श्रीमान श्रेयांश शांतिलाल शाह,
मैंने अपने जीवन का अधिकांश समय अहमदाबाद में बिताया है। मैं आपके अख़बार को पढ़कर बड़ी हुई हूँ। मुझे याद है कि जब दिव्य भास्कर ने अहमदाबाद में डेब्यू किया था, तो गुजरात के लोगों का आपके अख़बार के प्रति निष्ठा का भाव ऐसा था कि नए अख़बार के साथ-साथ लोग गुजरात समचार को भी ख़रीदते थे।
गुजरात के लोग ये जानते हैं कि आपके नेतृत्व में प्रकाशित होने वाले अख़बार हमेशा सरकार विरोधी और प्रतिष्ठान विरोधी रुख़ अपनाता रहा है। यही वजह है कि बतौर संपादक आप तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के कामकाज के ख़िलाफ़ लिखते रहे हैं।
2002 के दंगों के दौरान आपका ये रवैया और स्पष्ट हो गया जब आपने एक ज़िम्मेदार प्रकाशन की भूमिका निभाने की बजाए आपने अपने सरकार विरोधी आचरण को और बढ़ा दिया। आपने अख़बार में भड़काऊ सामग्री प्रकाशित की। प्रेस काउंसिल ने एक और गुजराती दैनिक संध्या में आपके और आपके मित्र से कुछ रिपोर्टों में पत्रकारीय आचरण के मानदंडों के उल्लंघन के संबंध में जवाब माँगा गया था।
ज़ाहिर तौर पर, जाँच समिति के सदस्यों को आपके इस व्यवहार से दु:ख हुआ क्योंकि अभिमानी और ज़रूरत से ज़्यादा जिद्दी होने के नाते आपने जाँच समिति के छह में से पाँच नोटिस का जवाब तक नहीं दिया। आपने इस संवेदनशील समय में सनसनीखेज़ रिपोर्ट को अख़बार के पन्नों पर छापना जारी रखा। आपने ऐसा इसलिए किया क्योंकि आप जिस व्यक्ति को पसंद नहीं करते थे वह मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा था।
बरसों बाद वही मुख्यमंत्री अब देश के प्रधानमंत्री हैं। लेकिन आपके इस व्यवहार को देखने के बाद मुझे अहसास हुआ है कि घृणा प्यार की तुलना में अधिक प्राकृतिक मानवीय भावना है। इसलिए, जब एक ऐसे आतंकवादी जिसे लगता है कि गौमूत्र पीने वाले को मारकर उसे जन्नत मिलेगी और वो आतंकी सीआरपीएफ के 44 जवानों को मार देता है, तो इस दर्दनाक घटना के तुरंत बाद आपकी प्रवृत्ति सदमे और डर की नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री मोदी के मजाक उड़ाने की होती है।
हमले के एक दिन बाद 15 फ़रवरी को, आपके अख़बार की हेडलाइन कुछ इस तरह थी, “56नी छत्तीनी कैवर्त: एतंकियॉ बेफाम, 44 जवान शहीद, आपके अख़बार के इस हेडलाइन का अनुवाद इस तरह है “56 इंच के सीने की कायरता, आतंकवादियों को खुली छूट मिलती है: 44 जवान शहीद।”
आपके अख़बार की सबहेडिंग कुछ इस तरह दी गई, ‘जेड प्लस सिक्योरिटी वाचा फर्ता वडप्रधान देश सुरक्षा कर्ता जवना माटे लचार’, यदि आपके अख़बार की हेडलाइन का अनुवाद करें तो यह इस तरह है कि प्रधानमंत्री जो जेड प्लस सुरक्षा के बीच कहीं जाते हैं, जब जवानों की सुरक्षा की बात आती है वो असहाय नज़र आने लगते हैं।
हेडलाइन में लिखा है, “पुलवामा हमला: देश नी जनता सरकार, पुछे छे, कैसा है जोश?” का मोटे तौर पर अनुवाद इस तरह है कि, ‘पुलवामा हमला: नागरिक सरकार से पूछते हैं,’ कैसा है जोश?’ फ़िल्म उरी का संबंध भारतीय सर्जिकल स्ट्राइक से था, जिसमें उरी हमलों का बदला लेने के लिए भारतीय फौज ने अपनी जान की बाजी लगाकर बार्डर पार दुश्मनों के छक्के छुड़ा दिए थे। लेकिन आपने उसका इस्तेमाल अपने लेख में सरकार पर हमला करने के उद्देश्य से किया। आपने अख़बार के लेख में कुछ इस तरह लिखा है कि जनता आतंकी हमले के बाद सरकार से उरी फ़िल्म के इस डॉयलॉग के ज़रिए सवाल पूछ रही है।
लेकिन आप ग़लत हैं। वाक्यांश ‘जोश कैसा है’ का उपयोग नागरिकों द्वारा सरकार से सवाल पूछने के लिए नहीं किया गया है, लेकिन हमले के बाद इसका उपयोग वास्तव में ज़िहादियों द्वारा पुलवामा हमले का जश्न मनाने के लिए ज़रूर किया गया है। हाँ, यह बात अलग है कि कई बार आतंकियों से सहानुभूति रखने वाले कुछ मध्यस्थ और कुछ मीडिया कर्मी ऐसे मौक़े पर इस तरह के सवाल का इस्तेमाल करते हैं। अरे हाँ, यहाँ मेरे कहने का मतलब संपादक महोदय सिर्फ़आपसे नहीं है।
@gujratsamachar Your work is to give the news, not to give any kind of judgment on politics in every event. Can’t use the print news media which is biased towards one political party and against another. Switching off subscription of Gujarat Samachar.
