Tuesday, April 16, 2024
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दर्थवामा रेन्थलेई: मिजोरम के एक अज्ञात राष्ट्र नायक, जिन्होंने नेताजी के नेतृत्व में लड़ी थी आजादी की लड़ाई

दुर्भाग्य से ऐसे असंख्य स्वातंत्र्यवीर हैं जिन्हें स्वार्थवश इतिहासकारों ने भुला दिया है और आज की पीढ़ी उनके नाम तक नहीं जानती। मिजोरम के दर्थवामा रेन्थलेई भी एक ऐसे ही अज्ञात राष्ट्र नायक हैं जिन्होंने नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में गठित भारतीय राष्ट्रीय सेना (INA) के एक सेनानी के रूप में अंग्रेजों के विरुद्ध विदेशी धरती पर लड़ाई लड़ी थी।

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का स्वर्णिम गौरव पूर्ण अतीत सुविज्ञात ही है। यह उनके राष्ट्रभक्ति पूर्ण जोश एवं उत्साह का ही परिणाम है कि हम आजादी का आनंद ले रहे हैं और स्वतंत्रता के 7 दशकों बाद भी हम अपने राष्ट्र वीरों के बलिदान का गुणगान करते हैं।

दुर्भाग्य से ऐसे असंख्य स्वातंत्र्यवीर हैं जिन्हें स्वार्थवश इतिहासकारों ने भुला दिया है और आज की पीढ़ी उनके नाम तक नहीं जानती। मिजोरम के दर्थवामा रेन्थलेई (Darthawma Renthlei) भी एक ऐसे ही अज्ञात राष्ट्र नायक हैं जिन्होंने नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में गठित भारतीय राष्ट्रीय सेना (INA) के एक सेनानी के रूप में अंग्रेजों के विरुद्ध विदेशी धरती पर लड़ाई लड़ी थी।

हम राष्ट्र के प्रति उनके प्रयासों व बलिदानों को कभी नहीं भूल सकते। आज संपूर्ण राष्ट्र प्रेम पूर्वक उनका स्मरण करता है और इस वयोवृद्ध स्वतंत्रता सेनानी का 100वाँ जन्म दिवस मना रहा है। इनका देशभक्ति पूर्ण जोश एवं पराक्रम हम सब की प्रेरणा का प्रकाश स्तंभ है। इस अवसर पर हम उनके जीवन एवं राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम में उनके महान योगदान पर दृष्टि डालेंगे ।

श्री दर्थवामा का जन्म 15 मई 1921 को दक्षिण मिजोरम (लुंगलेई से 5 मील) में पुखपुई गाँव में हुआ था। वे अपने माता-पिता छिंग लिइया रेन्थलेई (पिता) और नुबुन्गी (माँ) की पाँच संतति में से दूसरी संतान थे। उन्होंने बैप्टिस्ट मिशन द्वारा संचालित सर्कोन मिडिल स्कूल में 7वीं कक्षा तक शिक्षा प्राप्त की। शिक्षा के प्रति उत्कंठ इच्छा शक्ति होते हुए भी अपने माता पिता की अत्यधिक कमजोर आर्थिक स्थिति तथा मिजोरम में उच्च विद्यालय न होने के कारण वे अपनी शिक्षा जारी नहीं रख सके।

सामाजिक रूप से सक्रिय, ऊर्जावान, शस्त्र कला में सहज निपुण तथा कुछ बड़ा करने को जुझारू किशोर दर्थवामा द्वितीय विश्वयुद्ध के समय 20 वर्ष के थे। उन दिनों पश्चिमी यूरोप में चलने वाला विश्व युद्ध ही मुख्य चर्चा का विषय होता था।

हर शाम युद्ध की वर्तमान स्थिति का प्रसारण होता था। श्री दर्थवामा और उनके मित्र युद्ध की नवीनतम सूचनाओं का व्यग्रता से प्रतीक्षा करते थे और सूचना प्राप्त होने पर सूक्ष्मता से अवलोकन कर आपस में चर्चा करते थे।

भारत ने ब्रिटिश उपनिवेश होने के कारण अंग्रेजों का समर्थन किया। यहाँ तक कि मिजोरम के प्रत्येक चर्च में जन प्रार्थना सभाओं में ब्रिटिश की द्वितीय विश्व युद्ध में जीत की प्रार्थना की जाती थी। अत: एक प्रकार से मिजोरम में ईसाई मिशनरी के प्रभाव से युवा इस युद्ध में ब्रिटिश की जीत के लिए सेना में जाना चाहता था।

दर्थवामा ने भी निश्चय किया कि यदि शिक्षा ग्रहण करने का अवसर नहीं मिला तो मिज़ो यूथ (Mizo Youth) द्वारा द्वितीय विश्वयुद्ध में ब्रिटिश सेना में भर्ती के लिए बुलाए जाने पर, सेना में भर्ती हो जाएँगे।

