Sunday, November 17, 2024
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भाई तारू सिंह की उखाड़ ली गई थी खोपड़ी, 25000 सिखों का नरसंहार: बाबरी से 57 साल पहले लाहौर में ढहा था ‘ढाँचा’

यहाँ मुगलों ने एक चौराहे को हिंदुओं और सिखों की प्रताड़ना का अड्डा बना लिया था, ताकि लोग इसे देख कर डरें। बड़े पैमाने पर यहाँ सिखों का कत्लेआम हुआ, जिन्होंने इस्लाम अपनाने से इनकार कर दिया था। उन्हें सार्वजनिक रूप से मार डाला जाता था। भाई तारू सिंह जी का बलिदान भी यहीं पर हुआ।

भारत के इतिहास में एक से बढ़ कर एक योद्धा हुए हैं, जिन्होंने धर्म को बचाने के लिए अपना बलिदान दे दिया लेकिन इस्लामी आक्रांताओं के सामने झुके नहीं। उन्हीं में से एक नाम भाई तारू सिंह जी का भी है। लाहौर में आज भी ‘गुरुद्वारा शहीद गंज भाई तारू सिंह जी शहीदी स्थान’ उनके बलिदान की याद दिलाता है। हालाँकि, पाकिस्तान सरकार और वहाँ के कट्टरपंथियों की साजिश है कि इस गुरुद्वारे को मस्जिद में बदल दिया जाए।

इसके लिए वो लगातार लगे भी रहते हैं। तारू सिंह के बारे में हम आपको आगे बताएँगे, लेकिन उनके बारे में इतना जा लीजिए कि इस्लाम न कबूल करने पर उनकी खोंपड़ी उखाड़ ली गई थी। उन्होंने अपने बाल कटवाने से इनकार कर दिया था, जिसके बाद पंजाब के मुगल सरदार जकरिया खान ने उन्हें भीषण प्रताड़ना दी थी। उन्होंने राष्ट्र, सिख धर्म और खालसा पंथ के लिए खुद को बलिदान कर दिया।

जुलाई 2020 में भारत सरकार ने पाकिस्तान की सरकार के समक्ष कड़ा विरोध दर्ज कराया था कि ‘गुरुद्वारा शहीद गंज भाई तारू सिंह शहीदी स्थान’ को मस्जिद में परिवर्तित करने के प्रयास न किए जाएँ। ये गुरुद्वारा लाहौर के नौलखा बाजार में स्थित है। पंजाब के राजनीतिक दलों व ‘शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमिटी’ ने भी इसके खिलाफ आवाज उठाई थी। पाकिस्तान के लोग अब भी मानते हैं कि यहाँ जो मस्जिद हुआ करती थी, उसे सिखों ने जबरदस्ती छीन ली।

पटियाला स्थित ‘पंजाब विश्वविद्यालय’ द्वारा प्रकाशित ‘सिख इनसाइक्लोपीडिया’ के अनुसार, अमृतसर स्थित फुला गाँव में तारू सिंह जी का जन्म एक संधु जाट परिवार में हुआ था। वो एक कृषक थे और अपनी कमाई का इस्तेमाल सिख समुदाय के लिए करते थे। सिख समुदाय तब मुगलिया प्रताड़ना के खिलाफ युद्ध लड़ रहा था, जिसमें वो मदद करते थे। लाहौर के मुगलिया सरदार ज़करिया खान ने उन्हें इस्लाम चुनने को कहा। ऐसा न करने पर उनकी खोपड़ी उखाड़ ली गई।

1 जुलाई, 1745 को मात्र 25 वर्ष की आयु में उन्हें मार डाला गया था। जिस जगह पर उन्हें प्रताड़ित कर के उनकी हत्या कर दी गई थी, वही जगह आज ‘गुरुद्वारा शहीद गंज भाई तारू सिंह जी शहीदी स्थान’ के नाम से जाना जाता है। सिख समुदाय के इतिहास के अनुसार, जकरिया खान की मौत भाई तारू सिंह से पहले ही हो गई थी। उसने उनसे माफी भी माँगी थी। साथ ही उनके जूते से खुद को मारा भी था।

