मीडिया में पिंकी करमाकर नाम की एक ‘ओलम्पिक टॉर्चबियरर’ की कहानी चलाई जा रही है। मंगलवार (10 अगस्त, 2021) को कई मीडिया संस्थानों और सोशल मीडिया में भी लोगों ने इस खबर को ऐसे पेश किया, जैसे वो किसी ‘खिलाड़ी की दुर्दशा’ दिखा रहे हों। दरअसल, खबर ये थी कि कभी ओलंपिक टॉर्चबियरर’ रहीं पिंकी करमाकर अब असम के डिब्रूगढ़ में स्थित के चाय के बागान में काम कर रही हैं।
ANI ने पिंकी करमाकर के बयान को भी प्रकाशित किया, जिसमें उन्होंने कहा था, “मुझे सरकार से कोई सुविधा नहीं मिली। मुझे नहीं पता है कि क्यों। UNISEF ने मेरा चयन किया था। मेरे सारे सपने टूट गए हैं।” खबरों में बताया गया कि 18 वर्ष की उम्र से ही वो सामाजिक गतिविधियों में लगी रही हैं और अपने क्षेत्र के महिलाओं को पढ़ाया भी करती थीं। बताया गया है कि वो स्कूल में कई खेल गतिविधियों में भी हिस्सा लेती थीं।
साथ ही वो 2012 में हुए ओलंपिक खेलों के दौरान ‘टॉर्चबियरर’ रही थीं। असल में उन्हें ‘संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (UNICEF)’ के ‘स्पोर्ट्स फॉर डेवलपमेंट (S4D)’ कार्यक्रम के तहत इसके लिए चुना गया था। इसी कार्यक्रम के तहत उन्हें लंदन में हुए ओलंपिक खेलों में बतौर ‘टॉर्चबियरर’ ले जाया गया था। ओलंपिक के दौरान ‘टॉर्चबियरर’ वो होते हैं, जो विभिन्न हिस्सों में ओलंपिक की मशाल लेकर दौड़ते हैं।
क्या पिंकी करमाकर एक खिलाड़ी हैं?
इसका सीधा सा जवाब है कि उन्होंने किसी खेल टूर्नामेंट में हिस्सा नहीं लिया है और ज़रूरी नहीं है कि ‘टॉर्चबियरर’ कोई खिलाड़ी ही हो। मीडिया ने इस खबर को इस तरह से चलाया, जैसे कि वो कोई एथलीट हों। जबकि ऐसा नहीं है। ‘इनसाइड स्पोर्ट’ नाम की एक वेबसाइट ने तो पिंकी करमाकर को ‘फ्लैबियरर’ ही बतया दिया और शीर्ष दिया – “नीरज चोपड़ा की उपलब्धि के बीच भारत के लिए शर्म की बात – ओलंपिक ‘फ्लैगबियरर’ असम में मजदूर के रूप में काम करती हुई पाई गईं।”
इन अस्पष्ट और झूठी सूचनाओं की जड़ ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ की एक खबर है, जिसे 8 अगस्त को प्रकाशित किया गया था। अख़बार में उनकी दिक्कतों का जिक्र किया गया था। TOI में लिखा था कि लंदन ओलंपिक से वो एक ‘मेडल विजेता’ के रूप में भारत आई थीं और उनका स्वागत हुआ था। उन्होंने अख़बार को बताया था, “मेरे सपने काफी बड़े थे, लेकिन अब कोई आशा ही नहीं बची है। माँ की मौत के बाद वित्तीय समस्याओं के कारण मुझे कॉलेज की पढ़ाई भी छोड़नी पड़ी।”
Inaccurate representation of facts. The below tweet stands deleted. pic.twitter.com/tz3tTzpsjA
— ANI (@ANI) August 10, 2021
इसी में उन्होंने बताया था कि अब वो एक चाय के बागान में बतौर मजदूर काम करती हैं। हालाँकि, ANI को जैसे ही पता चला कि ये सूचना सही नहीं है, उन्होंने अपनी खबर को डिलीट कर दिया। ANI ने उस खबर का स्क्रीनशॉट ट्विटर पर शेयर कर के जानकारी दी कि उसे हटा दिया गया है क्योंकि वो एक भ्रामक खबर था और अस्पष्ट सूचनाओं को फैला रहा था। कुछ मीडिया रिपोर्ट्स में ये खबर अब भी मौजूद है।
