Friday, October 11, 2024
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वो मराठा जो काशी के ज्ञानवापी मस्जिद को ध्वस्त कर बनाना चाहते थे शिव मंदिर, महिलाओं को दिए अधिकार: चरवाहा परिवार से मालवा के सूबेदार तक

18 जून, 1751 का वो वक्त था, जब पेशवा नाना साहेब को एक पत्र मिलता है, उसमें वाराणसी स्थित ज्ञानवापी मस्जिद को हटाकर वहाँ पर पहले से स्थापित प्राचीन काशी विश्वनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण के लिए मल्हार राव के संकल्प का उल्लेख किया गया था। जानिए इसके बाद क्या हुआ...

साल था 1721 और ऋतु थी वसंत। पेशवा को खानदेश के सुल्तानपुर में तैनात स्थानीय सैन्य बटालियन के एक पैदल सैनिक का पत्र मिला। ये पत्र था मल्हार राव होल्कर का। वहाँ गणपति फ्रेस्को के पीछे की तरफ एक शानदार गद्दी पर 21 साल के बाजीराव बैठे थे, जो कि अपने दिवंगत पिता, प्रधानमंत्री या मराठा साम्राज्य के पेशवा के पद को भरने के लिए दावेदार थे। छत्रपति शिवाजी महाराज के पोते साहूजी के तीस साल के मराठा-मुगल युद्ध के बाद स्वराज्य को एक बार फिर से बहाल किया गया था, जिसके बाद वो सातारा की गद्दी पर बैठ के छत्रपति बने थे।

अपनी युवावस्था में ही पेशवा बाजीराव ने अपने उद्देश्यों को स्पष्ट कर दिया था, दिल्ली में अगर मुगल साम्राज्य का जड़ पर वार किया जाए तो उसकी शाखाएँ अपने हाथों में आ जाएँगी।” वो पत्र जब बाजीराव के पास पहुँचा तो उसे पढ़कर उन्हें एक दृढ़ निश्चयी कमांडर की याद आ गई, जो एक बैंड का नेतृत्व कर रहा था। उसका उन्होंने अपने खानदेश के ऑपरेशन के दौरान सामना किया था। वो जानते थे कि जिस युवा ‘मल्हारी’ ने अपनी सीमाएँ पार की हैं, उसे जीवन भर के लिए उनकी ताकत बनना था। उस दिन मल्हार राव होल्कर ने बाजीराव को अपनी बटालियन में नियुक्ति के लिए पत्र लिखकर हमेशा के लिए अपना भाग्य बदल दिया था।

मल्हार राव होल्कर का मूल पत्र जिसमें बाजीराव की सहायक अंबाजी पंत को घुड़सवार सेना में प्रवेश के लिए कहा गया था

दक्कन और मराठों के दिल्ली के जगमगाते सपनों के बीच मालवा का पठार विंध्य से चित्तौड़गढ़ और पश्चिम में भोपाल से गुजरात तक फैला हुआ था। इसके भूभाग और इसके जंगलों की एल्केमी व उफनती रेवा, नर्मदा और चंबल नदियों तक मराठा साम्राज्य का युद्धक्षेत्र फैला हुआ था। पेशवा बाजीराव प्रथम के नेतृत्व में उनकी सेना में रानोजी शिंदे, उदाजी पवार और मल्हार राव होल्कर जनरलों ने पहले ही मालवा क्षेत्र में अपने लिए एक मजबूत जमीन तैयार कर ली थी।

मल्हार राव होल्कर जैसे सेनापतियों के नेतृत्व में लगातार कई युद्धों के साथ ही 1729 का मानसून आते-आते मराठा साम्राज्य यमुना नदी के तट तक पहुँच गया था। जिन भी नए क्षेत्रों पर मराठा साम्राज्य का कब्जा हुआ, उसमें से मालवा का पश्चिमी भाग शासन करने के लिए मल्हार राव होल्कर को दे दिया गया। इसके लिए उन्हें हजारों की संख्या में घुड़सवार भी दिए गए। ये वो वक्त था, जब मल्हार राव ने गौतमबाई से शादी कर ली थी। इसके बाद उन्होंने इंदौर (मध्य प्रदेश) के एक छोटे से कस्बे को अपना अड्डा बनाया और वो बाद में होल्कर साम्राज्य का गढ़ बन गया।

1730 के दशक में मल्हार राव होल्कर द्वारा निर्मित रजवाड़ा या होल्करों का आधिकारिक निवास (1857 की चित्रकारी)

