प्रत्येक स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस के अवसर पर देश में उत्साह चरम पर होता है, खासकर बच्चों में राष्ट्रध्वज तिरंगा के प्रति प्यार देखते ही बनता है और देशभक्ति गानों से वातावरण जोशीला हो उठता है। ये समय होता है बलिदानी स्वतंत्रता सेनानियों को नमन करने का, ये अवसर होता है इस देश को अखंड बनाए रखने का संकल्प लेने का, ये मौका होता है इस मिट्टी की महक में रम जाने का। लेकिन, साजिद रशीदी जैसे कुछ मौलाना होते हैं जो इस मौके का इस्तेमाल घृणा फैलाने के लिए करते हैं और ‘भारत माता की जय’ नारे को इस्लाम में ‘हराम’ बताते हैं।
वहीं अरफ़ा खानम शेरवानी जैसी कट्टर इस्लामी पत्रकार इस मौके का इस्तेमाल करती हैं ये कहने के लिए कि RSS ने कभी राष्ट्रध्वज तिरंगा नहीं फहराया, इसीलिए वो देशभक्त संगठन नहीं है। वो इस दौरान कहती हैं कि मुस्लिमों ने भारत को अपनी मातृभूमि के रूप में चुना, लेकिन सांप्रदायिक रूप से उन्हें परेशान करने वाले लोग आज ‘राष्ट्रवाद’ की बात करते हैं। इस दौरान प्रपंची पत्रकार ये भूल जाती हैं कि राष्ट्रध्वज को न फराना अलग बात है और इसके लिए जान दे देना दूसरी बात।
आइए, आपको एक पुराने किस्से के जरिए समझाते हैं उदाहरण देकर। बात है 1936 की। तब महाराष्ट्र के जलगाँव स्थित फैज़पुर में कॉन्ग्रेस का अधिवेशन आयोजित हुआ था। ये इसीलिए भी महत्वपूर्ण था, इसके 2 कारण हो सकते हैं – पहला, ये INC का 50वाँ सेशन था और दूसरा, पहली बार किसी ग्रामीण इलाके में कॉन्ग्रेस के अधिवेशन का आयोजन हुआ। ये वो समय था जब कॉन्ग्रेस पार्टी जनता की माँगों की तरफ बढ़ रही थी, इसीलिए इसमें जो ‘किसान मैनिफेस्टो’ पारित किया गया उसमें खेती की जमीनों पर टैक्स कम करने समेत किसान संघों को मान्यता देने और लेवी वसूली खत्म करने की माँग की गई।
यावल तालुका में स्थित फैज़पुर में अपने अध्यक्षीय संबोधन में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने समाजवाद को अपनाने और पूँजीवाद को हराने की बातें की। पहली बार इसमें ‘ऑल इंडिया किसान सभा’ की सहभागिता रही। ये वो समय था जब कॉन्ग्रेस ‘स्वराज ध्वज’ का इस्तेमाल करती थी, जिसे 1931 में अपनाया गया था। इसमें सबसे ऊपर केसरिया रंग था, उसके नीचे सफ़ेद और सबसे नीचे हरा। आज भी यही है। लेकिन, तब चक्र की जगह इसमें चरखा बना होता था।
जिस वाकये की हम बात कर रहे हैं, उसका जिक्र पुडुचेरी के उप-राज्यपाल रहे पत्रकार एवं इतिहासकार केवल रतन मलकानी ने अपनी पुस्तक ‘The RSS Story‘ में किया है। जब कॉन्ग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू झंडा फहराने लगे, उस दौरान झंडा अचानक से ऊपर ही फँस गया। बता दें कि झंडा फहराने को ‘Flag Unfurling’ कहते हैं, इसमें झंडा पहले ही स्तम्भ के ऊपरी हिस्से की तरफ बँधा होता है और नीचे से ऊपर नहीं जाता है। राष्ट्रपति गणतंत्र दिवस (26 जनवरी) को झंडा फहराती हैं, वहीं प्रधानमंत्री स्वतंत्रता दिवस (15 अगस्त) को ध्वजारोहण करते हैं।
खैर, तो जब जवाहरलाल नेहरू झंडा फहराने चले तो झंडा ऊपर से रस्सी के साथ अटक गया और इससे उनकी बेइज्जती भी हो गई। तभी किशन सिंह नाम का एक युवा आगे आया और उसने 80 फुट ऊँचे झंडे के पोल पर चढ़ कर उसे ठीक किया। हजारों लोगों ने ताली बजा कर उसकी प्रशंसा की, ‘वाह-वाह’ से कॉन्ग्रेस का अधिवेशन गूँज उठा। खुले अधिवेशन में उसे सम्मानित किए जाने की भी बात की गई। लेकिन, तभी पता चला कि किशन सिंह नाम वो राजपूत युवक RSS (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) से जुड़ा हुआ है।
चूँकि वो ‘संघी’ निकला, इसीलिए उसे सम्मानित करने का विचार त्याग दिया गया। RSS के संस्थापक और तत्कालीन सरसंघचालक डॉ KB हेडगेवार को ये ठीक नहीं लगा और उन्होंने धुलिया के देवपुरा शाखा में किशन सिंह को बुला कर सार्वजनिक रूप से सम्मानित किया और उन्हें चाँदी का कप सौंपा। उस समय कॉन्ग्रेस का ध्वज ही स्वतंत्रता का और देश का ध्वज माना जाता था, ऐसे में एक संघी ने झंडे का सम्मान बचाया। ‘RSS राष्ट्रध्वज से घृणा करता है’ – ये एजेंडा फ़ैलाने वाले इस घटना पर कुछ बोलेंगे?