— Priyank Maru (@PriyankMaru36) February 15, 2019
#NoToGujratSamachar pic.twitter.com/2g4NYB99p0
साहब, आप बहादुरों के बलिदान का शोक नहीं मना रहे हैं। लेकिन हाँ, आप इन 44 जवानों के जीवन को बचाने में मोदी सरकार के ‘विफल’ होने पर आप ज़रूर शोक जरूर मना रहे हैं। मुझे मालूम है कि उन सैनिकों की भयावह शव को देखकर आपकी आंखें नम भी नहीं हुई होंगी। लेकिन हाँ जवानों की मौत पर आपके चेहरे पर एक मुस्कुराहट ज़रूर दिख रही है।
मुझे इस बात पर आश्चर्य होता है कि आपके अंदर इतनी नफ़रत कहाँ से आती है? आपको घमंड किस बात का है? यही कि आपके पास क़लम की ताक़त है?
संपादक महोदय आप देखिए कि लोग अब सोशल मीडिया पर अपनी बात रख रहे हैं। आपको यह मानना होगा कि सोशल मीडिया के आने से लोगों को पारम्परिक मीडिया के असली चेहरा का पता चल गया है। सोशल मीडिया के आने से लोगों ने मुख्यधारा की मीडिया पर सवाल खड़े करना शुरू कर दिया है। सोशल मीडिया के आने से राष्ट्रीय मीडिया या तो तथ्यों को सही करने की कोशिश कर रहा है या उन्होंने उन सभी का उल्लेख करना शुरू कर दिया है जो उन्हें सही करते हैं। संपादक महोदय आप देखते रहिए वह समय बहुत दूर नहीं है जब लोग क्षेत्रीय समाचार पत्रों से भी आगे निकल जाएँगे और उनसे उनकी नैतिकता और बुनियादी पत्रकारिता की आचार संहिता पर सवाल करेंगे।
यदि आप आज इंटरनेट पर आकर देखेंगे तो आपको पता चलेगा कि लोगों को आपसे कितनी सारी शिक़यतें हैं। यदि आप यह सोच रहे हैं कि यह सभी लोग मोदी भक्त हैं तो आप ग़लत हैं, क्योंकि वे सभी मोदी भक्त नहीं बल्कि एक सभ्य इंसान हैं। यह सभी लोग हैरान हैं कि एक संपादक होने के नाते आपके अंदर भावना के रूप में सहानुभूति की कमी है। सच तो यह है कि आपसे शिक़ायत किसी और को नहीं बल्कि आपके अख़बार के नियमित पाठकों, देश के नौजवान छात्रों और पेशेवर लोगों को है। यक़ीन मानिए आपने आज उन्हें निराश कर दिया।
After 10 years, dropping Gujarat samachar newspaper for reading till last breath of my life…#gujaratsamachar pic.twitter.com/QjFEXWSOBW
— Vijaykumar kumbhar (@9727267212) February 15, 2019
I am discontinuing Gujarat Samachar from tomorrow, and I hope more would do the same, if in case you would have read the headlines. Editor needs to learn the difference between Politics and Nation. You owe a apology to brave Martyrs. @gujratsamachar pic.twitter.com/Nac2xufuS7
— Matri Vyas (@Matri_vyas) February 15, 2019
संपादक महोदय, मैं यह जानना चाहती हूँ कि आप ख़ुद के साथ कैसे न्याय करते हैं, यह जानते हुए कि आपने एक व्यक्ति की आलोचना को जवान के शवों से ज़्यादा अहमियत दे दी। ऐसा लिखने पर क्या आपकी अंतरात्मा आपको झकझोरती नहीं है? या फिर आप अंदर से ही इतने मर चुके हैं कि अब आपके पास कोई भावना शेष ही नहीं बची?