इस स्थल को वहाँ के 4 ऐतिहासिक स्थानों में गिना जाता है, जिसमें शहीद गंज मस्जिद (जो अब मौजूद नहीं है), दरबार हजरत शाह काकू चिश्ती (दरगाह) और गुरुद्वारा शहीद गंज सिंह (सिंघानियाँ) शामिल हैं। सिख समुदाय की काफी पहले से ही माँग थी कि यहाँ मस्जिद नहीं होनी चाहिए और अंग्रेजों का शासन आने के बाद उन्होंने अदालत में इसकी लड़ाई भी लड़ी। इस मस्जिद को शाहजहाँ के राज में बनवाया गया था।

सन् 1720 के दशक में अब्दुल्ला खान नाम के बादशाही खानसामे ने इस मस्जिद को बनवाया था। यहाँ मुगलों ने एक चौराहे को हिंदुओं और सिखों की प्रताड़ना का अड्डा बना लिया था, ताकि लोग इसे देख कर डरें। बड़े पैमाने पर यहाँ सिखों का कत्लेआम हुआ, जिन्होंने इस्लाम अपनाने से इनकार कर दिया था। उन्हें सार्वजनिक रूप से मार डाला जाता था। भाई तारू सिंह जी का बलिदान भी यहीं पर हुआ।

1760 का दशक आते-आते सिख यहाँ प्रभावी हो गए और सिखों का शासन भी या गया। ‘भंगी मिसल सिख सेना’ ने इस इलाके से इस्लामी आक्रांताओं को भगाया। कहा जाता है कि इसके बाद यहाँ नमाज पढ़नी भी बंद हो गई थी। इसके बाद यहाँ के गुरुद्वारे को बड़ी जागीर भी मिली। महाराज रणजीत सिंह के काल में सिख और गुरुद्वारे, दोनों काफी फले-फूले। कुछ दिनों बाद यहाँ पर एक दरगाह भी बन गया।

यहाँ से कुछ ही दूरी पर एक गुरुद्वारा पहले से ही स्थित है, जहाँ 18वीं शताब्दी में हुए सिखों के नरसंहार को याद करते हुए बलिदानियों को श्रद्धांजलि दी जाती है। लेकिन, इन सबके बीच मस्जिद का होना सिख समुदाय को काफी खला। 1935 में शहीदी स्थान पर खड़े उस मस्जिद को सिख समुदाय ने ध्वस्त कर दिया। आज भी उस मस्जिद के अवशेष हैं और उनके ध्वस्त गुंबद भी दिखाई देते हैं।

सिखों ने अदालत में मामला अपने हक में जीतने के बाद ही इस मस्जिद को ध्वस्त किया था। कई इतिहासकार कहते हैं कि वहाँ मस्जिद थी, इसका कोई प्रमाण ही नहीं है। लेकिन, मुगल यहीं पर सिख महिलाओं और बच्चों की हत्याएँ करते थे। 1880 के दशक से ही इस स्थान को लेकर सिख और मुस्लिम समुदाय के बीच संघर्ष शुरू हो गया था। 7 जुलाई, 1935 को अंग्रेज अधिकारियों की मौजूदगी में मस्जिद को ध्वस्त किया गया।

जहाँ पर ये गुरुद्वारा स्थित है, वहाँ पर कभी मुगल शहजादा दारा शिकोह भी आया करता था और ये उसका पसंदीदा स्थानों मे से एक था। लाहौर के एक अन्य मुगल सरदार मीर मन्नू ने भी यहाँ सिखों का कत्लेआम किया था। उसे 25,000 सिखों के नरसंहार का जिम्मेदार माना जाता है। हरमंदिर साहिब के मणि सिंह की हत्या भी यहीं हुई थी।औरंगजेब के काल में भी अंतिम सिख गुरु गोविंद सिंह ने मुगलों से कई युद्ध लड़े थे।

