अयोध्या विवाद में फैसले की घड़ी आ गई है। आज (9 नवंबर 2019) सुबह 10:30 बजे सुप्रीम कोर्ट अपना फैसला सुनाएगा। मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई के नेतृत्व वाली संविधान पीठ ने 16 अक्टूबर को सुनवाई पूरी कर फैसला सुरक्षित रख लिया था। पाँच सदस्यीय पीठ ने छह अगस्त से लगातार 40 दिन इस मामले की सुनवाई की थी। पीठ में मुख्य न्यायाधीश के अलावा जस्टिस एसए बोबडे, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस एसए नजीर शामिल हैं।
शीर्ष अदालत में चली सुनवाई के दौरान जो तथ्य उभरकर सामने आए थे उससे राम मंदिर के हक में फैसला आने की उम्मीद है। ऐसा हुआ तो यह पहला मौका नहीं होगा जब विवादित ढॉंचे पर हिंदुओं का हक होने के दावे पर मुहर लगेगी। हाई कोर्ट ने भले अपने फैसले में जमीन को तीन हिस्सों में बॉंट दिया था, लेकिन विवादित स्थल को रामजन्भूमि ही माना था। अंग्रेजों के जमाने में भी अदालत ने मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाने की बात मानी थी, लेकिन इस घटना के 356 साल पुरानी होने का हवाला देकर यथास्थिति बनाए रखने का आदेश दिया था।
विवादों का सिलसिला
इस पूरे विवाद की शुरुआत 1528 से होती है जब बाबर के सेनापति मीर बाकी ने अयोध्या में भगवान राम के जन्मस्थान पर मस्जिद का निर्माण करवाया। हेमंत शर्मा ने अपनी किताब ‘युद्ध में अयोध्या’ में बताया है कि 1528-1731 के बीच इस स्थान पर कब्जे को लेकर हिंदू और मुगलों के बीच 64 बार संघर्ष हुए। फैजाबाद अदालत के मुलाजिम हफीजुल्ला ने 1822 में सरकार को भेजी एक रिपोर्ट में भी कहा था कि राम के जन्मस्थान पर मस्जिद बनवाई गई है। दोनों मजहबों के बीच तनाव को देखते हुए 1859 में ब्रिटिश हुकूमत ने इस जगह की घेराबंदी कर दी। अंदर का हिस्सा नमाज के लिए और बाहर का हिस्सा हिंदुओं को पूजा के लिए दिया गया।
अदालत में विवाद
अदालत में इस जगह मंदिर बनवाने की माँग पहली बार 15 जनवरी 1885 को पहुॅंची। महंत रघुबर दास ने केस फाइल किया। उन्होंने राम चबूतरा पर एक मंडप बनाने की इजाजत माँगी। 24 फरवरी 1885 को फैजाबाद की जिला अदालत ने उनकी अर्जी यह कहते हुए खारिज कर दी कि वह जगह मस्जिद के बेहद करीब है। लेकिन, जज ने अपने फैसले में माना कि चबूतरे पर रघुबर दास का कब्जा है। उन्हें एक दीवार उठाकर चबूतरे को अलग करने को कहा। इसके बाद महंत रघुबर दास ने 17 मार्च 1886 को फैजाबाद के जिला जज कर्नल एफईए कैमियर की अदालत में अपील दायर की। कैमियर ने अपने फैसले में कहा, “मस्जिद हिंदुओं के पवित्र स्थान पर बनी है। पर अब देर हो चुकी है। 356 साल पुरानी गलती को सुधारना इतने दिनों बाद उचित नहीं होगी। यथास्थिति बनाए रखें।”
प्रकट हुए रामलला
