आज एनआरसी, सीएए और एनपीआर पर जिस तरह भ्रम पैदा करने की कोशिश हो रही है। समुदाय विशेष को उकसाया जा रहा। विरोध के नाम पर हिंसा हो रही। हिंदुत्व की कब्र खुदेगी जैसे नारे लग रहे हैं। ऐसे वक्त में अटल बिहारी वाजपेयी होते तो कॉन्ग्रेसियों और वामपंथियों की साजिश को लेकर क्या कहते?
इसकी झलक राम मंदिर को लेकर संसद में दिए वाजपेयी के एक भाषण में मिलती है। अयोध्या में राम मंदिर को लेकर भी कभी आज के तरह ही साजिश रची गई थी। बीते साल 16 अगस्त को आखिरी सॉंस लेने वाले पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने ऐसी ही साजिशों का जवाब देते हुआ सालों पहले बहुसंख्यक हिंदुओं की ओर से एक सपना देखा था। वह सपना था नैतिक विश्वास के बल पर अयोध्या में राम का मंदिर बनाने का। इसी साल सुप्रीम कोर्ट के फैसले से इस स्वप्न के पूरा होने का रास्ता साफ हुआ है।
हालॉंकि राम मंदिर आंदोलन को लेकर वाजपेयी का जिक्र अक्सर 5 दिसंबर 1992 को लखनऊ की रैली में दिए गए उनके भाषण को लेकर किया जाता है। अयोध्या में कारसेवा से ठीक एक दिन पहले हुई उस रैली में कहा था “वहॉं नुकीले पत्थर निकले हैं। उन पर तो कोई नहीं बैठ सकता तो जमीन को समतल करना पड़ेगा, बैठने लायक करना पड़ेगा।” इन पंक्तियों का हवाला देकर कुछ लोग वाजपेयी पर कारसेवकों को उकसाने का आरोप भी लगाते रहते हैं।
ऐसा करने वाले वहीं हैं, जो हमेशा से भाजपा पर राम के नाम पर राजनीति करने का आरोप लगाते रहे हैं। जो 6 दिसंबर 1992 को साजिश का हिस्सा बताते हैं। करीब 500 साल से कॉन्ग्रेसियों, वामपंथियों, लिबरलों, समाजवादियों और धर्मनिरपेक्षता के कथित ठेकेदारों का यही गिरोह अयोध्या में इस्लामी अक्रांताओं के गुनाह को महिमामंडित कर रहा था। जब से सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अयोध्या की विवादित जमीन ही रामजन्मभूमि स्थान है, यह गिरोह फिर से जान-बूझकर 6 दिसंबर को उभारने की कोशिश में लगा है।
अयोध्या में राम मंदिर को लेकर वाजपेयी की सोच क्या थी? बहुसंख्यक हिंदू समुदाय क्या सोचता था? इसकी झलक लोकसभा में 17 दिसंबर 1992 को वाजपेयी के संबोधन से मिलती है। अविश्वास प्रस्ताव पर बहस के दौरान उन्होंने कहा था, “राम का मंदिर छल और छद्म से नहीं बनेगा। राम का मंदिर अगर बनेगा तो एक नैतिक विश्वास के बल पर बनेगा। अगर ढॉंचा तोड़ने का इरादा होता, तो ढॉंचा तोड़ने के लिए वहॉं इतने कारसेवक इकट्ठे करने की जरूरत नहीं थी। अयोध्या में तीन महीने में मेले होते हैं। अगर छुपकर काम करना था, अगर चोरी से काम करना था, अगर योजना बनाकर तोड़ना था तो इसके लिए कारसेवा की जरूरत नहीं थी।”
17 दिसंबर 1992 का वाजपेयी का पूरा भाषण पढ़ने के लिए क्लिक करें
उन्होंने यह भी कहा था, “हम यह भी कहते थे कि हम मस्जिद को तोड़ना नहीं चाहते। हम सम्मान के साथ उसे दूसरे स्थान पर ले जाना चाहते हैं, राम जन्मस्थान से अलग। थोड़ा दूर जाकर वहॉं मस्जिद बने। हम उसमें कारसेवा करने के लिए तैयार हैं। हम उसमें योगदान देने के लिए तैयार हैं, लेकिन यह नहीं हो सका।”
सुप्रीम कोर्ट के फैसला भी इस भावना के अनुकूल है। सारे सबूत रामलला के पक्ष में थे। सुनवाई के दौरान मुस्लिम पक्षकार उस जमीन पर अपने दावे के पक्ष में कोई सबूत पेश नहीं कर सके। बावजूद इसके शीर्ष अदालत ने उन्हें मस्जिद के लिए पॉंच एकड़ जमीन सरकार को उपलब्ध कराने के निर्देश दिए।
राम मंदिर आंदोलन तो भाजपा के एजेंडे में जून 1989 में हिमाचल प्रदेश के पालमपुर में हुए पार्टी अधिवेशन में शामिल हुआ था। आंदोलन को लहर में बदलने वाली लालकृष्ण आडवाणी की सोमनाथ से अयोध्या तक की प्रसिद्ध रथ यात्रा तो सितंबर 1990 में शुरू हुई। लेकिन, उससे भी करीब दो साल पहले मुंबई की एक जनसभा में वाजपेयी ने कहा था, “एक अच्छी भावना के साथ रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद की पूरी जमीन हिंदुओं को दे देनी चाहिए और इस भावना के बदले में हिंदुओं को मौजूदा ढॉंचे के साथ बिना कोई छेड़छाड़ किए मंदिर बनाना चाहिए।” 1989 में वामपंथी नेता हिरेन मुखर्जी को लिखे पत्र में भी वाजपेयी ने इसका उल्लेख किया है। यह पत्र वाजपेयी ने अपने नाम 5 जून 1989 को लिखे गए हिरेन के खुले खत का उत्तर देते हुए लिखा था।
17 दिसंबर 1992 के भाषण में ही वाजपेयी ने कहा था, “अयोध्या ट्रेजेडी है। आप हम पर जितना दोषारोपण करेंगे हम उतना ही सुर्खरू होंगे।” राम मंदिर मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले से बहुसंख्यक हिंदुओं की भावना और सुर्खरू हुई है। NRC के मामले में भी छल और छद्म परास्त होंगे, हम और सुर्खरू होंगे!
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