बता दें कि मालवा के नए प्रशासक बने मल्हार राव होल्कर ‘धनगढ़’ के चरवाहा परिवार से ताल्लुक रखते थे। ये पशु-पालन करने वाली जाति थी और इसमें एक परंपरा चलती थी कि धनगढ़ में परिवार की कुल संपत्ति का एक चौथाई हिस्सा महिलाओं को उनकी निजी संपत्ति के तौर पर दे दिया जाता था। मल्हार राव होल्कर मराठा सम्राज्य के सूबेदार थे और उन्होंने इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए जनवरी 1734 में पेशवाओं से मिले धन (सरंजम) को दो भागों में बाँटने का फैसला किया। इसमें से पहला हिस्सा दौलत (कमाई) औऱ दूसरा खज्जी (महिलाओं की निजी संपत्ति) थी। मल्हार राव होल्कर ने कुल संपत्ति का एक चौथाई हिस्सा अपनी तीनों पत्नियों गौतमबाई, द्वारकाबाई और बानाबाई को सम्मान स्वरूप दे दिया।

इस नेक परंपरा के तहत पेशवा ने गौतमबाई होल्कर को मालवा में महेश्वर, सांवेर और देपालपुर का क्षेत्र और महाराष्ट्र का चंदवाड़, अंबाद और कोरेगाँव के गाँवों को दिया। इन सभी क्षेत्रों से कुल मिलाकर 3 लाख रुपए का राजस्व प्राप्त होता था। देखा जा सकता था कि होल्कर महिलाओं ने इस आय का इस्तेमाल मंदिरों के बुनियादी ढाँचे, वाराणसी, सोमंत और रामेश्वरम तक घाटों का निर्माण करने के लिए किया। दरअसल, मल्हार राव अपनी पत्नियों को उनका अधिकार हर कीमत पर देना चाहते थे। इसी बीच मल्हार राव ने राजपूत वंश से ताल्लुक रखने वाली हरकू बाई से शादी की। ये उनकी चौथी पत्नी थीं। मल्हार राव ने उन्हें भी वो सभी अधिकार दिए जो बाकियों को दिए गए थे।

अहिल्याबाई का मार्गदर्शन

होल्कर वंश की सबसे अधिक प्रसिद्ध रानियों में अहिल्याबाई का नाम लिया जाता रहा है। उन्हें भारतीय इतिहास में उस पवित्र रानी के रूप में जाना जाता है, जिन्होंने मंदिरों का संरक्षण और उनका जीर्णोद्धार किया। 1733 में वो मल्हारराव की पहली पत्नी गौतमबाई के बेटे खांडेराव की पत्नी बनीं। किवदंती है कि मल्हार राव जब पुणे के दौरे पर गए थे तो उसी दौरान उन्होंने 8 साल की अहिल्या को शिव मंदिर में पूजा करते देखा था। उसी दौरान उन्होंने अहिल्या को अपनी पुत्रवधू बनाने का फैसला किया था। बाद में जब अहिल्या की शादी खांडेराव से हुई तो मल्हार राव ने उन्हें शाही निवास में हो रहे कुछ प्रशासनिक कार्यों की देखरेख का जिम्मा दिया।

जल्द ही अहिल्याबाई ने पत्राचार के जरिए पारित किए जाने वाले पत्रों पर नजर रखनी शुरू की। एक साल के भीतर ही वो पति खांडेराव के साथ सामरिक क्षेत्रों में जाने लगीं और वहाँ उन्होंने युद्ध क्षेत्र में होने वाली घटनाओं को करीब से समझा। मल्हार राव की ही तरह उनकी सास गौतमबाई ने भी उन्हें उस वक्त की राजनीति का ज्ञान दिया। घर के मुखिया के नेतृत्व में अहिल्या दिन पर दिन बढ़ रही थीं, उन्हें उस वक्त की अलग-अलग योजनाओं के बारे में पता चला।

इस बीच 1754 में मराठा सेना ने कुम्भेरी में सूरजमल जाट के किले का घेराव किया। उसी दौरान तोप का एक गोला खांडेर राव के ऊपर गिरा और वो उनकी मृत्यु हो गई। पति की मृत्यु के बाद अहिल्या उनकी चिता में सती होने जा रही थीं, लेकिन ससुर मल्हार राव ने उनकी पीठ पर हाथ रखा और उन्हें ऐसा करने से रोका। उन्होंने अहिल्याबाई में कल की आशा को देखा। दरअसल, उन्होंने (अहिल्या बाई) अपनी सह-पत्नियों पार्वतीबाई और सूरतबाई को दो नर्तकियों और खांडेर राव की सात अन्य महिलाओं को शाम के समय चिता में सती होते देखा था।

उस दौरान अहिल्याबाई केवल 29 वर्ष की थीं। उनके पास राज्य के लोगों की देखभाल करने के लिए उनके ससुर थे। यही उनके लिए उपयुक्त समय था कि वो आगे आएँ। जब उनके ससुर मल्हार राव कर वसूलने के लिए ग्रामीण इलाकों में गए तो उन्होंने पड़ोसी राज्यों से भी मुलाकात की। ससुर की अनुपस्थिति में अहिल्याबाई राजधानी में सारे कामकाज देखती थीं। वित्तीय लेनदेन से जुड़े बही-खातों की जाँच करने, राजकीय पत्राचार और राजकाज से जुड़े अन्य मुद्दों का समाधान करने में सक्षम थीं।