22-23 दिसंबर 1949 की दरम्यानी रात विवादित ढाँचे में रामलला की मूर्ति प्रकट हुई। मामला अदालत में पहुॅंचा और सरकार ने इलाके को विवादित घोषित कर इमारत की कुर्की के आदेश दिए। लेकिन, पूजा-अर्चना जारी रही। इस घटना के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने मूर्ति हटाने का निर्देश प्रदेश की तत्कालीन सरकार को दिया था। लेकिन, फैजाबाद के तत्कालीन जिलाधिकारी केकेके नायर के अड़ने के कारण ऐसा नहीं हो पाया।
ढॉंचे में चोरी-छिपे मूर्ति रखने का दावा करते हुए सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड ने 1961 में याचिका दायर की। उसने कहा कि मस्जिद और उसके आसपास की जमीन एक कब्रगाह है, जिस पर उसका दावा है।
काले बंदर की प्रेरणा से आदेश, 40 मिनट में तामील
फैजाबाद की अदालत ने 1 फरवरी 1986 को इमारत का ताला खोलने का आदेश दिया। हेमंत शर्मा ‘युद्ध में अयोध्या’ में लिखते हैं कि शाम के 4:40 में जज ताला खोलने का आदेश देते हैं और शाम 5:20 मिनट पर ताला खुल गया। जिला जज कृष्णमोहन पांडेय ने यह फैसला वकील उमेश चंद्र पांडेय की अर्जी पर दिया था। बकौल उमेश चंद्र पांडेय, “हमें इस बात का अंदाजा नहीं था कि सब कुछ इतनी जल्दी हो जाएगा।” जज कृष्णमोहन पांडेय ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, “जिस रोज मैं ताला खोलने का आदेश लिख रहा था, मेरी अदालत की छत पर एक काला बंदर पूरे दिन फ्लैग पोस्ट को पकड़कर बैठा रहा। जो फैसला सुनने अदालत में आए थे, उस बंदर को फल और मूॅंगफली देते रहे पर बंदर ने कुछ नहीं खाया। चुपचाप बैठा रहा। फैसले के बाद जब मैं घर पहुॅंचा तो उस बंदर को अपने बरामदे में बैठा पाया। मुझे आश्चर्य हुआ। मैंने उसे प्रणाम किया। वह कोई दैवीय ताकत थी।” उनके फैसले के खिलाफ 3 फरवरी 1986 को हाशिम अंसारी ने हाई कोर्ट में अपील की। हाई कोर्ट ने 14 अगस्त 1989 को यथास्थिति बरकरार रखने के निर्देश दिए।
ताला किसके आदेश से लगा था?
‘युद्ध में अयोध्या’ के मुताबिक ताला किसके आदेश से और कब लगा था यह किसी को पता नहीं। इस बात का कहीं कोई आदेश भी नहीं मिलता। स्थानीय लोगों की मानें तो ताला 1971 में लगा था। पूरे मामले का कानूनी पहलू यह था कि यह जगह एक ‘रिसीवर’ के अधिकार क्षेत्र में था। 1949 में अदालत ने संपत्ति को कुर्क कर प्रिया दत्त राम को ‘रिसीवर’ बनाया था। 1971 में उनकी मौत हो गई। इसके बाद नए ‘रिसीवर’ और निर्मोही अखाड़े के बीच विवाद खड़ा हो गया। पुलिस ने दखल दिया और ताला लगाकर चाबी अपने पास रख ली। तब भी एक दरवाजा भोग लगाने और प्रार्थना के लिए हमेशा खुला रहता था। यानी यह जगह कभी पूरी तरह ताले में बंद ही नहीं रही।
हाई कोर्ट ने माना विवादित स्थल ही रामजन्मभूमि
अप्रैल 2002 में हाई कोर्ट की तीन सदस्यीय बेंच ने इस बात पर सुनवाई शुरू की कि विवादित स्थल पर किसका अधिकार है। 30 सितंबर 2010 को वह ऐतिहासिक फैसला आया जिसने काफी हद तक इस विवाद की तस्वीर और तकदीर दोनों साफ कर दी। इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ पीठ ने विवादित स्थल को रामजन्मभूमि घोषित किया। 2.77 एकड़ जमीन को तीन हिस्सों में बाँट दिया। जहाँ रामललला की मूर्ति स्थापित है, वह जगह रामलला विराजमान को मिली। राम चबूतरा और सीता रसोई वाला दूसरा हिस्सा निर्मोही अखाड़े को दिया। तीसरा हिस्सा सुन्नी वक्फ बोर्ड को मिला। फैसले में स्पष्ट रूप से कहा गया कि विवादित ढाँचा ही भगवान राम का जन्मस्थान है।
