है कि खुशी में फायर कर दिया, और हमने मधुबनी में गोली चला दी थोड़ी सी, तो उसे आपराधिक कह दिया! अरे, हमने गम में फायर कर दिया, हमारे भी जज्बात हैं, हम भी भावनात्मक लोग हैं, हम भी अपने आप को ऐसे अभिव्यक्त करते हैं।
बिजनौर में अंडा करी और बिरयानी माँग ली तो बवाल हो गया कि देखो जमाती क्या-क्या माँग रहे हैं! क्या करें, देश की अर्थव्यवस्था को बर्बाद होते देखें हम? मुर्गीपालन और अंडेवालों पर तो रवीश जी ने भी प्राइम टाइम कर दिया था कि हालत खराब हो जाएगी व्यवसायियों की। तो क्या एक जिम्मेदार नागरिक के तौर पर हम डिमांड क्रिएट कर, सप्लाई चेन में स्फूर्ति नहीं ला सकते?
कानपुर के हमारे भाइयों ने जब थूक-थूक कर पूरे गणेश शंकर विद्यार्थी मेमोरियल अस्पताल के क्वारंटाइन वार्ड को सैनिटाइज करने की कोशिश की तब भी न्यूज बना दिया गया। हमने देखा है सैनिटाइजर। बोतल में पारदर्शी चीज होती है। हाथ पर लगाते हैं, और कहते हैं कि कीड़ा मर जाता है। हमारे मुँह में भी तो कुदरती पारदर्शी लार है।
हमने वही फेंका, हमारी मंशा पाक थी, लेकिन लोग क्या कह रहे हैं कि तबलीगियों ने थूक कर गंदा कर दिया! क्या विज्ञान नहीं कहता कि घाव पर थूक लगाओ, उसमें एंटीबैक्टेरियल गुण होते हैं? कर लोग गूगल, फिर बताना की पाँच वक्त का नमाजी तुमसे झूठ बोल रहा था! लाहौलविलाकुवत! जो चीज साबित नहीं कर सकते, कि धरती गोल है, तो उस पर हमारा मजाक बनाओगे जिसे मात्र सौ-पचास लोगों ने देखा है, लेकिन थूक में जो मेडिकल चीजें हैं, उसको झुठला दोगे?
ग़ाज़ियाबाद वाला मामला कितना तूल पकड़ा कि नर्सों पर अश्लील टिप्पणी कर दी, गंदे गाने सुने, बीड़ी माँग रहे थे। आप यह तो मानते हैं कि आदमी अकेले पड़े-पड़े बोर हो जाता है? नर्सें लगातार काम कर रही थी, हमने माहौल हल्का करने के लिए बोला कि हैदराबाद चलो, फूल वाले बुर्के में रखेंगे, झीनी-झीनी जरीदार जाली से हवा आएगी तो मई के महीने में जो आँखों पर ठंढी लगेगी कि एसी भूल जाओगी। ये तो जेनरल नॉलेज की बात है, शेयर की, हमें कह दिया गया कि तबलीगी ठरकी हैं, तबलीगी वाले औरतों का सम्मान नहीं करते।
आप ये भी तो मानेंगे कि गरमी का मौसम है। ऐसे में हमने सोचा कि गमगीनी के इस माहौल को थोड़ा लाइट किया जाए, हम नंगे हो कर घूमने लगे। किसी को क्या परेशानी हो सकती है? आप बाथरूम में नंगे हो कर नहाते हैं, वो ठीक, यहाँ एक आदमजात गरमी में नंगा हो गया, तो क्या परेशानी हो गई? आँख बंद कर लो, दिक्कत है तो। कमाल की बात ये है कि खुद कुछ नहीं करना, सामने वाले की हर बात को नकारात्मक तरीके से देखना।
बात यह है कि अल्पसंख्यकों की हर बात में देश के कुछ लोगों को परेशानी है। हम अपने फलों के ठेले पर रखे फल पर थूक लगाएँ, तब परेशानी है। हम थूक लगा कर तरबूज काटें तब परेशानी है। हमारी आलोचना कोई करे तो उसे गोली मार दें, तब परेशानी है! मतलब थूक हमारा, फल हमारा, तरबूज हमारा, चाकू हमारा, गोली हमारी… और उसे कैसे इस्तेमाल करेंगे, वो हमें कोई और बताएगा!