1940 में लुंगलेई में जैसे ही ब्रिटिश सेना में नवीन भर्ती की खबर फैली, दर्थवामा ने सेना में भर्ती होने की तीव्र इच्छा जताई। एक भर्ती अधिकारी लुंगलेई पहुँचा और उसने 8 अन्य युवाओं के साथ दर्थवामा का नाम भी सूची में लिख लिया ।

इन सब युवाओं को सेना के चिकित्सीय पुलिस में उपचार सिपाही के रूप में भर्ती किया गया तथा आइजोल में शारीरिक परीक्षण एवं चिकित्सीय जाँच के उपरान्त अग्रिम प्रशिक्षण हेतु लखनऊ भेजा गया।

लखनऊ में पुन: परीक्षण के उपरान्त 27 नवम्बर, 1940 को आधिकारिक रूप से भारतीय- ब्रिटिश सेना में शामिल कर लिया गया। यहाँ इनका सैनिक तथा चिकित्सीय सहायक के रूप में प्रशिक्षण पूर्ण हुआ ।

प्रशिक्षण के उपरान्त अगस्त, 1941 को मलेशिया के पेनांग भेजा गया। उसी समय जापान ने ब्रिटिश सेना पर हवाई आक्रमण से गोलाबारी शुरू कर दी। अंग्रेजों ने अधिकांश लड़ाकू विमान को यूरोपीय मोर्चे पर लगा रखा था अत: पेनांग में ब्रिटिश सेना के पास जापान से हवाई-युद्ध के लिए अपेक्षाकृत कम संसाधन थे। ब्रिटिश सेना को यहाँ से पीछे हटना पड़ा और पेनांग कुआलालम्पुर से पूरे रास्ते लड़ते हुए सिंगापुर में प्रवेश किया।

जापानी सेना ने सिंगापुर के ब्रिटिश मुख्य कार्यालय को भी ध्वस्त कर दिया। अंततः इस भीषण युद्ध के एक सप्ताह बाद, ब्रिटेन ने 15 फरवरी, 1942 को सिंगापुर जापान को सौंप दिया और यहाँ युद्ध कर रही भारतीय-ब्रिटिश सेना को भी आत्मसमर्पण करना पड़ा। परिणामत: लगभग 45000 भारतीय सैनिक जापानी सेना द्वारा सिंगापुर में युद्ध-बंदी बना लिए गए ।

इसी समय नेताजी सुभाष चन्द्र जी ने जापानी सरकार के साथ समझौते पर हस्ताक्षर किए, जिसमें जापान ने नेता जी का साथ देना का आश्वासन दिया तथा सिंगापुर में सभी भारतीय युद्ध-बंदियों को स्वतन्त्र करा लिया। तत्पश्चात सभी भारतीय सैनिकों से कैम्प में नेता जी ने भेंट की और राष्ट्र के लिए आह्वान किया।

नेता जी के इस संबोधन से प्रेरित होकर दर्थवामा अंग्रेजों से भारत की स्वतंत्रता हेतु दृढ़ संकल्पित होकर जून 1942 में आजाद हिन्द फ़ौज (INA) में सहर्ष शामिल हुए। उन्होंने फिर से यहाँ विभिन्न हथियारों का उपयोग करना सीखा और लक्ष्य शूटिंग का अभ्यास किया।

यहीं से दर्थवामा की भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए यात्रा प्रारम्भ होती है। वे 3 साल तक सिंगापुर में रहे। इस बीच, श्री दर्थवामा ने कौलामपुर प्रशिक्षण केंद्र में भी भर्ती के लिए प्रशिक्षण दिया था। उन्होंने अंग्रेजी कमांडिंग ऑर्डर को त्याग दिया और हिंदी कमांडिंग शब्दों को अपनाया ।

जापानी सेना के साथ INA एक छत्र के रूप में अंग्रेजों के विरुद्ध बर्मा (वर्तमान म्यामांर) में युद्ध हेतु पूर्ण तैयारी तथा जोश के साथ वेग से आगे बढ़ रही थी तथा कुछ ही दिनों में बर्मा को अपने अधीन कर लिया। सेना ने U-GO ऑपरेशन शुरू किया तथा आगे बढ़ते हुए इम्फाल, कोहिमा पहुँची। यहाँ अंग्रजो से सामना हुआ।

यूरोपीय पक्ष में युद्ध थोड़ा थम गया था अत: बहुत सारे युद्ध विमानों को अंग्रेजी सेना ने INA से युद्ध में लगा दिए। दुर्भाग्यवश INA को पीछे हटना पड़ा और बर्मा में इरावदी नदी के यान-आंग-यांग किनारे पर रात्री 12 बजे भीषण युद्ध हुआ।