फैसले का आधार
हाई कोर्ट ने फैसले का आधार भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की रिपोर्ट को माना। इसके अलावा भगवान राम का जन्मस्थान होने की मान्यता को भी आधार माना गया। हाई कोर्ट ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को खुदाई का आदेश 2003 में दिया था। खुदाई के बाद एएसआई ने 22 सितंबर 2003 को अपनी 574 पन्नों की रिपोर्ट हाई कोर्ट को सौंपी। हेमंत शर्मा ने अपनी किताब ‘युद्ध में अयोध्या’ और ‘अयोध्या का चश्मदीद’ में इसका विस्तार से ब्यौरा दिया है। वे लिखते हैं, “एएसआई ने कुल 90 खाइयाँ खोदीं। पूरे क्षेत्र को पॉंच हिस्सों में बॉंटा। इनमें पूर्वी, दक्षिणी, पश्चिमी, उत्तरी क्षेत्र और उभरा हुआ प्लेटफॉर्म शामिल था। सभी क्षेत्रों में क्रमवार खुदाई हुई, जिससे ढॉंचों की प्रकृति और उसकी सांस्कृतिकता का अंदाजा लगे। जो अवशेष मिले, उससे साबित होता था कि वहाँ 11वीं शताब्दी का हिंदू मंदिर था।”
खुदाई के दौरान निष्पक्षता और पारदर्शिता को लेकर सवाल नहीं उठे, इसके भी बकायदा इंतजाम किए गए थे। हेमंत शर्मा ने इसका ब्यौरा देते हुए लिखा है, “समूची खुदाई और ढॉंचों के अभिलेखीकरण की पूरी प्रक्रिया की वीडियोग्राफी की गई। खुदाई न्यायिक पर्यवेक्षकों, वकीलों और संबंधित पक्षों या उनके नामित व्यक्तियों की मौजूदगी में संपन्न हुई। खुदाई में पारदर्शिता हो, इस खातिर सारी उत्खनित सामग्री दोनों पक्षों की मौजूदगी में ही सील की जाती थी। इसे उसी दिन फैजाबाद के कमिश्नर की ओर से उपलब्ध कराए गए स्ट्रांग रूम में रखा जाता था। हर रोज इस स्ट्रांग रूम को बंद करने के बाद सील किया जाता था।”
दिसंबर 2010 में अखिल भारतीय हिंदू महासभा और सुन्नी वक्फ बोर्ड ने हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। मई 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के आदेश पर रोक लगाते हुए यथास्थिति बनाए रखने को कहा। शीर्ष अदालत ने 21 मार्च 2017 को मामले को संवेदनशील बताते हुए सभी पक्षों से एक राय बनाकर अदालत से बाहर समाधान ढूॅंढ़ने को कहा। सुप्रीम कोर्ट ने 14 मार्च 2018 को सभी 32 हस्तक्षेप अर्जियों को खारिज कर दिया। इसके बाद इस मामले में वही पक्षकार बचे जो इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले में शामिल थे। मध्यस्थता प्रक्रिया नाकाम होने के बाद 6 अगस्त 2019 से मामले की रोजाना सुनवाई शुरू हुई।
अब वह घड़ी आ गई है जिसका देश को दशकों से इंतजार है। शीर्ष अदालत के फैसले से पता चल जाएगा कि रामलला का वनवास खत्म होता है या नहीं!