कहानी भाई तारू सिंह जी की

एक बार की बात है कि अपने इसी स्वभाव के कारण भाई तारू सिंह जी एक रहीम बख्स नाम के मछुआरे की मदद की। पहले विश्राम की जगह ढूँढते हुए भाई साहिब के पास आए रहीम बख्स को भाई साहिब ने विश्राम करवाया और फिर रात का भोजन। रहीम ने इसी दौरान तारू सिंह से अपना दुख साझा किया और कहा कि पट्टे जिले से कुछ मुगल उनकी बेटी को अगवा कर ले गए है इसलिए वह नजर चुराते घूम रहे है। रहीम ने कहा कि उसने इस बारे में कई लोगों से शिकायत की है। लेकिन कहीं उसकी सुनवाई नहीं हुई।

रहीम बख्स की सारी बातें सुनकर भाई साहिब मुस्कुरा दिए और कहा गुरु के दरबार में तुम्हारी पुकार पहुँच गई है। अब तुम्हें बेटी मिल जाएगी। रहीम के वहाँ से जाने के बाद भाई तारू सिंह ने ये बात सिंखों के गुट को बताई और उस गुट के सभी सिखों ने मिलकर रहीम की बेटी को छुड़वा लिया। रहीम की बेटी की रिहाई पर तारू सिंह बहुत खुश थे। लेकिन लाहौर का गवर्नर जकारिया खान इस खबर को सुनकर भीतर ही भीतर झुलस चुका था।

दरअसल, एक ओर तो वो लोगों को इस्लाम कबूल करवाकर मुस्लिम बनाना चाह रहा था और दूसरी ओर मुस्लिमों को सिखों के एक गुट ने मार दिया। ये बात उसे किसी कीमत पर गँवारा नहीं थी। उसने तारू सिंह को अपने पास गिरफ्तार करके लाने को कहा। बस फिर क्या, मुगल सैनिक पहुँचे तारू सिंह के घर और जकारिया खान का आदेश सुनाया। इसके बाद भाई तारू घबराए नहीं। बल्कि उन्होंने उन लोगों को खाना खाने का आग्रह किया। पहले तो सैनिकों ने मना किया।

लेकिन बाद में वह भी मान गए। सबने भाई तारू के घर भोजन किया और फिर उन्हें गिरफ्तार करके जकारिया खान के पास ले आए। भाई तारू सिंह को कैदी के रूप में देखकर जकारिया खान बहुत खुश हुआ। उसने सिखों की बहादुरी के किस्से सुने ही हुए थे बस उसने अपने चालाक दिमाग में तारू सिंह को इस्लाम कबूल करवाने की युक्तियाँ जुटानी शुरू कर दी। उसका सोचना था कि अगर आज तारू सिंह मान गया तो कल को और सिख भी मानेंगे। मगर अफसोस, उसकी कोई जुगत काम न आई।

ज़कारिया खान ने तारू सिंह से कहा, “तारू सिंह… तुमने जो किया वह माफी के लायक बिलकुल नहीं है, लेकिन मैं तुम्हें एक शर्त पर छोड़ सकता हूँ। तुम इस्लाम कबूल कर लो, हमारे मित्र बन जाओ मैं तुम्हारी सभी गलतियों को नजरअंदाज कर दूँगा।“ मौत के सामने कोई जिंदगी के लिए सौदा कर रहा था। लेकिन तारू सिंह का जवाब बेहद निर्भीक था। वे जकारिया खान की ओर देखकर मुस्कुराए और कहा चाहे जान चली जाए लेकिन वह अपने गुरुओं के साथ गद्दारी कभी नहीं करेंगे। फिर उनका बलिदान हो गया।

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अनुपम कुमार सिंह
अनुपम कुमार सिंहhttp://anupamkrsin.wordpress.com
भारत की सनातन परंपरा के पुनर्जागरण के अभियान में 'गिलहरी योगदान' दे रहा एक छोटा सा सिपाही, जिसे भारतीय इतिहास, संस्कृति, राजनीति और सिनेमा की समझ है। पढ़ाई कम्प्यूटर साइंस से हुई, लेकिन यात्रा मीडिया की चल रही है। अपने लेखों के जरिए समसामयिक विषयों के विश्लेषण के साथ-साथ वो चीजें आपके समक्ष लाने का प्रयास करता हूँ, जिन पर मुख्यधारा की मीडिया का एक बड़ा वर्ग पर्दा डालने की कोशिश में लगा रहता है।

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