ये घटना कहती है कि RSS द्वारा राष्ट्रध्वज को तब न फहराया जाता विभिन्न संगठनों और स्वतंत्रता सेनानियों के बीच झंडे के स्वरूप को लेकर मतभेद का एक रूप हो सकता है, लेकिन फिर भी RSS स्वीकृत झंडे के सम्मान को लेकर इतना प्रतिबद्ध था कि एक संघी ने 80 फुट चढ़ कर झंडा और नेहरू दोनों की लाज बचाई। असल में 1931 में कॉन्ग्रेस के कराची अधिवेशन में ध्वज के लिए जो समिति बनाई गई थी, उसने तो भगवा झंडे का ही प्रस्ताव दिया था जिसे नकार दिया गया था।
उस समिति में तत्कालीन कॉन्ग्रेस अध्यक्ष और भविष्य में आज़ाद भारत के गृह मंत्री बनने वाले सरदार वल्लभभाई पटेल, ‘खिलाफत आंदोलन’ के नेता व आज़ाद भारत के पहले शिक्षा मंत्री बनने वाले मौलाना अबुल कलम आज़ाद, ‘शिरोमणि अकाली दल’ (SAD) के अध्यक्ष रहे मास्टर तारा सिंह, ‘गुजरात विद्यापीठ’ के तत्कालीन कुलपति एवं लेखक काका कालेलकर, अमेरिका से पढ़ कर लौटे ‘कॉन्ग्रेस सेवा दल’ के संस्थापक NS हार्डिकर, आंध्र प्रदेश के नेता पट्टाभि सीतारमैया और खुद नेहरू भी शामिल थे।
आपको पता है इस समिति ने क्या प्रस्ताव दिया था? इस समिति ने प्रस्ताव दिया था कि राष्ट्रध्वज केसरिया रंग का होना चाहिए, जिसमें बाईं तरफ ऊपर कोने में नीले रंग में चरखा होना चाहिए। हालाँकि, सांप्रदायिक दबाव में आकर कॉन्ग्रेस ने उस झंडे को स्वीकार नहीं किया। बाद में लाल रंग को केसरिया से स्थानांतरित कर दिया गया और उसे सबसे ऊपर कर दिया गया। फिर भी, संघ ने कॉन्ग्रेस द्वारा चुने गए झंडे का सम्मान किया। जहाँ तक बात ध्वज की है, RSS का अपना भगवा ध्वज है और दिसंबर 1934 में महात्मा गाँधी भी उसे सैल्यूट कर चुके हैं।
ये उस समय के स्वतंत्रता सेनानियों और संगठनों में परस्पर सम्मान की भावना का उदाहरण है। RSS के अध्यक्ष डॉ KB हेडगेवार ने महात्मा गाँधी के नमक सत्याग्रह में भी हिस्सा लिया था। संघ के लोग स्वतंत्रता के विभिन्न आंदोलनों में शामिल थे। प्रपंची अक्सर RSS द्वारा एक संगठन के रूप में कॉन्ग्रेस के हर फैसले में साथ न रहने का आरोप लगाते हैं, लेकिन ये भूल जाते हैं कि कभी सुभाष चंद्र बोस से लेकर चंद्रशेखर आज़ाद जैसे बलिदानियों की राहें भी कॉन्ग्रेस से जुदा थीं और RSS राष्ट्र-निर्माण का संगठन रहा है, राजनीतिक नहीं।