आलमपुर में मल्हार राव होल्कर की समृति में अहिल्या बाई द्वारा बनवाई गई छतरी

मल्हार राव ने अहिल्याबाई को एक पत्र लिखा था, जो कि इस बात के प्रमाण हैं कि किस तरह से उन्होंने अहिल्या में एक बेटी, संरक्षक और अपनी विरासत को आगे बढ़ाने वाली के तौर पर देखा। 1766 में मल्हार राव की मृत्यु हो गई, जिसके बाद अहिल्याबाई ने उनकी स्मृति में आलमपुर में एक छतरी का निर्माण कराया। अहिल्याबाई को ये पता था कि मल्हार राव का नाम उनके कुल देवता मल्हारी मार्तंड या जेजुरी के खंडोबा के नाम पर रखा गया था, जिन्हें भगवान शिव का ही रूप माना जाता था। इसी को ध्यान में रखते हुए उन्होंने कई स्थानों पर मल्हारेश्वर और मार्तंडेश्वर नाम से कई शिव मंदिरों का निर्माण करवाया। यहीं नहीं, मल्हार राव की खज्जी परंपरा को देखते हुए अहिल्याबाई ने बाद में अपने निजी खर्च से मंदिरों, तीर्थ स्थलों, कुओं, घाटों और विश्राम गृहों के पुनर्निर्माण और संरक्षण किया।

मराठा साम्राज्य के प्रतीक

1740 में बाजीराव की मौत के बाद मल्हार राव ने अपने 17वीं सदी के 60 के दशक में मराठा राजनीति के साथ ही समूचे हिंदुस्तान में एक अनुभवी सेनापति का सम्मान हासिल किया। इसे इस तरह समझा जा सकता है कि राजपूताना राज्यों में उनकी पकड़ काफी मजबूत थी और उन्हें माधो सिंह और ईश्वरी सिंह के बीच विवाद सुलझाने के लिए अक्सर जयपुर बुलाया जाता था। 1757 में वो रघुनाथ राव के साथ अटक के अभियान पर गए और वहाँ दिल्ली को अपना बेस बनाकर उन्होंने 1758 में सरहिंद पर कब्जा कर लिया। पानीपत की तीसरी लड़ाई के दौरान मध्य भारत के राजाओं के साथ गठबंधन पर हस्ताक्षर करने में उनकी भूमिका कूटनीतिक इतिहास में दर्ज है।

18वीं शताब्दी में भारत में मराठा साम्राज्य

18 जून, 1751 का वो वक्त था, जब पेशवा नाना साहेब को एक पत्र मिलता है, उसमें वाराणसी स्थित ज्ञानवापी मस्जिद को हटाकर वहाँ पर पहले से स्थापित प्राचीन काशी विश्वनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण के लिए मल्हार राव के संकल्प का उल्लेख किया गया था। पत्र में लिखा था, “मल्हार राव ने दोआब क्षेत्र में अपना मानसून शिविर लगाया है और वो औरंगजेब द्वारा बनाई गई ज्ञानवापी मस्जिद को ढहाकर काशी विश्वेश्वर के मूल मंदिर का पुनर्निर्माण करना चाहते हैं।” पत्र को पढ़ने के बाद पेशवा नानासाहेब को ने इस बात को महसूस किया कि इस क्षेत्र में मराठों का प्रत्यक्ष नियंत्रण नहीं है, ऐसे में मस्जिद को ढहाने का अर्थ ये है कि अवध के नवाब हिन्दुओं को और प्रताड़ित करने लगेंगे। ऐसे में उन्होंने संयम बरतने का आदेश दिया। बाद में 1780 में अहिल्याबाई ने मस्जिद के किनारे पर नया काशी विश्वनाथ मंदिर बनवाया और वहाँ पर फिर भगवान शिव की पूजा शुरू की।

1780 में अहिल्याबाई होल्कर द्वारा काशी विश्वनाथ पुनर्निमाण कराया गया

मल्हार राव के लंबे शासन के कारण उन्हें मध्य भारत के वास्तुकार के तौर पर भी जाना जाता है। उन्होंने पेशवा बाजीराव के सपने और शिवाजी महाराज के स्वराज्य को एक साम्राज्य के तौर पर साकार करने में अहम भूमिका निभाई। मल्हार राव नारीवादी या पितृसत्तात्मक के तौर पर दो आधार पर मूल्यांकन से परे वो अपने पूरे जीवन में महिला सशक्तिकरण के प्रतीक बने रहे। यहीं नहीं उन्होंने अपनी अंतिम साँस तक पेशवाओं की सेवा की और मराठा साम्राज्य के दौरान बहुत प्रभाव छोड़ने वाले शासकों में अपना स्थान सुनिश्चित किया।

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