इसी जगह युद्ध में दर्थवामा को कोहनी पर गोली लगी। उन्हें प्राथमिक चिकित्सा इकाई में ले जाया गया और फिर वह पूरी रात फिर से लड़ने के लिए युद्ध के मोर्चे पर वापस आ गए। परन्तु यहाँ हुए भीषण युद्ध-विध्वंस तथा जापान में परमाणु बम के आक्रमण के कारण सेना के पास आत्मसमर्पण करने के अलावा कोई चारा नहीं था। INA के सभी सैनिकों के साथ दर्थवामा को भी बंदी बना लिया गया।

2 मास के उपरान्त ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध युद्ध करने के अभियोग में कोलकाता में उन पर मुकद्दमा चलाया गया। अनेक मुकद्दमों तथा दोषारोपण से पीड़ित होने पर भी दर्थवामा ने अपने देश के सम्मान की रक्षा करते हुए एक वर्ष वहीं जेल में बिताया। इसके बाद उन्हें लखनऊ में स्थानांतरित कर दिया गया और वहाँ हवालात में कठोर निरीक्षण में रखा गया। ब्रिटिश सरकार ने उनके सम्पूर्ण जीवन तथा उनकी प्रत्येक गतिविधियों का विवरण एकत्रित किया और उनको दोषी सिद्ध कर दिया। इस दोषारोपण के परिणामस्वरूप उनके जेल में मिलने वाले भत्ते इत्यादि सब रोक दिए गए।

भारतीय प्रशासकों ने विविध प्रयासों से यह सिद्ध किया कि दर्थवामा कोई साजिशकर्ता नहीं हैं, बल्कि वे भारत की स्वतंत्रता के लिए लड़ रहे थे। वे हिंसा से लड़े और उन्होंने हथियारों से लड़ाई लड़ी अत: वे राजनीतिक कैदी हैं। अंततः उनको सशर्त जनवरी, 1946 में एक मुक्ति पत्र के साथ रिहा कर दिया गया। अब उनका ब्रिटिश शासनाधीन भारत में सरकार के अधीनस्थ कोई भी प्रशिक्षण, रोजगार तथा सेवा करना प्रतिबंधित हो गया था तथा वे गैर-सरकारी गतिविधियाँ करने पर भी अधिकारियों की सतत निगरानी में थे।

अंततः जब देश स्वतंत्रता हुआ तब भी नरम-दल ने देश के प्रति उनकी सेवाओं को स्वीकार नहीं किया। जब श्रीमती इंदिरा गाँधी प्रधानमंत्री बनीं, तो उनके सामने ये प्रस्ताव रखा गया। श्री दर्थवामा को तब दिल्ली में गृह विभाग में अपने स्वतंत्रता संग्राम का विवरण प्रस्तुत करने के लिए बुलाया गया था।

उनके बयानों को भी डी. सी. बैजल ने प्रमाणित किया। दिल्ली के गृह विभाग ने उनके बयानों का लखनऊ में बनाए गए दस्तावेजों से जाँच की और यह साबित किया कि उनके सभी कथन सही हैं। तत्कालीन भारत सरकार ने तब उन्हें “भारत के स्वतंत्रता संग्राम” सेनानी के रूप में स्वीकार किया। इस प्रकार अनेक प्रयत्नों के उपरान्त उनको वह पहचान मिली, जिसके वे सच्चे अधिकारी थे।

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अपना अद्भुत योगदान देने के लिए 15 अगस्त, 1972 को ‘ताम्रपत्र’ राष्ट्रीय पुरुस्कार से उनको सम्मानित किया गया तथा मिजोरम सरकार ने योद्धा-शॉल (TAWLPOH PUAN) प्रदान किया गया। गतवर्ष ही 21 जुलाई को, 99 वर्ष की उत्तम आयु में मिजोरम के लुंगलेई में पंचतत्व में विलीन हो गए। उनकी वीरता, पराक्रम एवं राष्ट्रीय स्वतंत्रता के प्रति अप्रतीम योगदान भारत को मजबूत एवं अखंड राष्ट्र हेतु सदैव प्रत्येक भारतीय के लिए प्रेरणादायक रहेगा। ऐसे राष्ट्र-प्रेमी के प्रति राष्ट्र कृतज्ञ है और उनको नमन करता है।

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डॉ. सोनिया अनसूया
डॉ. सोनिया अनसूया
Studied Sanskrit Grammar & Ved from traditional gurukul (Gurukul Chotipura). Assistant professor, Sanskrit Department, Hindu College, DU. Researcher, Centre for North East Studies.

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