फ्लैगबियरर और टॉर्चबियरर में होते हैं अंतर
ओलंपिक के दौरान फ्लैगबियरर होते हैं, और उनके अलावा ‘टॉर्चबियरर’ भी होते हैं। दोनों का अपना अलग-अलग महत्व है। लेकिन, इन दोनों के बीच कोई समानता नहीं है। ओलंपिक की वेबसाइट के अनुसार, फ्लैगबियरर अपने देशों के प्रतिनिधि होते हैं और टीम के कप्तान के रूप में उन्हें देखा जाता है। वो ओलंपिक की ओपनिंग सेरेमनी के दौरान टीम के साथ आगे-आगे अपने देश का राष्ट्रीय ध्वज लेकर चलते हैं।
अक्सर किसी वरिष्ठ और सफल खिलाड़ी को इसकी जिम्मेदारी दी जाती है। जैसे, इस बार टोक्यो ओलंपिक में भारत की तरफ से वरिष्ठ बॉक्सर मैरी कॉम और भारतीय हॉकी टीम के कप्तान मनप्रीत सिंह भारत के ‘फ्लैगबियरर’ थे। ये काम एथलिट का ही होता है, जो ओलंपिक के एक या उससे अधिक प्रतिस्पर्धाओं में हिस्सा ले रहे हों। लेकिन, जो ‘टॉर्चबियरर’ होते हैं, वो इनसे बिलकुल अलग होते हैं।
‘टॉर्चबियरर’ ओलंपिक की मशाल को पूरे स्टेडियम में घुमाते हैं। ये कोई एथलिट नहीं होते, बल्कि किसी भी क्षेत्र में अच्छा काम करने वाले लोग होते हैं। जैसे हालिया टोक्यो ओलंपिक में टकसिघे शो नाम के एक जादूगर का नाम ‘टॉर्चबियरर्स’ की सूची में शामिल था। 2008 में बॉलीवुड अभिनेता आमिर खान भी ‘टॉर्चबियरर’ थे। उसी साल बीजिंग में में हुए ओलंपिक में भारतीय फुटबॉल स्टार बाइचुंग भुटिया ने ‘टॉर्चबियरर’ की जिम्मेदारी लेने से इनकार कर दिया था।
people seemed to have confused torchbearer as flagbearer. Torchbearers don't have to be sportspersons and many people hold the torch around the world as it passes via many regions. She was selected by UNICEF for the final round of relay in UK it seems.
— Rahul Roushan (@rahulroushan) August 10, 2021
तिब्बत में चीन के अत्याचारों के विरोध में उन्होंने ये फैसला लिया था। पिंकी ने बताया कि उन्हें टॉर्च रिले में शामिल होने के लिए वित्तीय सहायता देने का वादा किया गया था। उन्होंने बताया कि अब तक उन्हें कुछ नहीं मिला है और सच्चाई ये है कि एक मजदूर की बेटी अब भी मजदूर है। असल में तकनीकी रूप से ‘टॉर्चबियरर’ अपने देश के प्रतिनिधि नहीं होते, बल्कि ओलंपिक की भावना और मेजबान देश का प्रतिनिधित्व करते हैं।
इस साल हुए ‘टोक्यो 2020’ ओलंपिक खेलों को ही ले लीजिए। ‘टॉर्च रिले परेफरेंस टास्क फ़ोर्स (PTFs)’ ने इस साल 10,000 ‘टॉर्चबियरर्स’ को चुना था। साथ ही ‘टॉर्चबियरर्स’ को खुद के खर्च से यात्रा करने को कहा जाता है। UNICEF जैसी संस्थाएँ कुछ लोगों को चुनती रही हैं और उनके जाने-आने की व्यवस्था करती हैं। इसीलिए, इसके लिए भारत सरकार को दोष देना और ‘खिलाड़ियों की दुर्दशा’ वाला नैरेटिव गलत है।