ये है भारत का निजाम जिसके लिए लेहरू जी और गान्ही बाबा इतनी लड़ाई किए? क्या इसी निजाम के लिए संविधान सभा बैठा करती थी जिसमें अल्पसंख्यकों को अपनी थूक पर ही हक नहीं, देश का तो खैर छोड़ ही दीजिए! हम क्या करें, कहाँ जाएँ? कोई कहता है पाकिस्तान चले जाओ। पागल समझ रखा है क्या कि पाकिस्तान चले जाएँ, हमें क्या पता नहीं था कि उधर के मजहबी कैसे होंगे। उनके देश का बाप दाढ़ी तक नहीं रखता था, वहाँ तो नहीं ही जाना।
और हाँ, ये जो शौच वाली बात है न, उससे तो यही साबित होता है कि मोदी का शौचालय वाला अभियान फुस्स है। उसने ताल ठोक कर कहा था कि भारत खुले में शौच से मुक्त है। अगर मुक्त हो गया होता तो कैसे हमारे भाई कर लेते? कुछ तो सिस्टम होगा ना कि आदमी खुले में जाए तो ‘मुक्त’ होने के कारण उतरे ही नहीं। अरे, जैसे सड़क क्रॉस करने पर रेड लाइट होती है, ट्रैफिक वाला होता है, रेलवे फाटक होता है, वैसा कुछ सिस्टम होना चाहिए कि नहीं।
तभी तो जुगराफिया से ले कर अलगंजा, अलपंचर और अलझबरा की समझ रखने वाले ध्रुव लाठी ने कहा कि तबलीगियों का शौच कर पाना बताता है कि मोदी का स्वच्छता अभियान एक असफल कैम्पेन है। लाठी ने आगे कहा, कि यूँ तो मोदी का आईटी सेल क्वारंटाइन सेंटर में मल त्यागने को ‘ओपन’ नहीं मानते हुए, अपने वादे की सफलता की बात करेगा, लेकिन हम सब जानते हैं कि वो झूठ है और मोदी एक्सपोज हो चुके हैं।
इसको और अलग तरीके से देखना है तो आप यह भी देखिए कि भारत के स्वास्थ्य व्यवस्था की सच्चाई कैसे सामने आती? अगर तबलीगी मरकज दिल्ली में न हुआ होता और हमने अपने सैकड़ों दीनी लोग पूरे भारत के मस्जिदों में न भेजे होते, तो पता कैसे चलता कि हमारी राज्य सरकारें तैयार हैं। हमने तो देश का भला किया है कि जब सब कुछ ठीक चल रहा था, तो हमने अपने लोग उतारे कि हालात बदल दो, जज्बात बदल दो, और दिखा दो कि तुम कौन हो।
आप इसे एक मॉक ड्रिल कह सकते हैं कि हमारे तबलीगी भाइयों के कारण, अलहमदुलिल्ला, हमने भारत की सोई स्वास्थ्य व्यवस्था को ऐसा तमाचा मारा है कि अब ये आँखों में टेप साटे घूम रहे हैं। इसलिए, हमें तो धन्यवाद देने, हमारा शुक्रगुजार होने के अलावा और कुछ बनता ही नहीं है भारत के लोगों का।
कुल मिला कर बात यही है कि एक सोची-समझी साजिश के तहत, अपने ही भीतर के कुदरती थूक, कुदरती पेशाब और कुदरती टट्टी को अपने मन के हिसाब से यहाँ-वहाँ फेंकने वाले मासूम तबलीगियों को उनके मजहब होने के कारण बदनाम किया जा रहा है। आज देश कोरोना से लड़ रहा है, ऐसे में हमें मजहब-मजहब करने से बचना चाहिए। तभी एक समाज के तौर पर हम आगे बढ़ पाएँगे।